यह सामग्री NCERT की विभिन्न कक्षाओं की इतिहास विषय की पाठ्यपुस्तक पर आधारित है।
नीतियाँ और लोग
ईस्ट इंडिया कंपनी की नीतियों से राजाओं, रानियों, किसानों, ज़मींदारों, आदिवासियों, सिपाहियों, सब पर तरह-तरह से असर पड़े। जो नीतियाँ और कार्रवाइयाँ जनता के हित में नहीं होतीं या जो उनकी भावनाओं को ठेस पहुँचाती हैं उनका लोग विरोध करते हैं।
नवाबों की छिनती सत्ता
अठारहवीं सदी के मध्य से ही राजाओं और नवाबों की ताकत छिनने लगी थी। उनकी सत्ता और सम्मान, दोनों खत्म होते जा रहे थे। बहुत सारे दरबारों में रेज़िडेंट तैनात कर दिए गए थे। स्थानीय शासकों की स्वतंत्रता घटती जा रही थी। उनकी सेनाओं को भंग कर दिया गया था। उनके राजस्व वसूली के अधिकार व इलाके एक-एक करके छीने जा रहे थे।
बहुत सारे स्थानीय शासकों ने अपने हितों की रक्षा के लिए कंपनी के साथ बातचीत भी की। उदाहरण के लिए, झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई चाहती थीं कि कंपनी उनके पति की मृत्यु के बाद उनके गोद लिए हुए बेटे को राजा मान ले। पेशवा बाजीराव द्वितीय के दत्तक पुत्र नाना साहेब ने भी कंपनी से आग्रह किया कि उनके पिता को जो पेंशन मिलती थी वह मृत्यु के बाद उन्हें मिलने लगे। अपनी श्रेष्ठता और सैनिक ताकत के नशे में चूर कंपनी ने इन निवेदनों को ठुकरा दिया।
अवध की रियासत अंग्रेजों के कब्जे में जाने वाली आखिरी रियासतों में से थी। 1801 में अवध पर एक सहायक संधि थोपी गयी और 1856 में अंग्रेज़ों ने उसे अपने कब्जे में ले लिया। गवर्नर जनरल डलहौजी ने ऐलान कर दिया कि रियासत का शासन ठीक से नहीं चलाया जा रहा है इसलिए शासन को दुरुस्त करने के लिए ब्रिटिश प्रभुत्व जरूरी है।
कंपनी ने मुगलों के शासन को खत्म करने की भी पूरी योजना बना ली थी। कंपनी द्वारा जारी किए गए सिक्कों पर से मुगल बादशाह का नाम हटा दिया गया। 1849 में गवर्नर जनरल डलहौज़ी ने ऐलान किया कि बहादुर शाहज़फर की मृत्यु के बाद बादशाह के परिवार को लाल क़िले से निकाल कर उसे दिल्ली में कहीं और बसाया जाएगा। 1856 में गवर्नर-जनरल कैनिंग ने फ़ैसला किया कि बहादुर शाह ज़फर आखिरी मुग़ल बादशाह होंगे। उनकी मृत्यु के बाद उनके किसी भी वंशज को बादशाह नहीं माना जाएगा। उन्हें केवल राजकुमारों के रूप में मान्यता दी जाएगी।
किसान और सिपाही
गाँवों में किसान और ज़मींदार भारी-भरकम लगान और कर वसूली के सख्त तौर-तरीकों से परेशान थे। बहुत सारे लोग महाजनों से लिया कर्ज नहीं लौटा पा रहे थे। इसके कारण उनकी पीढ़ियों पुरानी ज़मीनें हाथ से निकलती जा रही थीं।
कंपनी के तहत काम करने वाले भारतीय सिपाहियों के असंतोष की अपनी वजह थी। वे अपने वेतन, भत्तों और सेवा शर्तों के कारण परेशान थे। कई नए नियम उनकी धार्मिक भावनाओं और आस्थाओं को ठेस पहुँचाते थे। उस ज़माने में बहुत सारे लोग समुद्र पार नहीं जाना चाहते थे। उन्हें लगता था कि समुद्र यात्रा से उनका धर्म और जाति भ्रष्ट हो जाएँगे। जब 1824 में सिपाहियों को कंपनी की ओर से लडने के लिए समुद्र के रास्ते बर्मा जाने का आदेश मिला तो उन्होंने इस हुक्म को मानने से इनकार कर दिया। उन्हें ज़मीन के रास्ते से जाने में ऐतराज़ नहीं था। सरकार का हुक्म न मानने के कारण उन्हें सख्त सज़ा दी गई। क्योंकि यह मुद्दा अभी खत्म नहीं हुआ था इसलिए 1856 में कंपनी को एक नया कानून बनाना पड़ा। इस कानून में साफ़ कहा गया था कि अगर कोई व्यक्ति कंपनी की सेना में नौकरी करेगा तो ज़रूरत पड़ने पर उसे समुद्र पार भी जाना पड़ सकता है।
सिपाही गाँवों के हालात से भी परेशान थे। बहुत सारे सिपाही खुद किसान थे। वे अपने परिवार गाँवों में छोड़कर आए थे। लिहाज़ा, किसानों का गुस्सा जल्दी ही सिपाहियों में भी फैल गया।
सुधारों पर प्रतिक्रिया
अंग्रेज़ों को लगता था कि भारतीय समाज को सुधारना जरूरी है। सती प्रथा को रोकने और विधवा विवाह को बढ़ावा देने के लिए कानून बनाए गए। अंग्रेज़ी भाषा की शिक्षा को जमकर प्रोत्साहन दिया गया। 1830 के बाद कंपनी ने ईसाई मिशनरियों को खुलकर काम करने और यहाँ तक कि ज़मीन व संपत्ति जुटाने की भी छूट दे दी। 1850 में एक नया कानून बनाया गया जिससे ईसाई धर्म को अपनाना और आसान हो गया। इस कानून में प्रावधान किया गया था कि अगर कोई भारतीय व्यक्ति ईसाई धर्म अपनाता है तो भी पुरखों की संपत्ति पर उसका अधिकार पहले जैसा ही रहेगा। बहुत सारे भारतीयों को यकीन हो गया था कि अंग्रेज़ उनका धर्म, उनके सामाजिक रीति-रिवाज और परंपरागत जीवनशैली को नष्ट कर रहे हैं।
सैनिक विद्रोह जनविद्रोह बन गया
यद्यपि शासक और प्रजा के बीच संघर्ष कोई अनोखी बात नहीं होती लेकिन कभी-कभी ये संघर्ष इतने फैल जाते हैं कि राज्य की सत्ता छिन्न-भिन्न हो जाती है। बहुत सारे लोग मानने लगे हैं कि उन सबका शत्रु एक है। इसलिए वे सभी कुछ करना चाहते हैं। इस तरह की स्थिति में हालात अपने हाथ में लेने के लिए लोगों को संगठित होना पड़ता है, उन्हें संचार, पहलक़दमी और आत्मविश्वास का परिचय देना होता है।
भारत के उत्तरी भागों में 1857 में ऐसी ही स्थिति पैदा हो गई थी। फ़तह और शासन के 100 साल बाद ईस्ट इंडिया कंपनी को एक भारी विद्रोह से जूझना पड़ रहा था। मई 1857 में शुरू हुई इस बगावत ने भारत में कंपनी का अस्तित्व ही खतरे में डाल दिया था। मेरठ से शुरू करके सिपाहियों ने कई जगह बग़ावत की। समाज के विभिन्न तबकों के असंख्य लोग विद्रोही तेवरों के साथ उठ खड़े हुए। कुछ लोग मानते हैं कि उननीसवीं सदी में उपनिवेशवाद के खिलाफ दुनिया भर में यह सबसे बड़ा सशस्त्र संघर्ष था।
मेरठ से दिल्ली तक
29 मार्च 1857 को युवा सिपाही - मंगल पांडे - को बैरकपुर में अपने अफ़सरों पर हमला करने के आरोप में फाँसी पर लटका दिया गया। चंद दिन बाद मेरठ में तैनात कुछ सिपाहियों ने नए कारतूसों के साथ फ़ौजी अभ्यास करने से इनकार कर दिया। सिपाहियों को लगता था कि उन कारतूसों पर गाय और सूअर की चर्बी का लेप चढ़ाया गया था। 85 सिपाहियों को नौकरी से निकाल दिया गया। उन्हें अपने अफ़सरों का हुक्म न मानने के आरोप में 10-10 साल की सजा दी गई। यह 9 मई 1857 की बात है।
मेरठ में तैनात दूसरे भारतीय सिपाहियों की प्रतिक्रिया बहुत ज़बरदस्त रही। 10 मई को सिपाहियों ने मेरठ की जेल पर धावा बोलकर वहाँ बंद सिपाहियों को आज्ञाद करा लिया। उन्होंने अंग्रेज अफ़सरों पर हमला करके उन्हें मार गिराया। उन्होंने बंदूक और हथियार कब्जे में ले लिए और अंग्रेज़ों की इमारतों व संपत्तियों को आग के हवाले कर दिया। उन्होंने फ़िरंगियों के खिलाफ युद्ध का ऐलान कर दिया। सिपाही पूरे देश में अंग्रेजों के शासन को खत्म करने पर आमादा थे। लेकिन सवाल यह था कि अंग्रेज़ों के जाने के बाद देश का शासन कौन चलाएगा। सिपाहियों ने इसका भी जवाब ढूँढ़ लिया था। वे मुगल सम्राट बहादुर शाह जृफुर को देश का शासन सौंपना चाहते थे।
मेरठ के कुछ सिपाहियों को एक टोली 10 मई की रात को घोड़ों पर सवार होकर मुँह अँधेरे ही दिल्ली पहुँच गई। जैसे ही उनके आने की ख़बर फैली, दिल्ली में तैनात टुकड़ियों ने भी बगावत कर दी। यहाँ भी अंग्रेज़ अफसर मारे गए॥ देशी सिपाहियों ने हथियार व गोला बारूद कब्जे में ले लिया और इमारतों को आग लगा दी। विजयी सिपाही लाल किले की दीवारों के आसपास जमा हो गए। वे बादशाह से मिलना चाहते थे। बादशाह अंग्रेजों की भारी ताकत से दो-दो हाथ करने को तैयार नहीं थे लेकिन सिपाही भी अड़े रहे। आखिरकार वे जबरन महल में घुस गए और उन्होंने बहादुर शाह जफर को अपना नेता घोषित कर दिया।
बूढ़े बादशाह को सिपाहियों की यह माँग माननी पड़ी। उन्होंने देश भर के मुखियाओं और शासकों को चिट्ठी लिखकर अंग्रेज़ों से लड़ने के लिए भारतीय राज्यों का एक संघ बनाने का आह्वान किया। बहादुर शाह के इस एकमात्र कदम के गहरे परिणाम सामने आए।
अंग्रेज़ों से पहले देश के एक बहुत बड़े हिस्से पर मुगल साप्राज्य का ही शासन था। ज्यादातर छोटे शासक और रजवाड़े मुगल बादशाह के नाम पर ही अपने इलाकों का शासन चलाते थे। ब्रिटिश शासन के विस्तार से भयभीत ऐसे बहुत सारे शासकों को लगता था कि अगर मुगल बादशाह दोबारा शासन स्थापित कर लें तो वे मुगल आधिपत्य में दोबारा अपने इलाकों का शासन बेफिक्र होकर चलाने लगेंगे।
अंग्रेजों को इन घटनाओं की उम्मीद नहीं थी। उन्हें लगता था कि कारतूसों के मुद्दे पर पैदा हुई उधल-पुथल कुछ समय में शांत हो जाएगी। लेकिन जब बहादुर शाह जफर ने बग़ावत को अपना समर्थन दे दिया तो स्थिति रातोरात बदल गई। अकसर ऐसा होता है कि जब लोगों को कोई रास्ता दिखाई देने लगता है तो उनका उत्साह और साहस बढ़ जाता है। इससे उन्हें आगे बढ़ने की हिम्मत, उम्मीद और आत्मविश्वास मिलता है।
बग़ावत फैलने लगी
जब दिल्ली से अंग्रेजों के पैर उखड़ गए तो लगभग एक हफ्ते तक कहीं कोई विद्रोह नहीं हुआ। ज़ाहिर है ख़बर फैलने में भी कुछ समय तो लगना ही था। लेकिन फिर तो विद्रोहों का सिलसिला ही शुरू हो गया।
एक के बाद एक, हर रेजिमेंट में सिपाहियों ने विद्रोह कर दिया और वे दिल्ली, कानपुर व लखनऊ जैसे मुख्य बिंदुओं पर दूसरी टुकड़ियों का साथ देने को निकल पड़े। उनकी देखा-देखी कस्बों और गाँवों के लोग भी बगावत के रास्ते पर चलने लगे। वे स्थानीय नेताओं , ज़मींदारों और मखियाओं के पीछे संगठित हो गए। ये लोग अपनी सत्ता स्थापित करने और अंग्रेज़ों से लोहा लेने को तैयार थे। स्वर्गीय पेशवा बाजीराव के दत्तक पुत्र नाना साहेब कानपुर के पास रहते थे। उन्होंने सेना इकट्ठा की और ब्रिटिश सैनिकों को शहर से खदेडु दिया। उन्होंने खुद को पेशवा घोषित कर दिया। उन्होंने ऐलान किया कि वह बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र के तहत गवर्नर हैं। लखनऊ की गददी से हटा दिए गए नवाब वाजिद अली शाह के बेटे बिरजिस कुद्र को नया नवाब घोषित कर दिया गया।
बिरजिस कुद्र ने भी बहादुर शाह जुफर को अपना बादशाह मान लिया। उनकी माँ बेगम हजरत महल ने अंग्रेज़ों के खिलाफ़ विद्रोहों को बढ़ावा देने में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। झाँसी में रानी लक्ष्मीबाई भी विद्रोही सिपाहियों के साथ जा मिलीं। उन्होंने नाना साहेब के सेनापति ताँत्या योपे के साथ मिलकर अंग्रेज़ों को भारी चुनौती दी। मध्यप्रदेश के मांडला क्षेत्र में, राजगढ़ की रानी अवन्ति बाई लोधी ने 4000 सौनिकों की फौज तैयार की और अंग्रेजों के खिलाफ उसका नेतृत्व किया क्योंकि ब्रिटिश शासन ने उनके राज्य के प्रशासन पर नियंत्रण कर लिया था।
विद्रोही टुकडियों के सामने अंग्रेजों की संख्या बहुत कम थी। बहुत सारे मोर्चों पर उनकी जबरदस्त हार हुई। इससे लोगों को यकीन हो गया कि अब अंग्रेज़ों का शासन खत्म हो चुका है। अब लोगों को विद्रोहों में कूद पड़ने का गहरा आत्मविश्वास मिल गया था। खासतौर से अवध के इलाके में चौतरफा बगावत की स्थिति थी। 6 अगस्त 1857 को लेफ्टिनेंट कर्नल यइटलर ने अपने कमांडर-इन-चीफ़ को टेलीग्राम भेजा जिसमें उसने अंग्रेजों के भय को व्यक्त किया था : “हमारे लोग विरोधियों की संख्या और लगातार लड़ाई से थक गए हैं। एक-एक गाँव हमारे खिलाफ़ है। ज़मींदार भी हमारे खिलाफ़ खड़े हो रहे हैं।”
इस दौरान बहुत सारे महत्वपूर्ण नेता सामने आए। उदाहरण के लिए, फ़ैजाबाद के मौलवी अहमदुल्ला शाह ने भविष्यवाणी कर दी कि अंग्रेज़ों का शासन जल्दी ही खत्म हो जाएगा। वह समझ चुके थे कि जनता क्या चाहती है। इसी आधार पर उन्होंने अपने समर्थकों की एक विशाल संख्या जुटा ली। अपने समर्थकों के साथ वे भी अंग्रेज़ों से लड़ने लखनऊ जा पहुँचे। दिल्ली में अंग्रेज़ों का सफ़ाया करने के लिए बहुत सारे गाज़ी यानी धर्मयोद्धा इकट्ठा हो गए थे। बरेली के सिपाही बख्त खान ने लड़ाकों की एक विशाल टुकडी के साथ दिल्ली की ओर कूच कर दिया। वह इस बगावत में एक मुख्य व्यक्ति साबित हुए। बिहार के एक पुराने ज़मींदार कुँवर सिंह ने भी विद्रोही सिपाहियों का साथ दिया और महीनों तक अंग्रेज़ों से लड़ाई लडी। तमाम इलाकों के नेता और लड़ाके इस युद्ध में हिस्सा ले रहे थे।
कंपनी का पलटवार
इस उथल-पुथल के बावजूद अंग्रेजों ने हिम्मत नहीं छोड़ी। कंपनी ने अपनी पूरी ताकत लगाकर विद्रोह को कुचलने का फैसला लिया। उन्होंने इंग्लैंड से और फ़ौजी मँगवाए, विद्रोहियों को जल्दी सज़ा देने के लिए नए कानून बनाए और विद्रोह के मुख्य केंद्रों पर धावा बोल दिया। सितंबर 1857 में दिल्ली दोबारा अंग्रेजों के कब्जे में आ गई। अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र पर मुकदमा चलाया गया और उन्हें आजीवन कारावास की सजा दी गई। उनके बेटों को उनकी आँखों के सामने गोली मार दी गई। बहादुर शाह और उनकी पत्नी बेगम जीनत महल को अक्तूबर 1858 में रंगून जेल में भेज दिया गया। इसी जेल में नवंबर 1862 में बहादुर शाह ज़फ़र ने अंतिम साँस ली।
