शुक्रवार, 21 दिसंबर 2018

मुग़ल साम्राज्य

मध्यकाल में किसी भी शासक के लिए भारतीय उपमहाद्वीप जैसे बड़े क्षेत्र पर, जहाँ लोगों एवं संस्कृतियों में इतनी अधिक विविधताएँ हो, शासन कर पाना अत्यंत ही कठिन कार्य था। अपने पूर्ववर्तियों के विपरीत मुग़लों ने एक साम्राज्य कौ स्थापना की और वह कार्य पूरा किया, जो अब तक केवल छोटी अवधियों के लिए ही संभव जान पड़ता था। सोलहवीं सदी के उत्तरार्ध से, इन्होंने दिल्‍ली और आगरा से अपने राज्य का विस्तार शुरू किया और सत्रहवीं शताब्दी में लगभग संपूर्ण महाद्वीप पर अधिकार प्राप्त कर लिया। उन्होंने प्रशासन के ढाँचे तथा शासन संबंधी जो विचार लागू किए, वे उनके राज्य के पतन के बाद भी टिके रहे। यह एक ऐसी राजनैतिक धरोहर थी, जिसके प्रभाव से उपमहाद्वीप में उनके पश्चात्‌ आने वाले शासक अपने को अछूता न रख सकें। आज भारत के प्रधानमंत्री, स्वतंत्रता दिवस पर मुगल शासकों के निवासस्थान, दिल्ली के लालकिले की प्राचीर से राष्ट्र को संबोधित करते हैं।

मुगल कौन थे? 

मुगल दो महान शासक वंशों के वंशज थे। माता की ओर से वे मंगोल शासक चंगेज़ खान जो चीन और मध्य एशिया के कुछ भागों पर राज करता था, के उत्तराधिकारी थे। पिता की ओर से वे ईरान, इराक एवं वर्तमान तुर्की के शासक तैमूर (जिसकी मृत्यु 1404 में हुई) के वंशज थे। परंतु मुगल अपने को मुग़ल या मंगोल कहलवाना पसंद नहीं करते थे। ऐसा इसलिए था, क्योंकि चंगेज़ ख़ान से जुड़ी स्मृतियाँ सैंकड़ों व्यक्तियों के नरसंहार से संबंधित थीं। यही स्मृतियाँ मुगलों के प्रतियोगियों उज़बेगों से भी संबंधित थीं। दूसरी तरफ़, मुगल, तैमूर के वंशज होने पर गर्व का अनुभव करते थे, ज़्यादा इसलिए क्योंकि उनके इस महान पूर्वज ने 1398 में दिल्‍ली पर कब्जा कर लिया था।

उन्होंने अपनी वंशावली का प्रदर्शन चित्र बनवाकर किया। प्रत्येक मुगल शासक ने तैमूर के साथ अपना चित्र बनवाया।



मुगल सैन्य अभियान 

(पढ़ें मुग़ल साम्राज्य - उनके प्रमुख सैन्य अभियान और महत्वपूर्ण घटनाएँ)

प्रथम मुगल शासक बाबर (1526-1530) ने जब 1494 में फरघाना राज्य का उत्तराधिकार प्राप्त किया, तो उसकी उम्र केवल बारह वर्ष की थी। मंगोलों की दूसरी शाखा, उज़बेगों के आक्रमण के कारण उसे अपनी पैतृक गद्दी छोड़नी पड़ी। अनेक वर्षों तक भटकने के बाद उसने 1504 में काबुल पर कब्जा कर लिया। उसने 1526 में दिल्‍ली के सुलतान इब्राहिम लोदी को पानीपत में हराया और दिल्‍ली और आगरा को अपने कब्जे में कर लिया।

उत्तराधिकार की मुगल पंरपराएँ 

मुगल ज्येष्ठाधिकार के नियम में विश्वास नहीं करते थे जिसमें ज्येष्ठ पुत्र अपने पिता के राज्य का उत्तराधिकारी होता था। इसके विपरीत, उत्तराधिकार में वे सहदायाद की मुगल और तैमूर वंशों की प्रथा को अपनाते थे जिसमें उत्तराधिकार का विभाजन समस्त पुत्रों में कर दिया जाता था।