दिल्ली पर अंग्रेजों का कब्जा हो जाने का यह मतलब नहीं था कि विद्रोह खत्म हो चुका था। इसके बाद भी लोग अंग्रेजों से टक्कर लेते रहे। व्यापक बगावत की विशाल ताकत को कुचलने के लिए अंग्रेजों को अगले दो साल तक लड़ाई लड़नी पड़ी।
मार्च 1858 में लखनऊ अंग्रेज़ों के कब्जे में चला गया। जून 1858 में रानी लक्ष्मीबाई की शिकस्त हुई और उन्हें मार दिया गया। दुर्भाग्यवश, ऐसा ही रानी अवन्ति बाई लोधी के साथ हुआ। खेड़ी की शुरुआती विजय के बाद उन्होंने अपने आप को अंग्रेजी फौज से घिरा पाया और वे शहीद हो गईं।
तात्या टोपे मध्य भारत के जंगलों में रहते हुए आदिवासियों और किसानों कौ सहायता से छापामार युद्ध चलाते रहे।
जिस तरह पहले अंग्रेजों के खिलाफ़ मिली सफलताओं से विद्रोहियों को उत्साह मिला था उसी तरह विद्रोही ताकतों की हार से लोगों की हिम्मत टूटने लगी। बहुत सारे लोगों ने विद्रोहियों का साथ छोड़ दिया। अंग्रेज़ों ने भी लोगों का विश्वास जीतने के लिए हर संभव प्रयास किया। उन्होंने वफ़ादार भूस्वामियों के लिए ईनामों का ऐलान कर दिया। उन्हें आश्वासन दिया गया कि उनकी ज़मीन पर उनके परंपरागत अधिकार बने रहेंगे। जिन्होंने विद्रोह किया था उनसे कहा गया कि अगर वे अग्रेज्ञों के सामने समर्पण कर देते हैं और अगर उन्होंने किसी अंग्रेज की हत्या नहीं की है तो वे सुरक्षित रहेंगे और ज़मीन पर उनके अधिकार और दावेदारी बनी रहेगी। इसके बावजूद सैकड़ों सिपाहियों, विद्रोहियों, नवाबों और राजाओं पर मुक़दमे चलाए गए और उन्हें फाँसी पर लटका दिया गया।
(पढ़िए 1857 की क्रांति की असफलता के कारण)
विद्रोह के बाद के साल
अंग्रेज़ों ने 1859 के आखिर तक देश पर दोबारा नियंत्रण पा लिया था लेकिन अब वे पहले वाली नीतियों के सहारे शासन नहीं चला सकते थे। अंग्रेजों ने जो अहम बदलाव किए वे निम्नलिखित हैं -
1. ब्रिटिश संसद ने 1858 में एक नया कानून पारित किया और ईस्ट इंडिया कंपनी के सारे अधिकार ब्रिटिश साम्राज्य के हाथ में सौंप दिए ताकि भारतीय मामलों को ज्यादा बेहतर ढंग से सँभाला जा सके। ब्रिटिश मंत्रिमंडल के एक सदस्य को भारत मंत्री के रूप में नियुक्त किया गया। उसे भारत के शासन से संबंधित मामलों को सँभालने का जिम्मा सौंपा गया। उसे सलाह देने के लिए एक परिषद का गठन किया गया जिसे इंडिया काउंसिल कहा जाता था। भारत के गवर्नर-जनरल को वायसराय का ओहदा दिया गया। इस प्रकार उसे इंगलैंड के राजा/रानी का निजी प्रतिनिधि घोषित कर दिया गया। फलस्वरूप, अंग्रेज सरकार ने भारत के शासन की ज़िम्मेदारी सीधे अपने हाथों में ले ली।
2. देश के सभी शासकों को भरोसा दिया गया कि भविष्य में कभी भी उनके भूक्षेत्र पर कब्जा नहीं किया जाएगा। उन्हें अपनी रियासत अपने वंशजों, यहाँ तक कि दत्तक पुत्रों को सौंपने की छूट दे दी गई। लेकिन उन्हें इस बात के लिए प्रेरित किया गया कि वे ब्रिटेन की रानी को अपना अधिपति स्वीकार करें। इस तरह, भारतीय शासकों को ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन शासन चलाने की छूट दी गई।
3. सेना में भारतीय सिपाहियों का अनुपात कम करने और यूरोपीय सिपाहियों की संख्या बढ़ाने का फैसला लिया गया। यह भी तय किया गया कि अवध, बिहार, मध्य भारत और दक्षिण भारत से सिपाहियों को भर्ती करने की बजाय अब गोरखा, सिखों और पठानों में से ज़्यादा सिपाही भर्ती किए जाएँगे।
4. मुसलमानों की ज़मीन और संपत्ति बड़े पैमाने पर ज़ब्त की गई। उन्हें संदेह व शत्रुता के भाव से देखा जाने लगा। अंग्रेजों को लगता था कि यह विद्रोह उन्होंने ही खड़ा किया था।
5. अंग्रेज़ों ने फ़ैसला किया कि वे भारत के लोगों के धर्म और सामाजिक रीति-रिवाजों का सम्मान करेंगे।
6. भूस्वामियों और ज़मींदारों की रक्षा करने तथा ज़मीन पर उनके अधिकारों को स्थायित्व देने के लिए नीतियाँ बनाई गईं।
इस प्रकार, 1857 के बाद इतिहास का एक नया चरण शुरू हुआ।
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10 मई 1857 की दोपहर बाद मेरठ छावनी में सिपाहियों ने विद्रोह कर दिया। हलचल की शुरुआत भारतीय सैनिकों से बनी पैदल सेना से हुई थी जो जल्द ही घुड़सवार फ़ौज और फिर शहर तक फैल गई। शहर और आसपास के देहात के लोग सिपाहियों के साथ जुड़ गए। सिपाहियों ने शस्त्रागार पर क़ब्जा कर लिया जहाँ हथियार और गोला-बारूद रखे हुए थे। इसके बाद उन्होंने गोरों पर निशाना साधा और उनके बंगलों, साजो-सामान को तहस-नहस करना और जलाना-फूँकना शुरू कर दिया। रिकॉर्ड दफ़्तर, जेल, अदालत, डाकखाने, सरकारी खजाने, जैसी सरकारी इमारतों को लूटकर तबाह किया जाने लगा। शहर को दिल्ली से जोड़ने वाली टेलीग्राफ़ लाइन काट दी गई। अँधेरा पसरते ही सिपाहियों का एक जत्था घोड़ों पर सवार होकर दिल्ली की तरफ़ चल पड़ा। यह जत्था 11 मई को तड़के लाल क़िले के फाटक पर पहुँचा। रमज़ान का महीना था। मुगल सफ़्नाट बहादुर शाह नमाज़ पढ़कर और सहरी (रोज़े के दिनों में सूरज उगने से पहले का भोजन) खाकर उठे थे। उन्हें फाटक पर हो-हल्ला सुनाई दिया। बाहर खड़े सिपाहियों ने जानकारी दी कि “हम मेरठ के सभी अंग्रेज पुरुषों को मारकर आए हैं क्योंकि वे हमें गाय और सुअर की चर्बी में लिपटे कारतूस दाँतों से खींचने के लिए मजबूर कर रहे थे। इससे हिंदू और मुसलमान, सबका धर्म भ्रष्ट हो जाएगा।” तब तक सिपाहियों का एक और जत्था दिल्ली में दाखिल हो चुका था और शहर के आम लोग उनके साथ जुड़ने लगे थे। बहुत सारे यूरोपियन लोग मारे गए, दिल्ली के अमीर लोगों पर हमले हुए और लूटपाट हुई। दिल्ली अंग्रेज़ों के नियंत्रण से बाहर जा चुकी थी। कुछ सिपाही लाल क़िले में दाखिल होने के लिए दरबार के शिष्टाचार का पालन किए बिना बेधड़क क़िले में घुस गए थे। उनकी माँग थी कि बादशाह उन्हें अपना आशीर्वाद दें। सिपाहियों से घिरे बहादुर शाह के पास उनकी बात मानने के अलावा और कोई चारा न था। इस तरह इस विद्रोह ने एक वैधता हासिल कर ली क्योंकि अब उसे मुगल बादशाह के नाम पर चलाया जा सकता था।
12 और 13 मई को उत्तर भारत में शांति रही। लेकिन जैसे ही यह ख़बर फैली कि दिल्ली पर विद्रोहियों का क़ब्ज़ा हो चुका है और बहादुर शाह ने विद्रोह को अपना समर्थन दे दिया है, हालात तेज़ी से बदलने लगे। गंगा घाटी की खाबनियों और दिल्ली के पश्चिम की कुछ छावनियों में विद्रोह के स्वर तेज़ होने लगे।
1. विद्रोह का ढर्रा
यदि इन विद्रोहों को तारीख़ के हिसाब से सिलसिलेवार रखा जाए तो ऐसा लगता है कि जैसे जैसे विद्रोह की ख़बर एक शहर से दूसरे शहर में पहुँचती गई वैसे-वैसे सिपाही हथियार उठाते गए। हर छावनी में विद्रोह का घटनाक्रम कमोबेश एक जैसा था।
1.1 सैन्य विद्रोह कैसे शुरू हुए
सिपाहियों ने किसी न किसी विशेष संकेत के साथ अपनी कार्रवाई शुरू कौ। कई जगह शाम के समय तोप का गोला दाग़ा गया तो कहीं बिगुल बजाकर विद्रोह का संकेत दिया गया। सबसे पहले उन्होंने शस्त्रागार पर क़ब्ज़ा किया और सरकारी ख़ज़ाने को लूटा। इसके बाद उन्होंने जेल, सरकारी ख़ज्जाने, टेलीग्राफ़ दफ़्तर, रिकॉर्ड रूम, बंगलों, तमाम सरकारी इमारतों पर हमला किया और सारे रिकॉर्ड जलाते चले गए। गोरों से संबंधित हर चीज़ और हर शख्स हमले का निशाना था। हिंदुओं और मुसलमानों, तमाम लोगों को एकजुट होने और फ़िरंगियों का सफाया करने के लिए हिंदी, उर्दू और फ़ारसी में अपीलें जारी होने लगीं।
विद्रोह में आम लोगों के भी शामिल हो जाने के साथ साथ हमलों का दायरा फैल गया। लखनऊ, कानपुर और बरेली जैसे बड़े शहरों में साहूकार और अमीर भी विद्रोहियों के गुस्से का शिकार बनने लगे। किसान इन लोगों को न केवल अपना उत्पीड़क बल्कि अंग्रेजों का पिट्ठू मानते थे। ज़्यादातर जगह अमीरों के घर-बार लूटकर तबाह कर दिए गए। सिपाहियों कौ क़तारों में हुए इन छिटपुट विद्रोहों ने जल्दी ही एक चौतरफ़ा विद्रोह का रूप ले लिया। शासन की सत्ता और सोपानों की सरेआम अवहेलना होने लगी।
मई-जून के महीनों में अंग्रेजों के पास विद्रोहियों की कार्रवाइयों का कोई जवाब नहीं था। अंग्रेज़ अपनी ज़िंदगी और घर-बार बचाने में फँसे हुए थे। जैसा कि एक ब्रिटिश अफ़सर ने लिखा, ब्रिटिश शासन “ताश के क़िले की तरह बिखर गया।"
1.2 संचार के माध्यम
अलग-अलग स्थानों पर विद्रोह के ढरें में समानता की वजह आशिक रूप से उसकी योजना और समन्वय में निहित थी। इसमें कोई शक नहीं कि विभिन्न छवनियों के सिपाहियों के बीच अच्छा संचार बना हुआ था। जब सातवीं अवध इरेग्युलर कैवेलरी ने मई की शुरुआत में नए कारतूसों का इस्तेमाल करने से इनकार कर दिया तो उन्होंने 48 नेटिव इन्फेंट्री को लिखा कि “हमने अपने धर्म की रक्षा के लिए यह फ़ैसला लिया है और 48 नेटिव इन्फेंट्री के हुक्म का इंतज़ार कर रहे हैं।” सिपाही या उनके संदेशवाहक एक जगह से दूसरी जगह जा रहे थे। लब्बोलुआब ये कि लोग बस बग़ावत के मंसूबे गढ़ रहे थे और उसी के बारे में बात करते थे।
विद्रोहों की बनावट और जिन साक्ष्यों के आधार पर ऐसा लगता है कि इन विद्रोहों में एक योजना और समन्वय था, उनको देखकर कुछ अहम सवाल खडे होते हैं। ये योजनाएँ कैसे बनाई गईं? योजनाकार कौन थे? मौजूदा दस्तावेज्ञों के आधार पर इन सवालों के सीधे-सीधे जवाब देना कठिन है। फिर भी, एक घटना इस बारे में कुछ सुराग ज़रूर देती है कि ये विद्रोह इतने सुनियोजित कैसे थे। विद्रोह के दौरान अवध मिलिट्री पुलिस के कैप्टेन हियसें की सुरक्षा का ज़िम्मा भारतीय सिपाहियों पर था। जहाँ कैप्टेन हियसें तैनात था वहीं 41वीं नेटिव इन्फेंट्री भी तैनात थी। इन्फेंट्री की दलील थी कि क्योंकि वे अपने तमाम गोरे अफ़सरों को ख़त्म कर चुके हैं इसलिए अवध मिलिट्री का फ़र्ज बनता है कि या तो वे हियसें को मौत की नींद सुला दें या उसे गिरफ्तार करके 41वीं नेटिव इन्फेंट्री के हवाले कर दें। मिलिट्री पुलिस ने दोनों दलीलें सख़ारिज कर दीं। अब यह तय किया गया कि इस मामले को हल करने के लिए हर रेजीमेंट के देशी अफ़सरों की एक पंचायत बुलाई जाए। इस विद्रोह के शुरुआती इतिहासकारों में से एक, चार्ल्स बॉल ने लिखा है कि ये पंचायतें रात को कानपुर सिपाही लाइनों में जुटती थीं। इसका मतलब है कि सामूहिक रूप से कुछ फ़ैसले ज़रूर लिए जा रहे थे। क्योंकि सिपाही लाइनों में रहते थे और सभी की जीवनशैली एक जैसी थी और क्योंकि उनमें बहुत सारे प्रायः एक ही जाति के होते थे इसलिए इस बात का अंदाज्ञा लगाना मुश्किल नहीं है कि वे इकट्ठा बैठकर अपने भविष्य के बारे में फ़ैसले ले रहे होंगे। ये सिपाही अपने विद्रोह के कर्ताधर्ता खुद ही थे।
1.3 नेता और अनुयायी
अंग्रेज़ों से लोहा लेने के लिए नेतृत्व और संगठन ज़रूरी थे। इन लक्ष्यों को हासिल करने के लिए विद्रोहियों ने कई बार ऐसे लोगों की शरण ली जो अंग्रेजों से पहले नेताओं की भूमिका निभाते थे। जैसा कि हम पीछे देख चुके हैं, मेरठ के सिपाहियों ने सबसे पहले जो काम किए उनमें एक यह था कि वे फ़ौरन दिल्ली गए और उन्होंने बूढ़े हो चुके मुगल बादशाह से विद्रोह का नेतृत्व स्वीकार करने कौ दरख्वास्त को। लेकिन इस निवेदन पर सहमति हासिल करने में भी वक़्त लगा। बहादुर शाह इस ख़बर पर भयभीत और बैचेन दिखाई दिए। बहादुर शाह ने नाममात्र का नेता बनने की ज़िम्मेदारी भी तब स्वीकार की जब कुछ सिपाही शाही शिष्टाचार की अवहेलना करते हुए जबरन लाल क़िले के मुगल दरबार में जा घुसे और बहादुर शाह के पास वाकई कोई चारा नहीं बचा था।
अन्य स्थानों पर भी, छोटे पैमाने पर ही सही, इसी तरह के दृश्य घट चुके थे। कानपुर में सिपाहियों और शहर के लोगों ने पेशवा बाजीराव द्वितीय के उत्तराधिकारी नाना साहिब के सामने बग़ावत की बागडोर संभालने के सिवा और कोई विकल्प ही नहीं छोड़ा था। झाँसी में रानी को आम जनता के दवाब में बगावत का नेतृत्व सँभालना पड़ा। कुछ ऐसी ही स्थिति बिहार में आरा के स्थानीय ज़मींदार कुँवर सिंह की थी। अवध में नवाब वाजिद अली शाह जैसे लोकप्रिय शासक को गद्दी से हय दिए जाने और उनके राज्य पर क़ब्ज्ञा कर लेने की यादें लोगों के ज़हन में अभी भी ताज़ा थीं। लखनऊ में ब्रिटिश राज के ढहने की ख़बर पर लोगों ने नवाब के युवा बेटे बिरजिस क़ंद्र को अपना नेता घोषित कर दिया था।
सभी जगहों पर नेता दरबारों से जुड़े व्यक्ति-रानियाँ, राजा, नवाब, ताल्लुक़दार-नहीं थे। अकसर विद्रोह का संदेश आम पुरुषों एवं महिलाओं के ज़रिए और कुछ स्थानों पर धार्मिक लोगों के ज़रिए भी फैल रहा था। मेरठ से इस आशय की ख़बरें आ रही थीं कि वहाँ हाथी पर सवार एक फ़क़ीर को देखा गया था जिससे सिपाही बार-बार मिलने जाते थे। लखनऊ में अवध पर क्रब्ज्षे के बाद बहुत सारे धार्मिक नेता और स्वयंभू पैगम्बर प्रचारक ब्रिटिश राज को नेस्तनाबूद करने का अलख जगा रहे थे।
अन्य स्थानों पर किसानों, ज़मींदारों और आदिवासियों को विद्रोह के लिए उकसाते हुए कई स्थानीय नेता सामने आ चुके थे। शाह मल ने उत्तर प्रदेश में बड़ौत परगना के गाँव बालों को संगठित किया। छोटा नागपुर स्थित सिंहभूम के एक आदिवासी काश्तकार गोनू ने इलाके के कोल आदिवासियों का नेतृत्व सँभाला हुआ था।
1.4 अफ़वाहें और भविष्यवाणियाँ
तरह-तरह की अफ़वाहों और भविष्यवाणियों के ज़रिए लोगों को उठ खड़ा होने के लिए उकसाया जा रहा था। जैसा कि हमने पीछे देखा, मेरठ से दिल्ली आने वाले सिपाहियों ने बहादुर शाह को उन कारतूसों के बारे में बताया था जिन पर गाय और सुअर की चर्बी का लेप लगा था। उनका कहना था कि अगर वे इन कारतूसों को मुँह से लगाएँगे तो उनकी जाति और मज़हब, दोनों भ्रष्ट हो जाएँगे। सिपाहियों का इशारा एन्फ़ील्ड राइफ़ल के उन कारतूसों की तरफ़ था जो हाल ही में उन्हें दिए गए थे। अंग्रेज़ों ने सिपाहियों को लाख समझाया कि ऐसा नहीं है लेकिन यह अफ़वाह उत्तर भारत की छावनियों में जंगल की आग की तरह फैलती चली गई।
इस अफ़वाह का स्रोत ढूँढा जा सकता है। राइफ़ल इंस्ट्रक्शन डिपो के कमांडेंट कैप्टेन राइट ने अपनी रिपोर्ट में लिखा था कि दम दम स्थित शस्त्रागार में काम करने वाले “नीची जाति” के एक खलासी ने जनवरी 1857 के तीसरे हफ़्ते में एक ब्राह्मण सिपाही से पानी पिलाने के लिए कहा था। ब्राह्मण सिपाही ने यह कहकर अपने लोटे से पानी पिलाने से इनकार कर दिया कि “नीची जाति” के छूने से लोटा अपवित्र हो जाएगा। रिपोर्ट के मुताबिक, इस पर खलासी ने जवाब दिया कि “(वैसे भी) जल्दी ही तुम्हारी जाति भ्रष्ट होने वाली है क्योंकि अब तुम्हें गाय और सुअर की चर्बी लगे कारतूसों को मुँह से खींचना पड़ेगा।” इस रिपोर्ट की विश्वसनीयता के बारे में कहना मुश्किल है लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि जब एक बार यह अफ़वाह फैलना शुरू हुई तो अंग्रेज अफ़सरों के तमाम आश्वासनों के बावजूद इसे ख़त्म नहीं किया जा सका और इसने सिपाहियों में एक गहरा गुस्सा पैदा कर दिया।
1857 की शुरुआत तक उत्तर भारत में यही एक अफ़वाह नहीं थी। यह अफ़वाह भी ज़ोरों पर थी कि अंग्रेज़ सरकार ने हिंदुओं और मुसलमानों की जाति और धर्म को नष्ट करने के लिए एक भयानक साज़िश रच ली है। अफ़वाह फैलाने वालों का कहना था कि इसी मकसद को हासिल करने के लिए अंग्रेज्ों ने बाज़ार में मिलने वाले आटे में गाय और सुअर की हड्डियों का चूरा मिलवा दिया है। शहरों और छावनियों में सिपाहियों और आम लोगों ने आटे को छूने से भी इनकार कर दिया। चारों तरफ़ इस आशय का भय और शक बना हुआ था कि अंग्रेज हिंदुस्तानियों को ईसाई बनाना चाहते हैं। यह बेचैनी बहुत तेज़ी से फैली। ब्रिटिश अफ़सरों ने लोगों को अपनी बात का यकीन दिलाने का भरसक प्रयास किया लेकिन नाकामयाब रहे। इन्हीं बेचैनियों ने लोगों को अगला कदम उठाने के लिए झिंझोड़ा। किसी बड़ी कार्रवाई के आहवान को इस भविष्यवाणी से और बल मिला कि प्लासी की जंग के 100 साल पूरा होते ही 23 जून 1857 को अंग्रेजी राज ख़त्म हो जाएगा।
बात सिर्फ़ अफ़वाहों तक ही सीमित नहीं थी। उत्तर भारत के विभिन्न भागों से गाँव-गाँव में चपातियाँ बैँटने की भी रिपोर्टे आ रही थीं। बताते हैं कि रात में एक आदमी आकर गाँव के चौकीदार को एक चपाती तथा पाँच और चपातियाँ बनाकर अगले गाँवों में पहुँचाने का निर्देश दे जाता था। और यह सिलसिला यूँ ही चलता जाता था। चपातियाँ बाँदने का मतलब और मक़सद न उस समय स्पष्ट था और न आज स्पष्ट है। लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि लोग इसे किसी आने वाली उथल-पुथल का संकेत मान रहे थे।
1.5 लोग अफ़वाहों में विश्वास क्यों कर रहे थे?
इतिहास में अफ़वाहों और भविष्यवाणियों की ताकत को सिर्फ़ इस आधार पर नहीं समझा जा सकता कि वे वाकई में सच थीं या नहीं। हमें देखना यह चाहिए कि जो उन पर यकीन कर रहे थे उनकी मानसिकता के बारे में इनसे क्या पता चलता है; ये अफ़वाहें और भविष्यवाणियाँ उनके भय, उनकी आशंकाओं, उनके विश्वासों और प्रतिबद्धताओं के बारे में क्या बताती हैं। अफ़वाह तभी फैलती है जब उसमें लोगों के ज़्हन में गहरे दबे डर और संदेह की अनुगूँज सुनाई देती है।
अगर 1857 की इन अफ़वाहों को 1820 के दशक से अंग्रेज़ों द्वारा अपनाई जा रही नीतियों के संदर्भ में देखा जाए तो उनका मतलब ज़्यादा आसानी से समझा जा सकता है। जैसा कि आपको मालूम होगा, गवर्नर जनरल लॉर्ड विलियम बेंटिंक के नेतृत्व में उसी समय से ब्रिटिश सरकार पश्चिमी शिक्षा, पश्चिमी विचारों और पश्चिमी संस्थानों के ज़रिए भारतीय समाज को “सुधारने” के लिए खास तरह की नीतियाँ लागू कर रही थी। भारतीय समाज के कुछ तबकों की सहायता से उन्होंने अंग्रेज़ी माध्यम के स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालय स्थापित किए थे जिनमें पश्चिमी विज्ञान और उदार कलाओं 6,%2/०1 4//७) के बारे में पढ़ाया जाता था। अंग्रेजों ने सती प्रथा को ख़त्म करने (1829) और हिंदू विधवा विवाह को वैधता देने के लिए क़ानून बनाए थे।
शासकीय दुर्बलता और दत्तकता को अवैध घोषित कर देने जैसे बहानों के ज़रिए अंग्रेज़ों ने न केवल अवध बल्कि झाँसी और सतारा जैसी बहुत सारी दूसरी रियासतों को भी क़ब्ज़े में ले लिया था। जैसे ही ऐसी कोई रियासत या इलाका उनके क़ब्ज़े में आता था, वहाँ अंग्रेज़ अपने ढंग की शासन व्यवस्था, अपने क़ानून, भूमि विवादों के निपटरे की अपनी पद्धति और भूराजस्व वसूली की अपनी व्यवस्था लागू कर देते थे। उत्तर भारत के लोगों पर इन सब कार्रवाइयों का गहरा असर हुआ।
लोगों को लगता था कि वे अब तक जिन चीज़ों की क्रद्र करते थे, जिनको पवित्र मानते थे - चाहे राजे-रजवाडे हों, सामाजिक-धार्मिक रीति-रिवाज हों या भूस्वामित्व, लगान अदायगी कौ प्रणाली हो - उन सबको ख़त्म करके एक ऐसी व्यवस्था लागू की जा रही थी जो ज़्यादा हृदयहीन, परायी और दमनकारी थो।
इस सोच को ईसाई प्रचारकों की गतिविधियों से भी बल मिल रहा था। ऐसे अनिश्चित हालात में अफ़वाहें रातोंरात फैलने लगती थीं।
सन 1857 के विद्रोह के आधार का विस्तार से पता लगाने के लिए आइए अवध का ज़रा नज़दीकी से अध्ययन कीजिए। अवध 1857 के इस भव्य नाटक का बड़ा केंद्र था।
2. अवध में विद्रोह
2.1 “ये गिलास फल (Cherry) एक दिन हमारे ही मुँह में आकर गिरेगा।”
1851 में गवर्नर जनरल लॉर्ड डलहौज़ी ने अवध की रियासत के बारे में कहा था कि “ये गिलास फल एक दिन हमारे ही मुँह में आकर गिरेगा।” पाँच साल बाद, 1856 में इस रियासत को औपचारिक रूप से ब्रिटिश साप्राज्य का अंग घोषित कर दिया गया।
रियासत पर क़ब्ज़े का यह सिलसिला ज़रा लंबा चला। 1801 से अवध में सहायक साध थोष दी गई थी। इस संधि में शर्त थी कि नवाब अपनी सेना ख़त्म कर दे, रियासत में अंग्रेज़ टुकडियों की तैनाती की इजाज़त दे और दरबार में मौजूद ब्रिटिश रेज़ीडेंट की सलाह पर काम करे। अपनी सैनिक ताक़त से वंचित हो जाने के बाद नवाब अपनी रियासत में क़ानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए दिनोदिन अंग्रेज़ों पर निर्भर होता जा रहा था। अब विद्रोही मुखियाओं और ताल्लुक़दारों पर उसका कोई नियंत्रण नहीं था।
अवध पर क़ब्जे में अंग्रेजों की दिलचस्पी बढ़ती जा रही थी। उन्हें लगता था कि वहाँ की ज़मीन नील और कपास की खेती के लिए मुफ़ीद है और इस इलाक़े को उत्तरी भारत के एक बड़े बाज़ार के रूप में विकसित किया जा सकता है। 1850 के दशक की शुरुआत तक वे देश के ज़्यादातर बड़े हिस्सों पर जीत हासिल कर चुके थे। मराठा भूमि, दोआब, कर्नाटक, पंजाब और बंगाल, सब अंग्रेज़ों की झोली में थे। तक़रीबन एक सदी पहले बंगाल पर जीत के साथ शुरू हुई क्षेत्रीय विस्तार की यह प्रक्रिया 1856 में अवध के अधिग्रहण के साथ मुकम्मल हो जाने वाली थी।
2.2 “देह से जान जा चुकी थी।”
लॉर्ड डलहौज़ी द्वारा किए गए इस अधिग्रहण से तमाम इलाक़ों और रियासतों में गहरा असंतोष था। लेकिन इतना गुस्सा कहीं नहीं था जैसा उत्तर भारत की शान कहे जाने वाले अवध की रियासत में था। यहाँ के नवाब वाजिंद अली शाह को यह कहते हुए गद्दी से हत कर कलकत्ता निष्कासित कर दिया गया था कि वह अच्छी तरह शासन नहीं चला रहे थे। ब्रिटिश सरकार ने यह निराधार निष्कर्ष भी निकाल लिया कि वाजिद अली शाह लोकप्रिय नहीं थे। मगर सच यह है कि लोग उन्हें दिल से चाहते थे। जब वे अपने प्यारे लखनऊ से विदा ले रहे थे तो बहुत सारे लोग बिलाप करते हुए कानपुर तक उनके पीछे गए थे।
नवाब के निष्कासन से पैदा हुए दुख और अपमान के इस व्यापक अहसास को उस समय के बहुत सररे प्रेक्षकों ने दर्ज किया है। एक ने लिखा था : “देह से जान जा चुकी थी। शहर की काया बेजान थी...। कोई सड़क, कोई बाज़ार और घर ऐसा न था जहाँ से जान-ए-आलम से बिछड़ने पर विलाप का शोर न गूँज रहा हो।” एक लोक गीत में इस बात पर शोक व्यक्त किया गया कि “अग्रेज बहादुर आइन, मुल्क लई लीन्हों।
इस भावनात्मक उथल-पुथल को भौतिक क्षति के अहसास से और बल मिला। नवाब को हटाए जाने से दरबार और उसकी संस्कृति भी ख़त्म हो गई। संगीतकारों, नर्तकों, कवियों, कारीगरों, बावर्चियों, नौकरों, सरकारी कर्मचारियों और बहुत सारे लोगों की रोज़ी-रोटी जाती रही।
2.3 फ़िरंगी राज का आना और एक दुनिया का ख़ात्मा
अवध में विभिन्न प्रकार कौ पीड़ाओं ने राजकुमारों, ताल्लुक़दारों, किसानों और सिपाहियों को एक-दूसरे से जोड़ दिया था। वे सभी फिरंगी राज के आगमन को विभिन्न अर्थों में एक दुनिया की समाप्ति के रूप में देखने लगे थे। वे चीज़ें बिखर रही थीं जो लोगों के लिए बहुमूल्य थीं, जिनको वे प्यार करते थे। 1857 के विद्रोह में तमाम भावनाएँ और मुद्दे, परंपराएँ और निष्ठाएँ अभिव्यक्त हो रही थीं। बाकी जगहों के मुकाबले अवध में यह विद्रोह एक विदेशी शासन के ख़िलाफ़ लोक-प्रतिरोध की अभिव्यक्ति बन गया था।
अवध के अधिग्रहण से सिर्फ़ नवाब की ही गद्दी नहीं छिनी थी। इसने इलाके के ताल्लुक़दारों को भी लाचार कर दिया था। अवध के समूचे देहात में ताल्लुक़दारों की जागीरें और क़िले बिखरे हुए थे। ये लोग पीढ़ियों से अपने इलाक़े में ज़मीन और सत्ता पर नियंत्रण रखते आए थे। अंग्रेजों के आने से पहले ताल्लुक़दारों के पास हथियारबंद सिपाही होते थे। उनके अपने क़िले थे। अगर वे नवाब की संप्रभुता को स्वीकार कर लें और अपने ताल्लुक़दार का राजस्व चुकाते रहें तो उनके पास काफ़ी स्वायत्तता भी होती थी। कुछ बड़े ताल्लुकदारों के पास तो 12,000 तक पैदल सिपाही होते थे। छोटे-मोटे ताल्लुक़दारों के पास भी 200 सिपाहियों की टुकड़ी तो होती ही थी। अंग्रेज़ इन ताल्लुक़दारों की सत्ता को बरदाश्त करने के लिए कतई तैयार नहीं थे। अधिग्रहण के फौरन बाद ताल्लुक़दारों की सेनाएँ भंग कर दी गईं। उनके दुर्ग ध्वस्त कर दिए गए।
ब्रिटिश भूराजस्व नीति ने ताल्लुक़दारों की हैसियत व सत्ता को और चोट पहुँचाई। अधिग्रहण के बाद 1856 में एकमुश्त बंदोबस्त के नाम से ब्रिटिश भूराजस्व व्यवस्था लागू कर दी गईं। यह बंदोबस्त इस मान्यता पर आधारित था कि ताल्लुक़दार बिचौलिए थे जिनके पास ज़मीन का मालिकाना नहीं था। उन्होंने बल और धोखाधड़ी के ज़रिए अपना प्रभुत्व स्थापित किया हुआ था। एकमुश्त बंदोबस्त में ताल्लुक़दारों को उनकी ज़मीनों से बेदखल किया जाने लगा। आंकड़ों से पता चलता है कि अंग्रेज़ों के आने से पहले ताल्लुक़दारों के पास अवध के 67 प्रतिशत गाँव थे। एकमुश्त बंदोबस्त के लागू होने के बाद यह संख्या घटकर 38 प्रतिशत रह गई। दक्षिण अवध के ताल्लुक़दारों को सबसे बुरी मार पड़ी। कुछ के तो आधे से ज़्यादा गाँव हाथ से जाते रहे।
ब्रिटिश भूराजस्व अधिकारियों का मानना था कि ताल्लुक़दारों को हटाकर वे ज़मीन असली मालिकों के हाथ में सौंप देंगे जिससे किसानों के शोषण में कमी आएगी और राजस्व वसूली में इजाफ़ा होगा। वास्तव में ऐसा नहीं हुआ। भूराजस्व वसूली में तो इज़ाफ़ा हुआ लेकिन किसानों के बोझ में कमी नहीं आई। अधिकारियों को जल्दी ही समझ में आने लगा कि अवध के बहुत सारे इलाक़े का मूल्य निर्धारण बहुत बढ़ा-चढ़ा कर किया गया था। कुछ स्थानों पर तो राजस्व माँग में 30 से 70 प्रतिशत तक इज़ाफ़ा हो गया था। यानी न तो ताल्लुक़दारों के पास और न ही काश्तकारों के पास इस अधिग्रहण पर खुशी जताने का कोई कारण था।