मुग़लों के अन्य शासकों के साथ संबंध 

मुग़लों ने उन शासकों के विरुद्ध लगातार अभियान किए, जिन्होंने उनकी सत्ता को स्वीकार करने से इंकार कर दिया। जब मुग़ल शक्तिशाली हो गए तो अन्य कई शासकों ने स्वेच्छा से उनकी सत्ता स्वीकार कर ली। राजपूत इसका एक अच्छा उदाहरण हैं। अनेकों ने मुगल घराने में अपनी पुत्रियों के विवाह करके उच्च पद प्राप्त किए। परंतु कइयों ने विरोध भी किया।

जहाँगीर की माँ कच्छवा की राजकुमारी थी। वह अम्बर (वर्तमान में जयपुर) के राजपूत शासक की पुत्री थी। शाहजहाँ की माँ एक राठौड़ राजकुमारी थी। वह मारवाड़ (जोधपुर) के राजपूत शासक की पुत्री थी।

मेवाड़ के सिसोदिया राजपूत लंबे समय तक मुग़लों की सत्ता को स्वीकार करने से इंकार करते रहे, परंतु जब वे हारे तो मुग़लों ने उनके साथ सम्माननीय व्यवहार किया और उन्हें उनकी जागीरें (वतन), वतन जागीर के रूप में वापिस कर दीं। पराजित करने परंतु अपमानित न करने के बीच सावधानी से बनाए गए संतुलन को वजह से मुगल भारत के अनेक शासकों और सरदारों पर अपना प्रभाव बढ़ा पाए। परंतु इस संतुलन को हमेशा बरकरार रखना कठिन था। जब शिवाजी मुगल सत्ता स्वीकार करने आए तो औरंगज़्ञेब ने उनका अपमान किया। इस अपमान का क्या परिणाम हुआ? 

मनसबदार और जागीरदार 

जैसे-जैसे साम्राज्य में विभिन क्षेत्र सम्मिलित होते गए, वैसे-वैसे मुगलों ने तरह-तरह के सामाजिक समूहों के सदस्यों को प्रशासन में नियुक्त करना आरंभ किया। शुरू-शुरू में ज़्यादातर सरदार, तुर्की (तूरानी) थे, लेकिन अब इस छोटे समूह के साथ-साथ उन्होंने शासक वर्ग में ईरानियों, भारतीय मुसलमानों, अफ़गानों, राजपूतों, मराठों और अन्य समूहों को सम्मिलित किया। मुगलों की सेवा में आने वाले नौकरशाह 'मनसबदार' कहलाए।

“मनसबदार' शब्द का प्रयोग ऐसे व्यक्तियों के लिए होता था, जिन्हें कोई मनसब यानी कोई सरकारी हैसियत अथवा पद मिलता था। यह मुग़लों द्वारा चलाई गई श्रेणी व्यवस्था थी, जिसके ज़रिए (1) पद; (2) वेतन; एवं (3) सैन्य उत्तरदायित्व, निर्धारित किए जाते थे। पद और वेतन का निर्धारण जात की संख्या पर निर्भर था। जात की संख्या जितनी अधिक होती थी, दरबार में अभिजात की प्रतिष्ठा उतनी ही बढ़ जाती थी और उसका वेतन भी उतना ही अधिक होता था।
5,000 जात वाले अभिजातों का दर्जा 1,000 जात वाले अभिजातों से ऊँचा था। अकबर के शासन काल में 29 ऐसे मनसबदार थे जो 5,000 जात की पदवी के थे। औरंगजेब के शासनकाल तक ऐसे मनसबदारों की संख्या 79 हो गई।

जो सैन्य उत्तरदायित्व मनसबदारों को सौंपे जाते थे उन्हीं के अनुसार उन्हें घुड़सवार रखने पड़ते थे।

मनसबदार अपने सवारों को निरीक्षण के लिए लाते थे। वे अपने सैनिकों के घोड़ों को दगवाते थे एवं सैनिकों का पंजीकरण करवाते थे। इन कार्यवाहियों के बाद ही उन्हें सैनिकों को वेतन देने के लिए धन मिलता था।