ताल्लुक़दारों की सत्ता छिनने का नतीजा यह हुआ कि एक पूरी सामाजिक व्यवस्था भंग हो गई। निष्ठा और संरक्षण के जिन बंधनों से किसान ताल्लुक़दारों के साथ बँधे हुए थे वे अस्त-व्यस्त हो गए। अंग्रेज़ों से पहले ताल्लुक़॒दार ही जनता का उत्पीड़न करते थे लेकिन जनता की नज़र में बहुत सारे ताल्लुक़दार दयालु अभिभावक की छवि भी रखते थे। वे किसानों से तरह-तरह के मद में पैसा तो वसूलते थे लेकिन बुरे वक़्त में किसानों की मदद भी करते थे। अब अंग्रेज़ों के राज में किसान मनमाने राजस्व आकलन और गैर लचीली राजस्व व्यवस्था के तहत बुरी तरह पिसने लगे थे। अब इस बात की कोई गारंटी नहीं थी कि कठिन वक़्त में या फ़लल खराब हो जाने पर सरकार राजस्व माँग में कोई कमी करेगी या वसूली को कुछ समय के लिए टाल दिया जाएगा। ना ही किसानों को इस बात कौ उम्मीद थी कि तीज-त्यौहारों पर कोई क़र्जा और मदद मिल पाएगी जो पहले ताल्लुक़दारों से मिल जाती थी।
अवध जैसे जिन इलाकों में 1857 के दौरान प्रतिरोध बेहद सघन और लंबा चला था वहाँ लड़ाई की बागडोर असल में ताल्लुक़दारों और उनके किसानों के ही हाथों में थी। बहुत सारे ताल्लुक़दार अवध के नवाब के प्रति निष्ठा रखते थे इसलिए वे अंग्रेज़ों से लोहा लेने के लिए लखनऊ जाकर बेगम हज़रत महल (नवाब की पली) के खेमे में शामिल हो गए। उनमें से कुछ तो बेगम की पराजय के बाद भी उनके साथ डटे रहे।
किसानों का असंतोष अब फ़ौजी बैरकों में भी पहुँचने लगा था क्योंकि बहुत सारे किसान अवध के गाँवों से ही भर्ती किए गए थे। दशकों से सिपाही कम वेतन और वक़्त पर छुट्री न मिलने के कारण असंतुष्ट थे। 1850 के दशक तक आते-आते उनके असंतोष के कई नए कारण पैदा हो चुके थे।
1857 के जनविद्रोह से पहले के सालों में सिपाहियों के अपने गोरे अफ़सरों के साथ रिश्ते काफ़ी बदल चुके थे। 1820 के दशक में अंग्रेज अफ़सर सिपाहियों के साथ दोस्ताना ताल्लुक्रात रखने पर खासा ज़ोर देते थे। वे उनकी मौजमस्ती में शामिल होते थे, उनके साथ मल्ल-युद्ध करते थे, उनके साथ तलवारबाज़ी करते थे और उनके साथ शिकार पर जाते थे। उनमें से बहुत सारे तो बखूबी हिंदुस्तानी बोलना जानते थे और यहाँ के रीति-रिवाजों व संस्कृति से वाकिफ़ थे। उनमें अफ़सर की कड़क और अभिवावक का स्नेह, दोनों निहित थे।
1840 के दशक में स्थिति बदलने लगी। अफ़ससों में श्रेष्ठठा का भाव पैदा होने लगा और वे सिपाहियों को कमतर नस्ल का मानने लगे। वे उनकी भावनाओं की ज़रा-सी भी फ़िक्र नहीं करते थे। गाली-गलौज और शारीरिक हिंसा सामान्य बात बन गई। सिपाहियों व अफ़सरों के बीच फ़ासला बढ़ता गया। भरोसे की जगह संदेह ने ले ली। चिकनाई युक्त कारतूसों की घटना इसका एक बढ़िया उदाहरण थी।
यह भी याद रखना महत्त्वपूर्ण है कि उत्तर भारत में सिपाहियों और ग्रामीण जगत के बीच गहरे संबंध थे। बंगाल आर्मी के सिपाहियों में से बहुत सारे अवध और पूर्वी उत्तर प्रदेश के गाँवों से भर्ती होकर आए थे। उनमें से बहुत सारे ब्राह्मण या “ऊँची जाति” के थे। बल्कि अवध को तो “बंगाल आर्मी कौ पौधशाला” कहा जाता था। सिपाहियों के परिवार अपने इर्द-रगिंद जिन बदलावों को देख रहे थे और उन्हें जो ख़तरे दिखाई दे रहे थे वे जल्दी ही सिपाही लाइनों में भी दिखाई देने लगे। दूसरी ओर, कारतूसों के बारे में सिपाहियों का भय, छुट्टियों के बारे में उनकी शिकायतें, बढ़ते दुर्ूग्ययहार और नस्ली गाली गलौज के प्रति बढ़ता असंतोष गाँवों में भी प्रतिबिंबित होने लगा था।
सिपाहियों और ग्रामीण जगत के बीच मौजूद इन संबंधों से जनविद्रोह के रूप-रंग पर गहरा असर पड़ा। जब सिपाही अपने अफ़सरों की अवज्ञा करते थे और हथियार उठाते थे तो फ़ौरन ही गाँवों में उनके भाई-बिरादर भी उनके साथ आ जुटते थे। हर कहीं किसान शहाों में पहुँचकर सिपाहियों और शहर के आम लोगों के साथ जुड़ कर विद्रोह के सामूहिक कृत्य में शामिल हो रहे थे।
3. विद्रोही क्या चाहते थे?
बतौर विजेता कठिनाइयों, चुनौतियों और बहादुरी के बारे में अंग्रेजों की अपनी राय थी। वे विद्रोहियों को अहसानफ़रामोश और बर्बर लोगों का झुंड मानते थे। विद्रोहियों को कुचलने का एक मतलब यह भी था कि उनकी आवाज़ को दबा दिया जाए। कुछ विद्रोहियों को ही इस घटनाक्रम के बारे में अपनी बात दर्ज करने का मौका मिला। यूँ भी विद्रोहियों में ज़्यादातर सिपाही और आम लोग थे जो पढ़े लिखे नहीं थे। इस प्रकार, अपने विचारों का प्रसार करने और लोगों को विद्रोह में शामिल करने के लिए जारी की गई कुछ घोषणाओं व इश्तहारों के सिवाय हमारे पास ऐसी ज़्यादा चीजें नहीं हैं जिनकी बिना पर हम विद्रोहियों के नज़रिए को समझ सकें। इसीलिए,
1857 में जो कुछ हुआ, उसे रचने के लिए इतिहासकारों की कोशिशों को बहुत हद तक, और मजबूरन, अंग्रेज़ों के दस्तावेजों पर निर्भर रहना पड़ता है। विडबना यह है कि इन स्रोतों से अंग्रेज अफ़सरों की सोच का तो पता चलता है लेकिन इस बारे में ज़्यादा सुराग नहीं मिल पाता कि विद्रोही क्या चाहते थे।
3.1 एकता की कल्पना
1857 में विद्रोहियों द्वारा जारी की गई घोषणाओं में, जाति और धर्म का भेद किए बिना, समाज के सभी तबकों का आहवान किया जाता था। बहुत सारी घोषणाएँ मुस्लिम राजकुमारों या नवाबों की तरफ़ से या उनके नाम पर जारी की गई थीं। परंतु उनमें भी हिंदुओं की भावनाओं का ख़याल रखा जाता था। इस विद्रोह को एक ऐसे युद्ध के रूप में पेश किया जा रहा था जिसमें हिंदुओं और मुसलमानों, दोनों का नफ़ा-नुकसान बराबर था। इश्तहारों में अंग्रेजों से पहले के हिंदू मुस्लिम अतीत की ओर संकेत किया जाता था और मुगल साम्राज्य के तहत विभिन्न समुदायों के सहअस्तित्व का गौरवगान किया जाता था। बहादुर शाह के नाम से जारी की गई घोषणा में मुहम्मर और महावीर, दोनों की दुहाई देते हुए जनता से इस लड़ाई में शामिल होने का आहवान किया गया। दिलचस्प बात यह है कि आंदोलन में हिंदू और मुसलमानों के बीच खाई पैदा करने की अंग्रेजों द्वारा की गई कोशिशों के बावजूद ऐसा कोई फ़र्क् नहीं दिखाई दिया। अंग्रेज़ शासन ने दिसंबर 1857 में पश्चिमी उत्तर प्रदेश स्थित बरेली के हिंदुओं को मुसलमानों के ख़िलाफ़ भड़काने के लिए 50/000 रुपये खर्च किए। उनकी यह कोशिश नाकामयाब रही।
3.2 उत्पीड़न के प्रतीकों के ख़िलाफ़
इन घोषणाओं में ब्रिटिश राज (जिसे विद्रोही फ़िरंगी राज कहते थे) से संबंधित हर चीज़ को पूरी तरह खारिज किया जा रहा था। देशी रियासतों पर क़ब्ज़े और समझौतों का उल्लंघन करने के लिए अंग्रेजों की निंदा की जाती थी। विद्रोही नेताओं का कहना था कि अंग्रेजों पर भरोसा नहीं किया जा सकता।
लोगों को इस बात पर गुस्सा था कि ब्रिटिश भूराजस्व व्यवस्था ने बड़े-छोटे भुस्वामियों को ज़मीन से बेदख़ल कर दिया था और विदेशी व्यापार ने दस्तकारों और बुनकरों को तबाह कर डाला था। ब्रिटिश शासन के हर पहलू पर निशाना साधा जाता था। फ़िरंगियों पर स्थापित और सुंदर जीवन-शैली को नष्ट करने का आरोप लगाया जाता था। विद्रोही अपनी उस दुनिया को दोबारा बहाल करना चाहते थे।
विद्रोही उद्घोषणाएँ इस व्यापक डर को व्यक्त करती थीं कि अंग्रेज, हिंदुओं और मुसलमानों की जाति और धर्म को नष्ट करने पर तुले हैं और वे लोगों को ईसाई बनाना चाहते हैं। इसी डर की वजह से लोग चल रही अफ़वाहों पर भरोसा करने लगे। लोगों को प्रेरित किया गया की वे इकट्टे मिलकर अपने रोज़गार, धर्म, इज्जत और अस्मिता के लिए लडें। यह “व्यापक सार्वजनिक भलाई' की लड़ाई होगी।
जैसा कि हम देख चुके हैं, बहुत सारे स्थानों पर अंग्रेजों के ख़िलाफ़ विद्रोह उन तमाम ताकतों के विरुद्ध हमले की शक्ल ले लेता था जिनको अंग्रेजों के हिमायती या जनता का उत्पीड़क समझा जाता था। कई दफ़ा विद्रोही शहर के संभ्रांत को जान-बूझकर बेइज़्ज़त करते थे। गाँवों में उन्होंने सूदखोरों के बहीखाते जला दिए और उनके घर तोड़फोड़ डाले। इससे पता चलता है कि विद्रोही त्रमाम उत्पीड़कों के ख़िलाफ़ थे और परंपरागत सोपानों (ऊँच-नीच) को ख़त्म करना चाहते थे। इसमें हमें एक वैकल्पिक दृष्टि, संभवत: एक ज़्यादा समतापरक समाज की कल्पना दिखाई देती है। पर, यह सोच उनकी घोषणाओं में नहीं दिखाई देती। उनमें तो फ़िरंगी राज के ख़िलाफ़ तमाम सामाजिक समूहों को एकजुट करने का ही आह्वान किया जाता था।
3.3 वैकल्पिक सत्ता की तलाश
ब्रिटिश शासन ध्वस्त हो जाने के बाद दिल्ली, लखनऊ और कानपुर जैसे स्थानों पर विद्रोहियों ने एक प्रकार की सत्ता और शासन संरचना स्थापित करने का प्रयास किया। बेशक यह प्रयोग ज़्यादा समय तक नहीं चला लेकिन इन कोशिशों से पता चलता है कि विद्रोही नेता अठारहवीं सदी की पूर्व-ब्रिटिश दुनिया को पुनर्स्थापित करना चाहते थे। इन नेताओं ने पुरानी दरबारी संस्कृति का सहारा लिया। विभिन्न पदों पर नियुक्तियाँ की गईं। भूराजस्व वसूली और सैनिकों के वेतन के भुगतान का इंतज़ाम किया गया। लूटपाट बंद करने के लिए हुक््मनामे जारी किए गए। इसके साथ-साथ अंग्रेजों के ख़िलाफ़ युद्ध जारी रखने की योजनाएँ भी बनाई गई। सेना की कमान श्रृंखला तय की गई। इन सारे प्रयासों में विद्रोही अठारहवीं सदी के मुगल जगत से ही प्रेरणा ले रहे थे - यह जगत उन तमाम चीज़ों का प्रतीक बन गया जो उनसे छिन चुकी थीं।
विद्रोहियों द्वारा स्थापित शासन संरचना का प्राथमिक उद्देश्य युद्ध की ज़रूरतों को पूरा करना था। लेकिन ज़्यादातर मामलों में ये संरचनाएँ अंग्रेजों की मार बरदाश्त नहीं कर पाईं। अवध में अंग्रेजों के ख़िलाफ़ प्रतिरोध सबसे लंबा चला। वहाँ लखनऊ दरबार द्वारा जवाबी हमले की योजनाएँ बनाई जा रही थीं और 1857 के आखिर तथा 1858 के शुरुआती महीनों तक हुकुम कौ श्रेणियाँ वजूद में थीं।
4. दमन
1857 के बारे में हमारे पास जो भी विवरण मौजूद हैं उनसे यह साफ़ हो जाता है कि इस विद्रोह को कुचलना अंग्रेजों के लिए बहुत आसान साबित नहीं हुआ।
उत्तर भारत को दोबारा जीतने के लिए टुकडियों को रवाना करने से पहले अंग्रेजों ने उपद्रव शांत करने के लिए फ़ौजियों की आसानी के लिए कई क़ानून पारित कर दिए थे। मई और जून 1857 में पारित किए गए कई क़ानूनों के ज़रिए न केवल समूचे उत्तर भारत में मार्शल लॉ लागू कर दिया गया बल्कि फ़ौजी अफ़सरों और यहाँ तक कि आम अंग्रेज़ों को भी ऐसे हिंदुस्तानियों पर मुक़दमा चलाने और उनको सज्ञा देने का अधिकार दे दिया गया जिन पर विद्रोह में शामिल होने का शक था। कहने का मतलब यह है कि क़ानून और मुकदमें की सामान्य प्रक्रिया रद कर दी गई थी और यह स्पष्ट कर दिया गया था कि विद्रोह की केवल एक ही सज़ा हो सकती है - सज्ञा-ए मौत।
इन नए विशेष क़ानूनों और ब्रिटेन से मैँगाई गई नयी टुकड़ियों से लैस अंग्रेज सरकार ने विद्रोह को कुचलने का काम शुरू कर दिया। विद्रोहियों की तरह वे भी दिल्ली के सांकेतिक महत्त्व को बखूबी समझते थे। लिहाजा, उन्होंने दोतरफ़ा हमला बोल दिया। एक तरफ़ कलककत्ते से, दूसरी तरफ़ पंजाब से दिल्ली की तरफ़ कूच हुआ हालांकि पंजाब कमोबेश शांत था। दिल्ली को क़ब्ज़े में लेने को अंग्रेजों की कोशिश जून 1857 में बड़े पैमाने पर शुरू हुई लेकिन यह मुहिम सितंबर के आखिर में जाकर पूरी हो पाई। दोनों तरफ़ से जमकर हमले किए गए और दोनों पक्षों को भारी नुकसान उठाना पड़ा। इसकी एक वजह ये थी कि पूरे उत्तर भारत के विद्रोही राजधानी को बचाने के लिए दिल्ली में आ जमे थे।
गंगा के मैदान में भी अंग्रेजों की बढ़त का सिलसिला धीमा रहा। अंग्रेज़ टुकडियों को हर इलाक़ा गाँव-दर-गाँव जीतना था। आम देहाती जनता और आस-पास के लोग उनके ख़िलाफ़ थे। जैसे ही उन्होंने अपनी उपद्रव-विरोधी कार्रवाई शुरू की, अंग्रेजों को अहसास हो गया कि उनका सामना सिर्फ़ सैनिक विद्रोह से नहीं है, वे ऐसे आंदोलन से जूझ रहे हैं जिसके पीछे बेहिसाब जन-समर्थन मौजूद है। उदाहरण के लिए, अवध में फॉरसिथ नाम के एक अंग्रेज अफ़सर का अनुमान था कि कम से कम तीन-चौथाई वयस्क पुरुष आबादी विद्रोह में शामिल थी। इस इलाक़े को लंबी लड़ाई के बाद मार्च 1858 में जाकर ही अंग्रेज़ दोबारा अपने नियंत्रण में ले पाए।
अंग्रेज़ों ने सैनिक ताकत का भयानक पैमाने पर इस्तेमाल किया। लेकिन यह उनका एकमात्र हथियार नहीं था। वर्तमान उत्तर प्रदेश के एक विशाल भू-भाग में बड़े भूस्वामियों और काश्तकारों ने मिलकर अंग्रेज़ों का विरोध किया था। अंग्रेजों ने इस एकता को तोड़ने के लिए
बड़े ज़मींदारों को आश्वासन दिया कि उन्हें उनकी जागीरें लौंग दी जाएँगी। विद्रोह का रास्ता अपनाने वाले ज़मींदारों को ज़मीन से बेदख़ल कर दिया गया और जो वफ़ादार थे उन्हें ईनाम दिए गए। बहुत सारे ज़मींदार या तो अंग्रेजों से लड़ते-लड़ते मारे गए या भागकर नेपाल चले गए जहाँ उन्होंने बीमारी व भूख से दम तोड़ दिया।
5. विद्रोह की छवियाँ
हम इस विद्रोह, विद्रोहियों की गतिविधियों और उन पर किए गए दमन के तरीकों के बारे में किस तरह जान सकते हैं?
जैसा कि हम पीछे देख चुके हैं, विद्रोहियों की सोच के बारे में हमारे पास बहुत कम दस्तावेज्ञ मौजूद हैं। हमारे पास विद्रोहियों की कुछ घोषणाएँ, अधिसूचनाएँ तथा नेताओं के पत्र हैं। लेकिन अब तक ज़्यादातर इतिहासकार अंग्रेज्ञों द्वारा लिखे गए दस्तावेज्ञों की रोशनी में ही विद्रोहियों की कार्रवाइयों पर चर्चा करते आ रहे हैं।
यह तो है ही कि इस बारे में सरकारी ब्योरों की कमी नहीं है औपनिवेशिक प्रशासक और फ़ौजी अपनी चिट्टियों, डायरियों, आत्मकथाओं और सरकारी इतिहासों में अपने-अपने ब्योरे दर्ज कर गए हैं। असंख्य मेमों और नोट्स, परिस्थितियों के आकलन एवं विभिन्न रिपोर्टों के ज़रिए भी हम सरकारी सोच और अंग्रेजों के बदलते रवैये को समझ सकते हैं। आज इनमें से बहुत सारे दस्तावेजों को सैनिक विद्रोह रिकॉर्ड्स पर केंद्रित खंडों में संकलित किया जा चुका है। ये दस्तावेज़ हमें अफ़सरों के भीतर मौजूद भय और बैचेनी तथा विद्रोहियों के बारे में उनकी सोच का पता देते हैं। ब्रिटिश अख़बारों और पत्रिकाओं में इस विद्रोह की जो कहानियाँ छपी उनमें सैनिक विद्रोहियों द्वारा की गई हिंसा को बड़े लोमहर्षक शब्दों में छापा जाता था। ये कहानियाँ जनता की भावनाओं को भड़काती थीं तथा प्रतिशोध और सबक सिखाने की माँगों को हवा देती थीं।
अंग्रेजों और भारतीयों द्वारा तैयार की गई तसवीरें सैनिक विद्रोह का एक महत्त्वपूर्ण रिकॉर्ड रही हैं। इस विद्रोह के बारे में कई चित्र, पेंसिल से बने रेखांकन, उत्कीर्ण चित्र, पोस्टर, कार्टून, और बाज़ार-प्रिंट उपलब्ध हैं। आइए, उनमें से कुछ को देखें और जाने कि वे हमें क्या बताते हैं।
5.1 रक्षकों का अभिनंदन
अंग्रेजों द्वारा बनाई तसवीरों को देखने पर तरह-तरह की भावनाएँ और प्रतिक्रियाएँ पैदा होती हैं। उनमें से कुछ में अंग्रेजों को बचाने और विद्रोहियों को कुचलने वाले अंग्रेज़ नायकों का गुणगान किया गया है। 1859 में टॉमस जोन्स बार्कर द्वारा बनाया गया चित्र 'रिलीफ़ ऑफ़ लखनऊ' (लखनऊ की राहत) इसी श्रेणी का एक उदाहरण है। जब विद्रोही टुकड़ियों ने लखनऊ पर घेरा डाल दिया तो लखनऊ के कमिश्नर हेनरी लॉरेंस ने ईसाइयों को इकट्ठा किया और बेहद सुरक्षित रेज़ीडेंसी में पनाह ले ली। बाद में लॉरेंस तो मारा गया किंतु कर्नल इंगलिस के नेतृत्व में रेज़ीडेंसी सुरक्षित रहा। 25 सितंबर को जेम्स ऑट्रम और हेनरी हेवलॉक वहाँ पहुँचे, उन्होंने विद्रोहियों को तितर-बितर कर दिया और ब्रिटिश टुकडियों को नयी मजबूती दी। 20 दिन बाद भारत में ब्रिटिश टुकडियों का नया कमांडर कॉलिन कैम्पबेल भारी तादाद में सेना लेकर वहाँ पहुँचा और उसने ब्रिटिश रक्षकसेना को घेरे से छुड़ाया। अंग्रेजों के बयानों में लखनऊ की घेरेबंदी उत्तरजीविता, बहादुराना प्रतिरोध और ब्रिटिश सत्ता की निर्विवाद विजय की कहानी बन गई।
बार्कर की पेंटिंग कैम्पबेल के आगमन के क्षण का जश्न मनाती है। कैन्वस के मध्य में कैम्पबेल, ऑट्रम और हेवलॉक, इन तीन ब्रिटिश नायकों की छवियाँ हैं। उनके इर्द गिर्द खड़े लोगों के हाथों को देखने पर दर्शक की निगाह चित्र के मध्य भाग की तरफ़ चली जाती है। ये नायक एक ऐसे स्थान पर खडे हैं जहाँ काफ़ी उजाला है, जिनके अगले हिस्से में परछाईं है और पिछली तरफ़ टूय-फूय रेज़ीडेंसी दिखाई देता है। चित्र के अगले भाग में पड़े शव और घायल इस घेरेबंदी के दौरान हुई मारकाट की गवाही देते हैं जबकि मध्य भाग में घोड़ों की विजयी तसदीरें इस तथ्य पर जोर देती हैं कि अब ब्रिटिश सत्ता और नियंत्रण बहाल हो चुका है। इस तरह के चित्रों से अंग्रेज जनता में अपनी सरकार के प्रति भरोसा पैदा होता था। इन चित्रों से उन्हें यह लगता था कि संकट की घड़ी जा चुकी है और विद्रोह ख़त्म हो चुका है : अंग्रेज़ जीत चुके हैं।
5.2 अंग्रेज़ औरतें तथा ब्रिटेन की प्रतिष्ठा
अख़बारों में छपी ख़बरों का जनता की कल्पना और मनोदशा पर भारी असर होता है। वे घटनाओं के बारे में लोगों की भावनाओं और सोच को तय करती हैं। भारत में औरतों और बच्चों के साथ हुई हिंसा की कहानियों को पढ़कर ब्रिटेन की जनता प्रतिशोध और सबक सिखाने की माँग करने लगी। अंग्रेज़ अपनी सरकार से मासूम औरतों की इज्जत बचाने और निस्सहाय बच्चों को सुरक्षा प्रदान करने की माँग करने लगे। कलाकारों ने सदमे और पीड़ा की अपनी चित्रात्मक अभिव्यक्तियों के ज़रिये इन भावनाओं को आकार प्रदान किया।
जोज़ेफ़ नोएल पेटन ने सैनिक विद्रोह के दो साल बाद “इन मेमोरियम” ('स्मृति में', चित्र 11.11) बनाई। इस चित्र में अंग्रेज औरतें और बच्चे एक घेरे में एक-दूसरे से लिपटे दिखाई देते हैं। वे लाचार और मासूम दिख रहे हैं, मानो एक भयानक घड़ी की आंशका में हैं।
वे अपनी बेइज़्ज़ती, हिंसा और मृत्यु का इंतज़ार कर रहे हैं। “इन मेमोरियम” में भीषण हिंसा नहीं दिखती : ठसकी तरफ़ सिर्फ़ एक इशारा है। यह दर्शक की कल्पना को झिंझोड़ती है और उसमें गुस्से और बेचेनी का भाव पैदा करती है। इसमें विद्रोहियों को हिंसक और बर्बर बताया गया है हलांकि वे चित्र में अदृश्य हैं। पृष्ठभूमि में आप ब्रिटिश टुकडियों को रक्षक के तौर पर आगे बढ़ते देख सकते हैं।
कुछ अन्य रेखाचित्रों व पेंटिंग्स में हमें औरतें अलग तेवर में दिखाई देती हैं। इनमें वे विद्रोहियों के हमले से अपना बचाव करती हुईं नज़र आती हैं। उन्हें बीरता की मूर्ति के रूप में दर्शाया गया है। चित्र 11.12 में मिस व्हीलर मध्य में दृढ़तापूर्वक खड़ी है। वह अकेले ही विद्रोहियों को मौत की नींद सुलाते हुए अपनी इज़्ज़त की रक्षा करती है। तमाम ब्रिटिश चित्रों की तरह यहाँ भी विद्रोहियों को दानवों के रूप में दर्शाया गया है। यहाँ चार कद्दवर आदमी हाथों में तलवारें और बंदूक लिये एक अकेली औरत के ऊपर हमला कर रहे हैं। यहाँ इज़्ज़त और ज़िंदगी की रक्षा के लिए औरत के संघर्ष की आड़ में दरअसल एक गहरे धार्मिक विचार को प्रस्तुत किया गया है - यह ईसाइयत की रक्षा का संघर्ष है। चित्र में धरती पर पड़ी किताब बाइबल है।
5.3 प्रतिशोध और सबक
जैसे जैसे ब्रिटेन में गुस्से और सकते का माहौल बनता गया, बदले की माँग बुलंद होती गई। विद्रोह के बारे में प्रकाशित चित्रों एवं ख़बरों ने ऐसा माहौल रच दिया जिसमें हिंसक दमन और प्रतिशोध को लाज़िमी और वाजिब माना जाने लगा। माहौल ऐसा था मानो न्याय के मूल्यों की रक्षा के लिए ब्रिटिश प्रतिष्ठा और सत्ता को दी जा रही चुनौती को निर्ममता से कुचलना ज़रूरी था। विद्रोह से आतंकित अंग्रेजों को लगता था कि उन्हें अपनी अपराजयता का प्रदर्शन करना ही चाहिए। ऐसी ही एक तसवीर (चित्र 11.13) में हमें न््याय की एक रूपकात्मक स्त्री छवि दिखाई देती है जिसके एक हाथ में तलवार और दूसरे हाथ में ढाल है। उसकी मुद्रा आक्रामक है : उसके चेहरे पर भयानक गुस्सा और बदला लेने की तड़प दिखाई देती है। वह सिपाहियों को अपने पैरों तले कुचल रही है जबकि भारतीय औरतों और बच्चों की भीड़ भय से काँप रही है।
इनके अलावा भी ब्रिटिश प्रेस में असंख्य दूसरी तसवीरें और कार्टून थे जो निर्मम दमन और हिंसक प्रतिशोध की ज़रूरत पर ज़ोर दे रहे थे।
5.4 दहशत का प्रदर्शन
प्रतिशोध और सबक़ सिखाने की चाह इस बात में भी प्रतिबिम्बित होती है कि विद्रोहियों को कितने निर्मम ढंग से मौत के घाट उतारा गया। उन्हें तोपों के मुहाने पर बाँधकर उड़ा दिया गया या फ़ाँसी पर लटका दिया। इन सज्ञाओं की तसवीरें आम पत्र-पत्रिकाओं के ज़रिये दूर-दूर तक पहुँच रही थीं।
5.5 दया के लिए कोई जगह नहाँ
जब प्रतिशोध के लिए ही शोर मच रहा हो, ऐसे समय पर नर्म सुझाव मज़ाक का पात्र बन कर ही रह जाते हैं। जब गवर्नर-जनरल कैनिंग ने ऐलान किया कि नर्मी और दया भाव से सिपाहियों की वफ़ादारी हासिल करने में मदद मिलेगी तो ब्रिटिश प्रेस में उसका मज़ाक उड़ाया गया।
हास्यपरक व्यंग्य की ब्रिटिश पत्रिका पन्च के पन्नों में प्रकाशित एक कार्टून में कैनिंग को एक भव्य नेक बुजुर्ग के रूप में दर्शाया गया। उसका हाथ एक सिपाही के सिर पर है जो अभी भी नंगी तलवार और कटार लिए हुए है और दोनों से खून टपक रहा है (चित्र 11.17)। यह एक ऐसी छवि थी जो उस समय की बहुत सारी ब्रिटिश तसवीरों में बार-बार सामने आती थी।
5.6 राष्ट्रवादी दृश्य कल्पना
बीसवीं सदी में राष्ट्रवादी आंदोलन को 1857 के घटनाक्रम से प्रेरणा मिल रही थी। इस विद्रोह के इर्द-गिर्द राष्ट्रवादी कल्पना का एक विस्तृत दृश्य जगत बुन दिया गया था। इसको प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के रूप में याद किया जाता था जिसमें देश के हर तबके के लोगों ने साम्राज्यवादी शासन के छख्िलाफ़ मिलकर लड़ाई लड़ी थी।
इतिहास लेखन की तरह कला और साहित्य ने भी 1857 की स्मृति को जीवित रखने में योगदान दिया। विद्रोह के नेताओं को ऐसे नायकों के रूप में पेश किया जाता था जो देश को रणस्थल की तरफ़ ले जा रहे हैं। उन्हें लोगों को दमनकारी साप्राज्यवादी शासन के ख़िलाफ़ उत्तेजित करते चित्रित किया जाता था। एक हाथ में घोड़े की रास और दूसरे हाथ में तलवार थामे अपनी मातृभूमि की मुक्ति के लिए लड़ाई लड़ने वाली रानी के शौर्य का गौरवगान करते हुए कविताएँ लिखी गईं। रानी झाँसी को एक ऐसी मर्दाना शख््सियत के रूप में चित्रित किया जाता था जो दुश्मनों का पीछा करते हुए और ब्रिटिश सिपाहियों को मौत की नींद सुलाते हुए आगे बढ़ रही है। देश के विभिन्न भागों में बच्चे सुभद्रा कुमारी चौहान की इन पंक्तियों को पढ़ते हुए बड़े हो रहे थे : “खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रात थी।” लोक छवियों में रानी लक्ष्मीबाई को प्राय: फ़ौजी पोशाक में घोड़े पर सवार और एक हाथ में तलवार लिए दिखाया जाता है अन्याय और विदेशी शासन के दृढ़ प्रतिरोध का प्रतीक।
इन तसवीरों से पता चलता है कि उन्हें बनाने वाले चित्रकार इन घटनाओं को कैसे देखते थे, उनके अहसास क्या थे और वे क्या कहना चाहते थे। इन चित्रों और कार्टूनों के माध्यम से हम उस जनता के बारे में जान सकते हैं जो उन चित्रों की तारीफ़ या आलोचना करती थी, उनकी नक़लों को ख़रीद कर घरों में सजाती थी।
ये तस्वीरें केवल अपने समय की भावनाओं और अहसासों को ही प्रतिबंबित नहीं कर रही थीं। उन्होंने संवेदरनाओं को भी शक्ल दी। ब्रिटेन में छप रहे चित्रों से उत्तेजित वहाँ की जनता विद्रोहियों को भयानक बर्बरता के साथ कुचल डालने के लिए आवाज़ उठा रही थी। दूसरी तरफ़ भारतीय राष्ट्रवादी चित्र हमारी राष्ट्रवादी कल्पना को निर्धारित करने में मदद कर रहे थे।
नीतियाँ और लोग
ईस्ट इंडिया कंपनी की नीतियों से राजाओं, रानियों, किसानों, ज़मींदारों, आदिवासियों, सिपाहियों, सब पर तरह-तरह से असर पड़े। जो नीतियाँ और कार्रवाइयाँ जनता के हित में नहीं होतीं या जो उनकी भावनाओं को ठेस पहुँचाती हैं उनका लोग विरोध करते हैं।
नवाबों की छिनती सत्ता
अठारहवीं सदी के मध्य से ही राजाओं और नवाबों की ताकत छिनने लगी थी। उनकी सत्ता और सम्मान, दोनों खत्म होते जा रहे थे। बहुत सारे दरबारों में रेज़िडेंट तैनात कर दिए गए थे। स्थानीय शासकों की स्वतंत्रता घटती जा रही थी। उनकी सेनाओं को भंग कर दिया गया था। उनके राजस्व वसूली के अधिकार व इलाके एक-एक करके छीने जा रहे थे।
बहुत सारे स्थानीय शासकों ने अपने हितों की रक्षा के लिए कंपनी के साथ बातचीत भी की। उदाहरण के लिए, झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई चाहती थीं कि कंपनी उनके पति की मृत्यु के बाद उनके गोद लिए हुए बेटे को राजा मान ले। पेशवा बाजीराव द्वितीय के दत्तक पुत्र नाना साहेब ने भी कंपनी से आग्रह किया कि उनके पिता को जो पेंशन मिलती थी वह मृत्यु के बाद उन्हें मिलने लगे। अपनी श्रेष्ठता और सैनिक ताकत के नशे में चूर कंपनी ने इन निवेदनों को ठुकरा दिया।
अवध की रियासत अंग्रेजों के कब्जे में जाने वाली आखिरी रियासतों में से थी। 1801 में अवध पर एक सहायक संधि थोपी गयी और 1856 में अंग्रेज़ों ने उसे अपने कब्जे में ले लिया। गवर्नर जनरल डलहौजी ने ऐलान कर दिया कि रियासत का शासन ठीक से नहीं चलाया जा रहा है इसलिए शासन को दुरुस्त करने के लिए ब्रिटिश प्रभुत्व जरूरी है।
कंपनी ने मुगलों के शासन को खत्म करने की भी पूरी योजना बना ली थी। कंपनी द्वारा जारी किए गए सिक्कों पर से मुगल बादशाह का नाम हटा दिया गया। 1849 में गवर्नर जनरल डलहौज़ी ने ऐलान किया कि बहादुर शाहज़फर की मृत्यु के बाद बादशाह के परिवार को लाल क़िले से निकाल कर उसे दिल्ली में कहीं और बसाया जाएगा। 1856 में गवर्नर-जनरल कैनिंग ने फ़ैसला किया कि बहादुर शाह ज़फर आखिरी मुग़ल बादशाह होंगे। उनकी मृत्यु के बाद उनके किसी भी वंशज को बादशाह नहीं माना जाएगा। उन्हें केवल राजकुमारों के रूप में मान्यता दी जाएगी।
किसान और सिपाही
गाँवों में किसान और ज़मींदार भारी-भरकम लगान और कर वसूली के सख्त तौर-तरीकों से परेशान थे। बहुत सारे लोग महाजनों से लिया कर्ज नहीं लौटा पा रहे थे। इसके कारण उनकी पीढ़ियों पुरानी ज़मीनें हाथ से निकलती जा रही थीं।