मनसबदार अपना वेतन राजस्व एकत्रित करने वाली भूमि के रूप में पाते थे, जिन्हें जागीर कहते थे और जो तकरीबन “इक़्ताओं' के समान थीं। परंतु मनसबदार, मुक़्तियों से भिन्‍न, अपने जागीरों पर नहीं रहते थे और न ही उन पर प्रशासन करते थे। उनके पास अपनी जागीरों से केवल राजस्व एकत्रित करने का अधिकार था। यह राजस्व उनके नौकर उनके लिए एकत्रित करते थे, जबकि वे स्वयं देश के किसी अन्य भाग में सेवारत रहते थे।

अकबर के शासनकाल में इन जागीरों का सावधानीपूर्वक आकलन किया जाता था, ताकि इनका राजस्व मनसबदार के वेतन के तकरीबन बराबर रहे। औरंगज़ेब के शासनकाल तक पहुँचते-पहुँचते स्थिति बदल गई। अब प्राप्त राजस्व, मनसबदार के वेतन से बहुत कम था। मनसबदारों की संख्या में भी अत्यधिक वृद्धि हुई, जिसके कारण उन्हें जागीर मिलने से पहले एक लंबा इंतजार करना पड़ता था। इन सभी कारणों से जागीरों की संख्या में कमी हो गई। फलस्वरूप कई जागीरदार, जागीर रहने पर यह कोशिश करते थे कि वे जितना राजस्व वसूल कर सकें, कर लें। अपने शासनकाल के अंतिम वषों में औरंगज़ेब इन परिवर्तनों पर नियंत्रण नहीं रख पाया। इस कारण किसानों को अत्यधिक मुसीबतों का सामना करना पड़ा।

ज़ब्त और ज़मीदार 

मुगलों की आमदनी का प्रमुख साधन किसानों की उपज से मिलने वाला राजस्व था। अधिकतर स्थानों पर किसान ग्रामीण कुलीनों यानी कि मुखिया या स्थानीय सरदारों के माध्यम से राजस्व देते थे। समस्त मध्यस्थों के लिए, चाहे वे स्थानीय ग्राम के मुखिया हो या फिर शक्तिशाली सरदार हों, मुगल एक ही शब्द-ज़मीदार-का प्रयोग करते थे।

अकबर के राजस्वमंत्री टोडरमल ने दस साल (1570-1580) की कालावधि के लिए कृषि की पैदावार, कीमतों और कृषि भूमि का सावधानीपूर्वक सर्वेक्षण किया। इन आँकड़ों के आधार पर, प्रत्येक फ़लल पर नकद के रूप में कर (राजस्व) निश्चित कर दिया गया। प्रत्येक सूबे (प्रांत) को राजस्व मंडलों मेंबाँटा गया और प्रत्येक की हर फ़सल के लिए राजस्व दर की अलग सूची बनायी गई। राजस्व प्राप्त करने की इस व्यवस्था को 'ज़ब्त'” कहा जाता था। यह व्यवस्था उन स्थानों पर प्रचलित थी जहाँ पर मुगल प्रशासनिक अधिकारी भूमि का निरीक्षण कर सकते थे और सावधानीपूर्वक उनका हिसाब रख सकते थे। ऐसा निरीक्षण गुजरात और बंगाल जैसे प्रांतों में संभव नहीं हो पाया।

कुछ क्षेत्रों में ज़मीदार इतने शक्तिशाली थे कि मुगल प्रशासकों द्वारा शोषण किए जाने की स्थिति में वे विद्रोह कर सकते थे। कभी-कभी एक ही जाति के ज़मीदार और किसान मुग़ल सत्ता के खिलाफ़ मिलकर विद्रोह कर देते थे। सत्रहवीं शताब्दी के आखिर से ऐसे किसान विद्रोहों ने मुगल साम्राज्य के स्थायित्व को चुनौती दी।

अकबर की नीतियाँ - नज़दीक से एक नज़र

प्रशासन के मुख्य अभिलक्षण अकबर ने निर्धारित किए थे और इनका विस्तृत वर्णन अबुल फ़ज्ल की अकबरनामा, विशेषकर आइने-अकबरी में मिलता है। अबुल फ़ज्ल के अनुसारसाम्राज्य कई प्रांतों में बँटा हुआ था, जिन्हें 'सूबा' कहा जाता था। सूबों के प्रशासक 'सूबेदार' कहलाते थे, जो राजनैतिक तथा सैनिक, दोनों प्रकार के कार्यों का निर्वाह करते थे।