कंपनी के तहत काम करने वाले भारतीय सिपाहियों के असंतोष की अपनी वजह थी। वे अपने वेतन, भत्तों और सेवा शर्तों के कारण परेशान थे। कई नए नियम उनकी धार्मिक भावनाओं और आस्थाओं को ठेस पहुँचाते थे। उस ज़माने में बहुत सारे लोग समुद्र पार नहीं जाना चाहते थे। उन्हें लगता था कि समुद्र यात्रा से उनका धर्म और जाति भ्रष्ट हो जाएँगे। जब 1824 में सिपाहियों को कंपनी की ओर से लडने के लिए समुद्र के रास्ते बर्मा जाने का आदेश मिला तो उन्होंने इस हुक्म को मानने से इनकार कर दिया। उन्हें ज़मीन के रास्ते से जाने में ऐतराज़ नहीं था। सरकार का हुक्म न मानने के कारण उन्हें सख्त सज़ा दी गई। क्योंकि यह मुद्दा अभी खत्म नहीं हुआ था इसलिए 1856 में कंपनी को एक नया कानून बनाना पड़ा। इस कानून में साफ़ कहा गया था कि अगर कोई व्यक्ति कंपनी की सेना में नौकरी करेगा तो ज़रूरत पड़ने पर उसे समुद्र पार भी जाना पड़ सकता है।
सिपाही गाँवों के हालात से भी परेशान थे। बहुत सारे सिपाही खुद किसान थे। वे अपने परिवार गाँवों में छोड़कर आए थे। लिहाज़ा, किसानों का गुस्सा जल्दी ही सिपाहियों में भी फैल गया।
सुधारों पर प्रतिक्रिया
अंग्रेज़ों को लगता था कि भारतीय समाज को सुधारना जरूरी है। सती प्रथा को रोकने और विधवा विवाह को बढ़ावा देने के लिए कानून बनाए गए। अंग्रेज़ी भाषा की शिक्षा को जमकर प्रोत्साहन दिया गया। 1830 के बाद कंपनी ने ईसाई मिशनरियों को खुलकर काम करने और यहाँ तक कि ज़मीन व संपत्ति जुटाने की भी छूट दे दी। 1850 में एक नया कानून बनाया गया जिससे ईसाई धर्म को अपनाना और आसान हो गया। इस कानून में प्रावधान किया गया था कि अगर कोई भारतीय व्यक्ति ईसाई धर्म अपनाता है तो भी पुरखों की संपत्ति पर उसका अधिकार पहले जैसा ही रहेगा। बहुत सारे भारतीयों को यकीन हो गया था कि अंग्रेज़ उनका धर्म, उनके सामाजिक रीति-रिवाज और परंपरागत जीवनशैली को नष्ट कर रहे हैं।
सैनिक विद्रोह जनविद्रोह बन गया
यद्यपि शासक और प्रजा के बीच संघर्ष कोई अनोखी बात नहीं होती लेकिन कभी-कभी ये संघर्ष इतने फैल जाते हैं कि राज्य की सत्ता छिन्न-भिन्न हो जाती है। बहुत सारे लोग मानने लगे हैं कि उन सबका शत्रु एक है। इसलिए वे सभी कुछ करना चाहते हैं। इस तरह की स्थिति में हालात अपने हाथ में लेने के लिए लोगों को संगठित होना पड़ता है, उन्हें संचार, पहलक़दमी और आत्मविश्वास का परिचय देना होता है।
भारत के उत्तरी भागों में 1857 में ऐसी ही स्थिति पैदा हो गई थी। फ़तह और शासन के 100 साल बाद ईस्ट इंडिया कंपनी को एक भारी विद्रोह से जूझना पड़ रहा था। मई 1857 में शुरू हुई इस बगावत ने भारत में कंपनी का अस्तित्व ही खतरे में डाल दिया था। मेरठ से शुरू करके सिपाहियों ने कई जगह बग़ावत की। समाज के विभिन्न तबकों के असंख्य लोग विद्रोही तेवरों के साथ उठ खड़े हुए। कुछ लोग मानते हैं कि उननीसवीं सदी में उपनिवेशवाद के खिलाफ दुनिया भर में यह सबसे बड़ा सशस्त्र संघर्ष था।
मेरठ से दिल्ली तक
29 मार्च 1857 को युवा सिपाही - मंगल पांडे - को बैरकपुर में अपने अफ़सरों पर हमला करने के आरोप में फाँसी पर लटका दिया गया। चंद दिन बाद मेरठ में तैनात कुछ सिपाहियों ने नए कारतूसों के साथ फ़ौजी अभ्यास करने से इनकार कर दिया। सिपाहियों को लगता था कि उन कारतूसों पर गाय और सूअर की चर्बी का लेप चढ़ाया गया था। 85 सिपाहियों को नौकरी से निकाल दिया गया। उन्हें अपने अफ़सरों का हुक्म न मानने के आरोप में 10-10 साल की सजा दी गई। यह 9 मई 1857 की बात है।
मेरठ में तैनात दूसरे भारतीय सिपाहियों की प्रतिक्रिया बहुत ज़बरदस्त रही। 10 मई को सिपाहियों ने मेरठ की जेल पर धावा बोलकर वहाँ बंद सिपाहियों को आज्ञाद करा लिया। उन्होंने अंग्रेज अफ़सरों पर हमला करके उन्हें मार गिराया। उन्होंने बंदूक और हथियार कब्जे में ले लिए और अंग्रेज़ों की इमारतों व संपत्तियों को आग के हवाले कर दिया। उन्होंने फ़िरंगियों के खिलाफ युद्ध का ऐलान कर दिया। सिपाही पूरे देश में अंग्रेजों के शासन को खत्म करने पर आमादा थे। लेकिन सवाल यह था कि अंग्रेज़ों के जाने के बाद देश का शासन कौन चलाएगा। सिपाहियों ने इसका भी जवाब ढूँढ़ लिया था। वे मुगल सम्राट बहादुर शाह जृफुर को देश का शासन सौंपना चाहते थे।
मेरठ के कुछ सिपाहियों को एक टोली 10 मई की रात को घोड़ों पर सवार होकर मुँह अँधेरे ही दिल्ली पहुँच गई। जैसे ही उनके आने की ख़बर फैली, दिल्ली में तैनात टुकड़ियों ने भी बगावत कर दी। यहाँ भी अंग्रेज़ अफसर मारे गए॥ देशी सिपाहियों ने हथियार व गोला बारूद कब्जे में ले लिया और इमारतों को आग लगा दी। विजयी सिपाही लाल किले की दीवारों के आसपास जमा हो गए। वे बादशाह से मिलना चाहते थे। बादशाह अंग्रेजों की भारी ताकत से दो-दो हाथ करने को तैयार नहीं थे लेकिन सिपाही भी अड़े रहे। आखिरकार वे जबरन महल में घुस गए और उन्होंने बहादुर शाह जफर को अपना नेता घोषित कर दिया।
बूढ़े बादशाह को सिपाहियों की यह माँग माननी पड़ी। उन्होंने देश भर के मुखियाओं और शासकों को चिट्ठी लिखकर अंग्रेज़ों से लड़ने के लिए भारतीय राज्यों का एक संघ बनाने का आह्वान किया। बहादुर शाह के इस एकमात्र कदम के गहरे परिणाम सामने आए।
अंग्रेज़ों से पहले देश के एक बहुत बड़े हिस्से पर मुगल साप्राज्य का ही शासन था। ज्यादातर छोटे शासक और रजवाड़े मुगल बादशाह के नाम पर ही अपने इलाकों का शासन चलाते थे। ब्रिटिश शासन के विस्तार से भयभीत ऐसे बहुत सारे शासकों को लगता था कि अगर मुगल बादशाह दोबारा शासन स्थापित कर लें तो वे मुगल आधिपत्य में दोबारा अपने इलाकों का शासन बेफिक्र होकर चलाने लगेंगे।
अंग्रेजों को इन घटनाओं की उम्मीद नहीं थी। उन्हें लगता था कि कारतूसों के मुद्दे पर पैदा हुई उधल-पुथल कुछ समय में शांत हो जाएगी। लेकिन जब बहादुर शाह जफर ने बग़ावत को अपना समर्थन दे दिया तो स्थिति रातोरात बदल गई। अकसर ऐसा होता है कि जब लोगों को कोई रास्ता दिखाई देने लगता है तो उनका उत्साह और साहस बढ़ जाता है। इससे उन्हें आगे बढ़ने की हिम्मत, उम्मीद और आत्मविश्वास मिलता है।
बग़ावत फैलने लगी
जब दिल्ली से अंग्रेजों के पैर उखड़ गए तो लगभग एक हफ्ते तक कहीं कोई विद्रोह नहीं हुआ। ज़ाहिर है ख़बर फैलने में भी कुछ समय तो लगना ही था। लेकिन फिर तो विद्रोहों का सिलसिला ही शुरू हो गया।
एक के बाद एक, हर रेजिमेंट में सिपाहियों ने विद्रोह कर दिया और वे दिल्ली, कानपुर व लखनऊ जैसे मुख्य बिंदुओं पर दूसरी टुकड़ियों का साथ देने को निकल पड़े। उनकी देखा-देखी कस्बों और गाँवों के लोग भी बगावत के रास्ते पर चलने लगे। वे स्थानीय नेताओं , ज़मींदारों और मखियाओं के पीछे संगठित हो गए। ये लोग अपनी सत्ता स्थापित करने और अंग्रेज़ों से लोहा लेने को तैयार थे। स्वर्गीय पेशवा बाजीराव के दत्तक पुत्र नाना साहेब कानपुर के पास रहते थे। उन्होंने सेना इकट्ठा की और ब्रिटिश सैनिकों को शहर से खदेडु दिया। उन्होंने खुद को पेशवा घोषित कर दिया। उन्होंने ऐलान किया कि वह बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र के तहत गवर्नर हैं। लखनऊ की गददी से हटा दिए गए नवाब वाजिद अली शाह के बेटे बिरजिस कुद्र को नया नवाब घोषित कर दिया गया।
बिरजिस कुद्र ने भी बहादुर शाह जुफर को अपना बादशाह मान लिया। उनकी माँ बेगम हजरत महल ने अंग्रेज़ों के खिलाफ़ विद्रोहों को बढ़ावा देने में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। झाँसी में रानी लक्ष्मीबाई भी विद्रोही सिपाहियों के साथ जा मिलीं। उन्होंने नाना साहेब के सेनापति ताँत्या योपे के साथ मिलकर अंग्रेज़ों को भारी चुनौती दी। मध्यप्रदेश के मांडला क्षेत्र में, राजगढ़ की रानी अवन्ति बाई लोधी ने 4000 सौनिकों की फौज तैयार की और अंग्रेजों के खिलाफ उसका नेतृत्व किया क्योंकि ब्रिटिश शासन ने उनके राज्य के प्रशासन पर नियंत्रण कर लिया था।
विद्रोही टुकडियों के सामने अंग्रेजों की संख्या बहुत कम थी। बहुत सारे मोर्चों पर उनकी जबरदस्त हार हुई। इससे लोगों को यकीन हो गया कि अब अंग्रेज़ों का शासन खत्म हो चुका है। अब लोगों को विद्रोहों में कूद पड़ने का गहरा आत्मविश्वास मिल गया था। खासतौर से अवध के इलाके में चौतरफा बगावत की स्थिति थी। 6 अगस्त 1857 को लेफ्टिनेंट कर्नल यइटलर ने अपने कमांडर-इन-चीफ़ को टेलीग्राम भेजा जिसमें उसने अंग्रेजों के भय को व्यक्त किया था : “हमारे लोग विरोधियों की संख्या और लगातार लड़ाई से थक गए हैं। एक-एक गाँव हमारे खिलाफ़ है। ज़मींदार भी हमारे खिलाफ़ खड़े हो रहे हैं।”
इस दौरान बहुत सारे महत्वपूर्ण नेता सामने आए। उदाहरण के लिए, फ़ैजाबाद के मौलवी अहमदुल्ला शाह ने भविष्यवाणी कर दी कि अंग्रेज़ों का शासन जल्दी ही खत्म हो जाएगा। वह समझ चुके थे कि जनता क्या चाहती है। इसी आधार पर उन्होंने अपने समर्थकों की एक विशाल संख्या जुटा ली। अपने समर्थकों के साथ वे भी अंग्रेज़ों से लड़ने लखनऊ जा पहुँचे। दिल्ली में अंग्रेज़ों का सफ़ाया करने के लिए बहुत सारे गाज़ी यानी धर्मयोद्धा इकट्ठा हो गए थे। बरेली के सिपाही बख्त खान ने लड़ाकों की एक विशाल टुकडी के साथ दिल्ली की ओर कूच कर दिया। वह इस बगावत में एक मुख्य व्यक्ति साबित हुए। बिहार के एक पुराने ज़मींदार कुँवर सिंह ने भी विद्रोही सिपाहियों का साथ दिया और महीनों तक अंग्रेज़ों से लड़ाई लडी। तमाम इलाकों के नेता और लड़ाके इस युद्ध में हिस्सा ले रहे थे।
कंपनी का पलटवार
इस उथल-पुथल के बावजूद अंग्रेजों ने हिम्मत नहीं छोड़ी। कंपनी ने अपनी पूरी ताकत लगाकर विद्रोह को कुचलने का फैसला लिया। उन्होंने इंग्लैंड से और फ़ौजी मँगवाए, विद्रोहियों को जल्दी सज़ा देने के लिए नए कानून बनाए और विद्रोह के मुख्य केंद्रों पर धावा बोल दिया। सितंबर 1857 में दिल्ली दोबारा अंग्रेजों के कब्जे में आ गई। अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र पर मुकदमा चलाया गया और उन्हें आजीवन कारावास की सजा दी गई। उनके बेटों को उनकी आँखों के सामने गोली मार दी गई। बहादुर शाह और उनकी पत्नी बेगम जीनत महल को अक्तूबर 1858 में रंगून जेल में भेज दिया गया। इसी जेल में नवंबर 1862 में बहादुर शाह ज़फ़र ने अंतिम साँस ली।
दिल्ली पर अंग्रेजों का कब्जा हो जाने का यह मतलब नहीं था कि विद्रोह खत्म हो चुका था। इसके बाद भी लोग अंग्रेजों से टक्कर लेते रहे। व्यापक बगावत की विशाल ताकत को कुचलने के लिए अंग्रेजों को अगले दो साल तक लड़ाई लड़नी पड़ी।
मार्च 1858 में लखनऊ अंग्रेज़ों के कब्जे में चला गया। जून 1858 में रानी लक्ष्मीबाई की शिकस्त हुई और उन्हें मार दिया गया। दुर्भाग्यवश, ऐसा ही रानी अवन्ति बाई लोधी के साथ हुआ। खेड़ी की शुरुआती विजय के बाद उन्होंने अपने आप को अंग्रेजी फौज से घिरा पाया और वे शहीद हो गईं।
तात्या टोपे मध्य भारत के जंगलों में रहते हुए आदिवासियों और किसानों कौ सहायता से छापामार युद्ध चलाते रहे।
जिस तरह पहले अंग्रेजों के खिलाफ़ मिली सफलताओं से विद्रोहियों को उत्साह मिला था उसी तरह विद्रोही ताकतों की हार से लोगों की हिम्मत टूटने लगी। बहुत सारे लोगों ने विद्रोहियों का साथ छोड़ दिया। अंग्रेज़ों ने भी लोगों का विश्वास जीतने के लिए हर संभव प्रयास किया। उन्होंने वफ़ादार भूस्वामियों के लिए ईनामों का ऐलान कर दिया। उन्हें आश्वासन दिया गया कि उनकी ज़मीन पर उनके परंपरागत अधिकार बने रहेंगे। जिन्होंने विद्रोह किया था उनसे कहा गया कि अगर वे अग्रेज्ञों के सामने समर्पण कर देते हैं और अगर उन्होंने किसी अंग्रेज की हत्या नहीं की है तो वे सुरक्षित रहेंगे और ज़मीन पर उनके अधिकार और दावेदारी बनी रहेगी। इसके बावजूद सैकड़ों सिपाहियों, विद्रोहियों, नवाबों और राजाओं पर मुक़दमे चलाए गए और उन्हें फाँसी पर लटका दिया गया।
(पढ़िए 1857 की क्रांति की असफलता के कारण)
विद्रोह के बाद के साल
अंग्रेज़ों ने 1859 के आखिर तक देश पर दोबारा नियंत्रण पा लिया था लेकिन अब वे पहले वाली नीतियों के सहारे शासन नहीं चला सकते थे। अंग्रेजों ने जो अहम बदलाव किए वे निम्नलिखित हैं -
1. ब्रिटिश संसद ने 1858 में एक नया कानून पारित किया और ईस्ट इंडिया कंपनी के सारे अधिकार ब्रिटिश साम्राज्य के हाथ में सौंप दिए ताकि भारतीय मामलों को ज्यादा बेहतर ढंग से सँभाला जा सके। ब्रिटिश मंत्रिमंडल के एक सदस्य को भारत मंत्री के रूप में नियुक्त किया गया। उसे भारत के शासन से संबंधित मामलों को सँभालने का जिम्मा सौंपा गया। उसे सलाह देने के लिए एक परिषद का गठन किया गया जिसे इंडिया काउंसिल कहा जाता था। भारत के गवर्नर-जनरल को वायसराय का ओहदा दिया गया। इस प्रकार उसे इंगलैंड के राजा/रानी का निजी प्रतिनिधि घोषित कर दिया गया। फलस्वरूप, अंग्रेज सरकार ने भारत के शासन की ज़िम्मेदारी सीधे अपने हाथों में ले ली।
2. देश के सभी शासकों को भरोसा दिया गया कि भविष्य में कभी भी उनके भूक्षेत्र पर कब्जा नहीं किया जाएगा। उन्हें अपनी रियासत अपने वंशजों, यहाँ तक कि दत्तक पुत्रों को सौंपने की छूट दे दी गई। लेकिन उन्हें इस बात के लिए प्रेरित किया गया कि वे ब्रिटेन की रानी को अपना अधिपति स्वीकार करें। इस तरह, भारतीय शासकों को ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन शासन चलाने की छूट दी गई।
3. सेना में भारतीय सिपाहियों का अनुपात कम करने और यूरोपीय सिपाहियों की संख्या बढ़ाने का फैसला लिया गया। यह भी तय किया गया कि अवध, बिहार, मध्य भारत और दक्षिण भारत से सिपाहियों को भर्ती करने की बजाय अब गोरखा, सिखों और पठानों में से ज़्यादा सिपाही भर्ती किए जाएँगे।
4. मुसलमानों की ज़मीन और संपत्ति बड़े पैमाने पर ज़ब्त की गई। उन्हें संदेह व शत्रुता के भाव से देखा जाने लगा। अंग्रेजों को लगता था कि यह विद्रोह उन्होंने ही खड़ा किया था।
5. अंग्रेज़ों ने फ़ैसला किया कि वे भारत के लोगों के धर्म और सामाजिक रीति-रिवाजों का सम्मान करेंगे।
6. भूस्वामियों और ज़मींदारों की रक्षा करने तथा ज़मीन पर उनके अधिकारों को स्थायित्व देने के लिए नीतियाँ बनाई गईं।
इस प्रकार, 1857 के बाद इतिहास का एक नया चरण शुरू हुआ।
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10 मई 1857 की दोपहर बाद मेरठ छावनी में सिपाहियों ने विद्रोह कर दिया। हलचल की शुरुआत भारतीय सैनिकों से बनी पैदल सेना से हुई थी जो जल्द ही घुड़सवार फ़ौज और फिर शहर तक फैल गई। शहर और आसपास के देहात के लोग सिपाहियों के साथ जुड़ गए। सिपाहियों ने शस्त्रागार पर क़ब्जा कर लिया जहाँ हथियार और गोला-बारूद रखे हुए थे। इसके बाद उन्होंने गोरों पर निशाना साधा और उनके बंगलों, साजो-सामान को तहस-नहस करना और जलाना-फूँकना शुरू कर दिया। रिकॉर्ड दफ़्तर, जेल, अदालत, डाकखाने, सरकारी खजाने, जैसी सरकारी इमारतों को लूटकर तबाह किया जाने लगा। शहर को दिल्ली से जोड़ने वाली टेलीग्राफ़ लाइन काट दी गई। अँधेरा पसरते ही सिपाहियों का एक जत्था घोड़ों पर सवार होकर दिल्ली की तरफ़ चल पड़ा। यह जत्था 11 मई को तड़के लाल क़िले के फाटक पर पहुँचा। रमज़ान का महीना था। मुगल सफ़्नाट बहादुर शाह नमाज़ पढ़कर और सहरी (रोज़े के दिनों में सूरज उगने से पहले का भोजन) खाकर उठे थे। उन्हें फाटक पर हो-हल्ला सुनाई दिया। बाहर खड़े सिपाहियों ने जानकारी दी कि “हम मेरठ के सभी अंग्रेज पुरुषों को मारकर आए हैं क्योंकि वे हमें गाय और सुअर की चर्बी में लिपटे कारतूस दाँतों से खींचने के लिए मजबूर कर रहे थे। इससे हिंदू और मुसलमान, सबका धर्म भ्रष्ट हो जाएगा।” तब तक सिपाहियों का एक और जत्था दिल्ली में दाखिल हो चुका था और शहर के आम लोग उनके साथ जुड़ने लगे थे। बहुत सारे यूरोपियन लोग मारे गए, दिल्ली के अमीर लोगों पर हमले हुए और लूटपाट हुई। दिल्ली अंग्रेज़ों के नियंत्रण से बाहर जा चुकी थी। कुछ सिपाही लाल क़िले में दाखिल होने के लिए दरबार के शिष्टाचार का पालन किए बिना बेधड़क क़िले में घुस गए थे। उनकी माँग थी कि बादशाह उन्हें अपना आशीर्वाद दें। सिपाहियों से घिरे बहादुर शाह के पास उनकी बात मानने के अलावा और कोई चारा न था। इस तरह इस विद्रोह ने एक वैधता हासिल कर ली क्योंकि अब उसे मुगल बादशाह के नाम पर चलाया जा सकता था।
12 और 13 मई को उत्तर भारत में शांति रही। लेकिन जैसे ही यह ख़बर फैली कि दिल्ली पर विद्रोहियों का क़ब्ज़ा हो चुका है और बहादुर शाह ने विद्रोह को अपना समर्थन दे दिया है, हालात तेज़ी से बदलने लगे। गंगा घाटी की खाबनियों और दिल्ली के पश्चिम की कुछ छावनियों में विद्रोह के स्वर तेज़ होने लगे।
1. विद्रोह का ढर्रा
यदि इन विद्रोहों को तारीख़ के हिसाब से सिलसिलेवार रखा जाए तो ऐसा लगता है कि जैसे जैसे विद्रोह की ख़बर एक शहर से दूसरे शहर में पहुँचती गई वैसे-वैसे सिपाही हथियार उठाते गए। हर छावनी में विद्रोह का घटनाक्रम कमोबेश एक जैसा था।
1.1 सैन्य विद्रोह कैसे शुरू हुए
सिपाहियों ने किसी न किसी विशेष संकेत के साथ अपनी कार्रवाई शुरू कौ। कई जगह शाम के समय तोप का गोला दाग़ा गया तो कहीं बिगुल बजाकर विद्रोह का संकेत दिया गया। सबसे पहले उन्होंने शस्त्रागार पर क़ब्ज़ा किया और सरकारी ख़ज़ाने को लूटा। इसके बाद उन्होंने जेल, सरकारी ख़ज्जाने, टेलीग्राफ़ दफ़्तर, रिकॉर्ड रूम, बंगलों, तमाम सरकारी इमारतों पर हमला किया और सारे रिकॉर्ड जलाते चले गए। गोरों से संबंधित हर चीज़ और हर शख्स हमले का निशाना था। हिंदुओं और मुसलमानों, तमाम लोगों को एकजुट होने और फ़िरंगियों का सफाया करने के लिए हिंदी, उर्दू और फ़ारसी में अपीलें जारी होने लगीं।
विद्रोह में आम लोगों के भी शामिल हो जाने के साथ साथ हमलों का दायरा फैल गया। लखनऊ, कानपुर और बरेली जैसे बड़े शहरों में साहूकार और अमीर भी विद्रोहियों के गुस्से का शिकार बनने लगे। किसान इन लोगों को न केवल अपना उत्पीड़क बल्कि अंग्रेजों का पिट्ठू मानते थे। ज़्यादातर जगह अमीरों के घर-बार लूटकर तबाह कर दिए गए। सिपाहियों कौ क़तारों में हुए इन छिटपुट विद्रोहों ने जल्दी ही एक चौतरफ़ा विद्रोह का रूप ले लिया। शासन की सत्ता और सोपानों की सरेआम अवहेलना होने लगी।
मई-जून के महीनों में अंग्रेजों के पास विद्रोहियों की कार्रवाइयों का कोई जवाब नहीं था। अंग्रेज़ अपनी ज़िंदगी और घर-बार बचाने में फँसे हुए थे। जैसा कि एक ब्रिटिश अफ़सर ने लिखा, ब्रिटिश शासन “ताश के क़िले की तरह बिखर गया।"
1.2 संचार के माध्यम
अलग-अलग स्थानों पर विद्रोह के ढरें में समानता की वजह आशिक रूप से उसकी योजना और समन्वय में निहित थी। इसमें कोई शक नहीं कि विभिन्न छवनियों के सिपाहियों के बीच अच्छा संचार बना हुआ था। जब सातवीं अवध इरेग्युलर कैवेलरी ने मई की शुरुआत में नए कारतूसों का इस्तेमाल करने से इनकार कर दिया तो उन्होंने 48 नेटिव इन्फेंट्री को लिखा कि “हमने अपने धर्म की रक्षा के लिए यह फ़ैसला लिया है और 48 नेटिव इन्फेंट्री के हुक्म का इंतज़ार कर रहे हैं।” सिपाही या उनके संदेशवाहक एक जगह से दूसरी जगह जा रहे थे। लब्बोलुआब ये कि लोग बस बग़ावत के मंसूबे गढ़ रहे थे और उसी के बारे में बात करते थे।
विद्रोहों की बनावट और जिन साक्ष्यों के आधार पर ऐसा लगता है कि इन विद्रोहों में एक योजना और समन्वय था, उनको देखकर कुछ अहम सवाल खडे होते हैं। ये योजनाएँ कैसे बनाई गईं? योजनाकार कौन थे? मौजूदा दस्तावेज्ञों के आधार पर इन सवालों के सीधे-सीधे जवाब देना कठिन है। फिर भी, एक घटना इस बारे में कुछ सुराग ज़रूर देती है कि ये विद्रोह इतने सुनियोजित कैसे थे। विद्रोह के दौरान अवध मिलिट्री पुलिस के कैप्टेन हियसें की सुरक्षा का ज़िम्मा भारतीय सिपाहियों पर था। जहाँ कैप्टेन हियसें तैनात था वहीं 41वीं नेटिव इन्फेंट्री भी तैनात थी। इन्फेंट्री की दलील थी कि क्योंकि वे अपने तमाम गोरे अफ़सरों को ख़त्म कर चुके हैं इसलिए अवध मिलिट्री का फ़र्ज बनता है कि या तो वे हियसें को मौत की नींद सुला दें या उसे गिरफ्तार करके 41वीं नेटिव इन्फेंट्री के हवाले कर दें। मिलिट्री पुलिस ने दोनों दलीलें सख़ारिज कर दीं। अब यह तय किया गया कि इस मामले को हल करने के लिए हर रेजीमेंट के देशी अफ़सरों की एक पंचायत बुलाई जाए। इस विद्रोह के शुरुआती इतिहासकारों में से एक, चार्ल्स बॉल ने लिखा है कि ये पंचायतें रात को कानपुर सिपाही लाइनों में जुटती थीं। इसका मतलब है कि सामूहिक रूप से कुछ फ़ैसले ज़रूर लिए जा रहे थे। क्योंकि सिपाही लाइनों में रहते थे और सभी की जीवनशैली एक जैसी थी और क्योंकि उनमें बहुत सारे प्रायः एक ही जाति के होते थे इसलिए इस बात का अंदाज्ञा लगाना मुश्किल नहीं है कि वे इकट्ठा बैठकर अपने भविष्य के बारे में फ़ैसले ले रहे होंगे। ये सिपाही अपने विद्रोह के कर्ताधर्ता खुद ही थे।
1.3 नेता और अनुयायी
अंग्रेज़ों से लोहा लेने के लिए नेतृत्व और संगठन ज़रूरी थे। इन लक्ष्यों को हासिल करने के लिए विद्रोहियों ने कई बार ऐसे लोगों की शरण ली जो अंग्रेजों से पहले नेताओं की भूमिका निभाते थे। जैसा कि हम पीछे देख चुके हैं, मेरठ के सिपाहियों ने सबसे पहले जो काम किए उनमें एक यह था कि वे फ़ौरन दिल्ली गए और उन्होंने बूढ़े हो चुके मुगल बादशाह से विद्रोह का नेतृत्व स्वीकार करने कौ दरख्वास्त को। लेकिन इस निवेदन पर सहमति हासिल करने में भी वक़्त लगा। बहादुर शाह इस ख़बर पर भयभीत और बैचेन दिखाई दिए। बहादुर शाह ने नाममात्र का नेता बनने की ज़िम्मेदारी भी तब स्वीकार की जब कुछ सिपाही शाही शिष्टाचार की अवहेलना करते हुए जबरन लाल क़िले के मुगल दरबार में जा घुसे और बहादुर शाह के पास वाकई कोई चारा नहीं बचा था।
अन्य स्थानों पर भी, छोटे पैमाने पर ही सही, इसी तरह के दृश्य घट चुके थे। कानपुर में सिपाहियों और शहर के लोगों ने पेशवा बाजीराव द्वितीय के उत्तराधिकारी नाना साहिब के सामने बग़ावत की बागडोर संभालने के सिवा और कोई विकल्प ही नहीं छोड़ा था। झाँसी में रानी को आम जनता के दवाब में बगावत का नेतृत्व सँभालना पड़ा। कुछ ऐसी ही स्थिति बिहार में आरा के स्थानीय ज़मींदार कुँवर सिंह की थी। अवध में नवाब वाजिद अली शाह जैसे लोकप्रिय शासक को गद्दी से हय दिए जाने और उनके राज्य पर क़ब्ज्ञा कर लेने की यादें लोगों के ज़हन में अभी भी ताज़ा थीं। लखनऊ में ब्रिटिश राज के ढहने की ख़बर पर लोगों ने नवाब के युवा बेटे बिरजिस क़ंद्र को अपना नेता घोषित कर दिया था।
सभी जगहों पर नेता दरबारों से जुड़े व्यक्ति-रानियाँ, राजा, नवाब, ताल्लुक़दार-नहीं थे। अकसर विद्रोह का संदेश आम पुरुषों एवं महिलाओं के ज़रिए और कुछ स्थानों पर धार्मिक लोगों के ज़रिए भी फैल रहा था। मेरठ से इस आशय की ख़बरें आ रही थीं कि वहाँ हाथी पर सवार एक फ़क़ीर को देखा गया था जिससे सिपाही बार-बार मिलने जाते थे। लखनऊ में अवध पर क्रब्ज्षे के बाद बहुत सारे धार्मिक नेता और स्वयंभू पैगम्बर प्रचारक ब्रिटिश राज को नेस्तनाबूद करने का अलख जगा रहे थे।
अन्य स्थानों पर किसानों, ज़मींदारों और आदिवासियों को विद्रोह के लिए उकसाते हुए कई स्थानीय नेता सामने आ चुके थे। शाह मल ने उत्तर प्रदेश में बड़ौत परगना के गाँव बालों को संगठित किया। छोटा नागपुर स्थित सिंहभूम के एक आदिवासी काश्तकार गोनू ने इलाके के कोल आदिवासियों का नेतृत्व सँभाला हुआ था।
1.4 अफ़वाहें और भविष्यवाणियाँ
तरह-तरह की अफ़वाहों और भविष्यवाणियों के ज़रिए लोगों को उठ खड़ा होने के लिए उकसाया जा रहा था। जैसा कि हमने पीछे देखा, मेरठ से दिल्ली आने वाले सिपाहियों ने बहादुर शाह को उन कारतूसों के बारे में बताया था जिन पर गाय और सुअर की चर्बी का लेप लगा था। उनका कहना था कि अगर वे इन कारतूसों को मुँह से लगाएँगे तो उनकी जाति और मज़हब, दोनों भ्रष्ट हो जाएँगे। सिपाहियों का इशारा एन्फ़ील्ड राइफ़ल के उन कारतूसों की तरफ़ था जो हाल ही में उन्हें दिए गए थे। अंग्रेज़ों ने सिपाहियों को लाख समझाया कि ऐसा नहीं है लेकिन यह अफ़वाह उत्तर भारत की छावनियों में जंगल की आग की तरह फैलती चली गई।
इस अफ़वाह का स्रोत ढूँढा जा सकता है। राइफ़ल इंस्ट्रक्शन डिपो के कमांडेंट कैप्टेन राइट ने अपनी रिपोर्ट में लिखा था कि दम दम स्थित शस्त्रागार में काम करने वाले “नीची जाति” के एक खलासी ने जनवरी 1857 के तीसरे हफ़्ते में एक ब्राह्मण सिपाही से पानी पिलाने के लिए कहा था। ब्राह्मण सिपाही ने यह कहकर अपने लोटे से पानी पिलाने से इनकार कर दिया कि “नीची जाति” के छूने से लोटा अपवित्र हो जाएगा। रिपोर्ट के मुताबिक, इस पर खलासी ने जवाब दिया कि “(वैसे भी) जल्दी ही तुम्हारी जाति भ्रष्ट होने वाली है क्योंकि अब तुम्हें गाय और सुअर की चर्बी लगे कारतूसों को मुँह से खींचना पड़ेगा।” इस रिपोर्ट की विश्वसनीयता के बारे में कहना मुश्किल है लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि जब एक बार यह अफ़वाह फैलना शुरू हुई तो अंग्रेज अफ़सरों के तमाम आश्वासनों के बावजूद इसे ख़त्म नहीं किया जा सका और इसने सिपाहियों में एक गहरा गुस्सा पैदा कर दिया।
1857 की शुरुआत तक उत्तर भारत में यही एक अफ़वाह नहीं थी। यह अफ़वाह भी ज़ोरों पर थी कि अंग्रेज़ सरकार ने हिंदुओं और मुसलमानों की जाति और धर्म को नष्ट करने के लिए एक भयानक साज़िश रच ली है। अफ़वाह फैलाने वालों का कहना था कि इसी मकसद को हासिल करने के लिए अंग्रेज्ों ने बाज़ार में मिलने वाले आटे में गाय और सुअर की हड्डियों का चूरा मिलवा दिया है। शहरों और छावनियों में सिपाहियों और आम लोगों ने आटे को छूने से भी इनकार कर दिया। चारों तरफ़ इस आशय का भय और शक बना हुआ था कि अंग्रेज हिंदुस्तानियों को ईसाई बनाना चाहते हैं। यह बेचैनी बहुत तेज़ी से फैली। ब्रिटिश अफ़सरों ने लोगों को अपनी बात का यकीन दिलाने का भरसक प्रयास किया लेकिन नाकामयाब रहे। इन्हीं बेचैनियों ने लोगों को अगला कदम उठाने के लिए झिंझोड़ा। किसी बड़ी कार्रवाई के आहवान को इस भविष्यवाणी से और बल मिला कि प्लासी की जंग के 100 साल पूरा होते ही 23 जून 1857 को अंग्रेजी राज ख़त्म हो जाएगा।
बात सिर्फ़ अफ़वाहों तक ही सीमित नहीं थी। उत्तर भारत के विभिन्न भागों से गाँव-गाँव में चपातियाँ बैँटने की भी रिपोर्टे आ रही थीं। बताते हैं कि रात में एक आदमी आकर गाँव के चौकीदार को एक चपाती तथा पाँच और चपातियाँ बनाकर अगले गाँवों में पहुँचाने का निर्देश दे जाता था। और यह सिलसिला यूँ ही चलता जाता था। चपातियाँ बाँदने का मतलब और मक़सद न उस समय स्पष्ट था और न आज स्पष्ट है। लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि लोग इसे किसी आने वाली उथल-पुथल का संकेत मान रहे थे।
1.5 लोग अफ़वाहों में विश्वास क्यों कर रहे थे?