अकबर नामा और आइने अकबरी 

अकबर ने अपने करीबी मित्र और दरबारी अबुल फ़ज्ल को आदेश दिया कि वह उसके शासनकाल का इतिहास लिखे। अबुल फ़ज्ल ने यह इतिहास तीन जिल्दों में लिखा और इसका शीर्षक है अकबरनामा। पहली ज़िल्द में अकबर के पूर्वजों का बयान है और दूसरी अकबर के शासनकाल की घटनाओं का विवरण देती है। तीसरी जिल्द आइने-अकबरी है। इसमें अकबर के प्रशासन, घराने, सेना, राजस्व और साम्राज्य के भूगोल का ब्यौरा मिलता है। इसमें समकालीन भारत के लोगों की परंपराओं और संस्कृतियों का भी विस्तृत वर्णन है। आइने-अकबरी का सब से रोचक आयाम है, विविध प्रकार की चीज़ों-फ़सलों, पैदावार, कीमतों, मज़दूरी और राजस्व-का सांख्यिकीय विवरण।

प्रत्येक प्रांत में एक वित्तीय अधिकारी भी होता था जो 'दीवान' कहलाता था। कानून और व्यवस्था बनाए रखने के लिए सूबेदार को अन्य अफ़सरों का सहयोग प्राप्त था, जैसे कि बक्शी (सैनिक वेतनाधिकारी), सदर (धार्मिक और धर्मार्थ किए जाने वाले कार्यों का मंत्री), फ़ौजदार (सेनानायक) और कोतवाल (नगर का पुलिस अधिकारी) का।

अकबर के अभिजात, बड़ी सेनाओं का संचालन करते थे और बड़ी मात्रा में वे राजस्व खर्च कर सकते थे। जब तक वे वफ़ादार रहे, साम्राज्य का कार्य सफलतापूर्वक चलता रहा परंतु सत्रहतवीं सदी के अंत तक कई अभिजातों ने अपने स्वतंत्र ताने-बाने बुन लिए थे। साम्राज्य के प्रति उनकी वफ़ादारी उनके निजी हितों के कारण कमज़ोर पड़ गई थी।

1570 में अकबर जब फतेहपुर सीकरी में था, तो उसने उलेमा, ब्राह्मणों, जेसुइट पादरियों (जो रोमन कैथोलिक थे) और ज़रदुश्त धर्म के अनुयायियों के साथ धर्म के मामलों पर चर्चा शुरू की। ये चर्चाएँ इबादतखाना में हुईं।

अकबर ने कई संस्कृत ग्रंथों के फारसी में अनुवाद कार्यों को संपन्‍न कराया। इस उद्देश्य हेतु उसने फतेहपुर सीकरी में एक मकतबखाना या अनुवाद ब्यूरो की स्थापना भी की। महाभारत, रामायण, लीलावती और योगवशिष्ठ जैसे कुछ उल्लेखनीय संस्कृत ग्रंथ को अनुवाद कार्य के लिए चुना गया। रज्मनामा, जो महाभारत का फ़ारसी अनुवाद है, में महाभारत की घटनाओं का विस्तृत चित्रांकन है।

अकबर की रुचि विभिन्‍न व्यक्तियों के धमों और रीति-रिवाज्ञों में थी। इस विचार-विमर्श से अकबर की समझ बनी कि जो विद्वान धार्मिक रीति और मतांधता पर बल देते हैं, वे अकसर कट्टर होते हैं। उनकी शिक्षाएँ प्रजा के बीच विभाजन और असामंजस्य पैदा करतीं हैं। ये अनुभव अकबर को सुलह-ए-कुल या “सर्वत्र शांति' के विचार की ओर ले गए। सहिष्णुता की यह धारणा विभिन्न धर्मों के अनुयायियों में अंतर नहीं करती थी अपितु इसका केंद्रबिंदु थी नीतिशास्त्र की एक व्यवस्था, जो सर्वत्र लागू की जा सकती थी और जिसमें केवल सच्चाई, न्याय और शांति पर बल था।

सुलह-ए-कुल


अकबर की सुलह-ए-कुल की नीति का उनके पुत्र जहाँगीर ने इस प्रकार वर्णन किया है:

ईश्वरीय अनुकंपा के विस्तृत आँचल में सभी वर्गों और सभी धर्मों के अनुयायियों की एक जगह है। इसलिए उसके विशाल साम्राज्य में, जिसकी चारों ओर की सीमाएँ केवल समुद्र से ही निर्धारित होती थीं विरोधी धर्मों के अनुयायियों और तरह-तरह के अच्छे-बुरे विचारों के लिए जगह थी। यहाँ असहिष्णुता का मार्ग बंद था। यहाँ सुन्नी और शिया एक ही मस्ज़िद में इकट्ठे होते थे और ईसाई और यहूदी एक ही गिएजे में प्रार्थना करते थे। उसने सुसंगत तरीके से “सार्विक शाँति” (सुलह-ए-कुल) के सिद्धांत का पालन किया।

अबुल फ़ज्ल ने सुलह-ए-कुल के इस विचार पर आधारित शासन-दृष्टि बनाने में अकबर की मदद की। शासन के इस सिद्धांत को जहाँगीर और शाहजहाँ ने भी अपनाया।

सत्रहवीं शताब्दी में और उसके पश्चात्‌ मुगल साम्राज्य

मुग़ल साम्राज्य की प्रशासनिक और सैनिक कुशलता के फलस्वरूप आर्थिक और वाणिज्यिक समृद्धि में वृद्धि हुई। विदेशी यात्रियों ने इसे वैसा धनी देश बताया, जैसा कि किस्से-कहानियों में वर्णित होता रहा है। परंतु यही यात्री इसी प्रचुरता के साथ मिलने वाली दरिद्रता को देखकर विस्मित रह गए। सामाजिक असमानताएँ साफ़ दिखाई पड़ती थीं। शाहजहाँ के शासनकाल के बीसवें वर्ष के दस्तावेजों से हमें पता चलता है कि ऐसे मनसबदार, जिनको उच्चतम पद प्राप्त था, कुल 8000 में से 445 ही थे। कुल मनसबदारों को एक छोटी संख्या 5.6 प्रतिशत को ही साम्राज्य के अनुमानित राजस्व का 61.5 प्रतिशत, स्वयं उनके व उनके सवारों के वेतन के रूप में दिया जाता था।

(पढ़िए फ्रांस्वा बर्नियर वर्णित मुगलकाल)

मुग़ल सम्राट और उनके मनसबदार अपनी आय का बहुत बड़ा भाग वेतन और वस्तुओं पर लगा देते थे। इस ख़र्चे से शिल्पकारों और किसानों को लाभ होता था, चूँके वे वस्तुओं और फ़सल की पूर्ति करते थे। परंतु राजस्व का भार इतना था कि प्राथमिक उत्पादकों-किसान और शिल्पकारों-के पास निवेश के लिए बहुत कम धन बचता था। इनमें से जो बहुत गरीब थे, मुश्किल से ही पेट भर पाते थे। वे उत्पादन शक्ति बढ़ाने के लिए अतिरिक्त संसाधनों में-औज़ारों और अन्य वस्तुओं में-निवेश करने की बात सोच भी नहीं सकते थे। ऐसी अर्थव्यवस्था में ज़्यादा धनी किसान, शिल्पकारों के समूह, व्यापारी और महाजन ज़्यादा लाभ उठाते थे।

मुग़लों के कुलीन वर्ग के हाथों में बहुत धन और संसाधन थे, जिनके कारण सत्रहवीं सदी के अंतिम वर्षों में वे अत्यधिक शक्तिशाली हो गए। जैसे-जैसे मुगल सम्राट की सत्ता पतन की ओर बढ़ती गई, वैसे-वैसे विभिन्‍न क्षेत्रों में सप्राट के सेवक, स्वयं ही सत्ता के शक्तिशाली केंद्र बनने लगे। इनमें से कुछ ने नए वंश स्थापित किए और हैदराबाद एवं अवध जैसे प्रांतों में अपना नियंत्रण जमाया। यद्यपि वे दिल्ली के मुगल सम्राट को स्वामी के रूप में मान्यता देते रहे, तथापि अठारहवीं शताब्दी तक साम्राज्य के कई प्रांत अपनी स्वतंत्र राजनैतिक पहचान बना चुके थे।

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