इतिहास में अफ़वाहों और भविष्यवाणियों की ताकत को सिर्फ़ इस आधार पर नहीं समझा जा सकता कि वे वाकई में सच थीं या नहीं। हमें देखना यह चाहिए कि जो उन पर यकीन कर रहे थे उनकी मानसिकता के बारे में इनसे क्या पता चलता है; ये अफ़वाहें और भविष्यवाणियाँ उनके भय, उनकी आशंकाओं, उनके विश्वासों और प्रतिबद्धताओं के बारे में क्या बताती हैं। अफ़वाह तभी फैलती है जब उसमें लोगों के ज़्हन में गहरे दबे डर और संदेह की अनुगूँज सुनाई देती है।
अगर 1857 की इन अफ़वाहों को 1820 के दशक से अंग्रेज़ों द्वारा अपनाई जा रही नीतियों के संदर्भ में देखा जाए तो उनका मतलब ज़्यादा आसानी से समझा जा सकता है। जैसा कि आपको मालूम होगा, गवर्नर जनरल लॉर्ड विलियम बेंटिंक के नेतृत्व में उसी समय से ब्रिटिश सरकार पश्चिमी शिक्षा, पश्चिमी विचारों और पश्चिमी संस्थानों के ज़रिए भारतीय समाज को “सुधारने” के लिए खास तरह की नीतियाँ लागू कर रही थी। भारतीय समाज के कुछ तबकों की सहायता से उन्होंने अंग्रेज़ी माध्यम के स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालय स्थापित किए थे जिनमें पश्चिमी विज्ञान और उदार कलाओं 6,%2/०1 4//७) के बारे में पढ़ाया जाता था। अंग्रेजों ने सती प्रथा को ख़त्म करने (1829) और हिंदू विधवा विवाह को वैधता देने के लिए क़ानून बनाए थे।
शासकीय दुर्बलता और दत्तकता को अवैध घोषित कर देने जैसे बहानों के ज़रिए अंग्रेज़ों ने न केवल अवध बल्कि झाँसी और सतारा जैसी बहुत सारी दूसरी रियासतों को भी क़ब्ज़े में ले लिया था। जैसे ही ऐसी कोई रियासत या इलाका उनके क़ब्ज़े में आता था, वहाँ अंग्रेज़ अपने ढंग की शासन व्यवस्था, अपने क़ानून, भूमि विवादों के निपटरे की अपनी पद्धति और भूराजस्व वसूली की अपनी व्यवस्था लागू कर देते थे। उत्तर भारत के लोगों पर इन सब कार्रवाइयों का गहरा असर हुआ।
लोगों को लगता था कि वे अब तक जिन चीज़ों की क्रद्र करते थे, जिनको पवित्र मानते थे - चाहे राजे-रजवाडे हों, सामाजिक-धार्मिक रीति-रिवाज हों या भूस्वामित्व, लगान अदायगी कौ प्रणाली हो - उन सबको ख़त्म करके एक ऐसी व्यवस्था लागू की जा रही थी जो ज़्यादा हृदयहीन, परायी और दमनकारी थो।
इस सोच को ईसाई प्रचारकों की गतिविधियों से भी बल मिल रहा था। ऐसे अनिश्चित हालात में अफ़वाहें रातोंरात फैलने लगती थीं।
सन 1857 के विद्रोह के आधार का विस्तार से पता लगाने के लिए आइए अवध का ज़रा नज़दीकी से अध्ययन कीजिए। अवध 1857 के इस भव्य नाटक का बड़ा केंद्र था।
2. अवध में विद्रोह
2.1 “ये गिलास फल (Cherry) एक दिन हमारे ही मुँह में आकर गिरेगा।”
1851 में गवर्नर जनरल लॉर्ड डलहौज़ी ने अवध की रियासत के बारे में कहा था कि “ये गिलास फल एक दिन हमारे ही मुँह में आकर गिरेगा।” पाँच साल बाद, 1856 में इस रियासत को औपचारिक रूप से ब्रिटिश साप्राज्य का अंग घोषित कर दिया गया।
रियासत पर क़ब्ज़े का यह सिलसिला ज़रा लंबा चला। 1801 से अवध में सहायक साध थोष दी गई थी। इस संधि में शर्त थी कि नवाब अपनी सेना ख़त्म कर दे, रियासत में अंग्रेज़ टुकडियों की तैनाती की इजाज़त दे और दरबार में मौजूद ब्रिटिश रेज़ीडेंट की सलाह पर काम करे। अपनी सैनिक ताक़त से वंचित हो जाने के बाद नवाब अपनी रियासत में क़ानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए दिनोदिन अंग्रेज़ों पर निर्भर होता जा रहा था। अब विद्रोही मुखियाओं और ताल्लुक़दारों पर उसका कोई नियंत्रण नहीं था।
अवध पर क़ब्जे में अंग्रेजों की दिलचस्पी बढ़ती जा रही थी। उन्हें लगता था कि वहाँ की ज़मीन नील और कपास की खेती के लिए मुफ़ीद है और इस इलाक़े को उत्तरी भारत के एक बड़े बाज़ार के रूप में विकसित किया जा सकता है। 1850 के दशक की शुरुआत तक वे देश के ज़्यादातर बड़े हिस्सों पर जीत हासिल कर चुके थे। मराठा भूमि, दोआब, कर्नाटक, पंजाब और बंगाल, सब अंग्रेज़ों की झोली में थे। तक़रीबन एक सदी पहले बंगाल पर जीत के साथ शुरू हुई क्षेत्रीय विस्तार की यह प्रक्रिया 1856 में अवध के अधिग्रहण के साथ मुकम्मल हो जाने वाली थी।
2.2 “देह से जान जा चुकी थी।”
लॉर्ड डलहौज़ी द्वारा किए गए इस अधिग्रहण से तमाम इलाक़ों और रियासतों में गहरा असंतोष था। लेकिन इतना गुस्सा कहीं नहीं था जैसा उत्तर भारत की शान कहे जाने वाले अवध की रियासत में था। यहाँ के नवाब वाजिंद अली शाह को यह कहते हुए गद्दी से हत कर कलकत्ता निष्कासित कर दिया गया था कि वह अच्छी तरह शासन नहीं चला रहे थे। ब्रिटिश सरकार ने यह निराधार निष्कर्ष भी निकाल लिया कि वाजिद अली शाह लोकप्रिय नहीं थे। मगर सच यह है कि लोग उन्हें दिल से चाहते थे। जब वे अपने प्यारे लखनऊ से विदा ले रहे थे तो बहुत सारे लोग बिलाप करते हुए कानपुर तक उनके पीछे गए थे।
नवाब के निष्कासन से पैदा हुए दुख और अपमान के इस व्यापक अहसास को उस समय के बहुत सररे प्रेक्षकों ने दर्ज किया है। एक ने लिखा था : “देह से जान जा चुकी थी। शहर की काया बेजान थी...। कोई सड़क, कोई बाज़ार और घर ऐसा न था जहाँ से जान-ए-आलम से बिछड़ने पर विलाप का शोर न गूँज रहा हो।” एक लोक गीत में इस बात पर शोक व्यक्त किया गया कि “अग्रेज बहादुर आइन, मुल्क लई लीन्हों।
इस भावनात्मक उथल-पुथल को भौतिक क्षति के अहसास से और बल मिला। नवाब को हटाए जाने से दरबार और उसकी संस्कृति भी ख़त्म हो गई। संगीतकारों, नर्तकों, कवियों, कारीगरों, बावर्चियों, नौकरों, सरकारी कर्मचारियों और बहुत सारे लोगों की रोज़ी-रोटी जाती रही।
2.3 फ़िरंगी राज का आना और एक दुनिया का ख़ात्मा
अवध में विभिन्न प्रकार कौ पीड़ाओं ने राजकुमारों, ताल्लुक़दारों, किसानों और सिपाहियों को एक-दूसरे से जोड़ दिया था। वे सभी फिरंगी राज के आगमन को विभिन्न अर्थों में एक दुनिया की समाप्ति के रूप में देखने लगे थे। वे चीज़ें बिखर रही थीं जो लोगों के लिए बहुमूल्य थीं, जिनको वे प्यार करते थे। 1857 के विद्रोह में तमाम भावनाएँ और मुद्दे, परंपराएँ और निष्ठाएँ अभिव्यक्त हो रही थीं। बाकी जगहों के मुकाबले अवध में यह विद्रोह एक विदेशी शासन के ख़िलाफ़ लोक-प्रतिरोध की अभिव्यक्ति बन गया था।
अवध के अधिग्रहण से सिर्फ़ नवाब की ही गद्दी नहीं छिनी थी। इसने इलाके के ताल्लुक़दारों को भी लाचार कर दिया था। अवध के समूचे देहात में ताल्लुक़दारों की जागीरें और क़िले बिखरे हुए थे। ये लोग पीढ़ियों से अपने इलाक़े में ज़मीन और सत्ता पर नियंत्रण रखते आए थे। अंग्रेजों के आने से पहले ताल्लुक़दारों के पास हथियारबंद सिपाही होते थे। उनके अपने क़िले थे। अगर वे नवाब की संप्रभुता को स्वीकार कर लें और अपने ताल्लुक़दार का राजस्व चुकाते रहें तो उनके पास काफ़ी स्वायत्तता भी होती थी। कुछ बड़े ताल्लुकदारों के पास तो 12,000 तक पैदल सिपाही होते थे। छोटे-मोटे ताल्लुक़दारों के पास भी 200 सिपाहियों की टुकड़ी तो होती ही थी। अंग्रेज़ इन ताल्लुक़दारों की सत्ता को बरदाश्त करने के लिए कतई तैयार नहीं थे। अधिग्रहण के फौरन बाद ताल्लुक़दारों की सेनाएँ भंग कर दी गईं। उनके दुर्ग ध्वस्त कर दिए गए।
ब्रिटिश भूराजस्व नीति ने ताल्लुक़दारों की हैसियत व सत्ता को और चोट पहुँचाई। अधिग्रहण के बाद 1856 में एकमुश्त बंदोबस्त के नाम से ब्रिटिश भूराजस्व व्यवस्था लागू कर दी गईं। यह बंदोबस्त इस मान्यता पर आधारित था कि ताल्लुक़दार बिचौलिए थे जिनके पास ज़मीन का मालिकाना नहीं था। उन्होंने बल और धोखाधड़ी के ज़रिए अपना प्रभुत्व स्थापित किया हुआ था। एकमुश्त बंदोबस्त में ताल्लुक़दारों को उनकी ज़मीनों से बेदखल किया जाने लगा। आंकड़ों से पता चलता है कि अंग्रेज़ों के आने से पहले ताल्लुक़दारों के पास अवध के 67 प्रतिशत गाँव थे। एकमुश्त बंदोबस्त के लागू होने के बाद यह संख्या घटकर 38 प्रतिशत रह गई। दक्षिण अवध के ताल्लुक़दारों को सबसे बुरी मार पड़ी। कुछ के तो आधे से ज़्यादा गाँव हाथ से जाते रहे।
ब्रिटिश भूराजस्व अधिकारियों का मानना था कि ताल्लुक़दारों को हटाकर वे ज़मीन असली मालिकों के हाथ में सौंप देंगे जिससे किसानों के शोषण में कमी आएगी और राजस्व वसूली में इजाफ़ा होगा। वास्तव में ऐसा नहीं हुआ। भूराजस्व वसूली में तो इज़ाफ़ा हुआ लेकिन किसानों के बोझ में कमी नहीं आई। अधिकारियों को जल्दी ही समझ में आने लगा कि अवध के बहुत सारे इलाक़े का मूल्य निर्धारण बहुत बढ़ा-चढ़ा कर किया गया था। कुछ स्थानों पर तो राजस्व माँग में 30 से 70 प्रतिशत तक इज़ाफ़ा हो गया था। यानी न तो ताल्लुक़दारों के पास और न ही काश्तकारों के पास इस अधिग्रहण पर खुशी जताने का कोई कारण था।
ताल्लुक़दारों की सत्ता छिनने का नतीजा यह हुआ कि एक पूरी सामाजिक व्यवस्था भंग हो गई। निष्ठा और संरक्षण के जिन बंधनों से किसान ताल्लुक़दारों के साथ बँधे हुए थे वे अस्त-व्यस्त हो गए। अंग्रेज़ों से पहले ताल्लुक़॒दार ही जनता का उत्पीड़न करते थे लेकिन जनता की नज़र में बहुत सारे ताल्लुक़दार दयालु अभिभावक की छवि भी रखते थे। वे किसानों से तरह-तरह के मद में पैसा तो वसूलते थे लेकिन बुरे वक़्त में किसानों की मदद भी करते थे। अब अंग्रेज़ों के राज में किसान मनमाने राजस्व आकलन और गैर लचीली राजस्व व्यवस्था के तहत बुरी तरह पिसने लगे थे। अब इस बात की कोई गारंटी नहीं थी कि कठिन वक़्त में या फ़लल खराब हो जाने पर सरकार राजस्व माँग में कोई कमी करेगी या वसूली को कुछ समय के लिए टाल दिया जाएगा। ना ही किसानों को इस बात कौ उम्मीद थी कि तीज-त्यौहारों पर कोई क़र्जा और मदद मिल पाएगी जो पहले ताल्लुक़दारों से मिल जाती थी।
अवध जैसे जिन इलाकों में 1857 के दौरान प्रतिरोध बेहद सघन और लंबा चला था वहाँ लड़ाई की बागडोर असल में ताल्लुक़दारों और उनके किसानों के ही हाथों में थी। बहुत सारे ताल्लुक़दार अवध के नवाब के प्रति निष्ठा रखते थे इसलिए वे अंग्रेज़ों से लोहा लेने के लिए लखनऊ जाकर बेगम हज़रत महल (नवाब की पली) के खेमे में शामिल हो गए। उनमें से कुछ तो बेगम की पराजय के बाद भी उनके साथ डटे रहे।
किसानों का असंतोष अब फ़ौजी बैरकों में भी पहुँचने लगा था क्योंकि बहुत सारे किसान अवध के गाँवों से ही भर्ती किए गए थे। दशकों से सिपाही कम वेतन और वक़्त पर छुट्री न मिलने के कारण असंतुष्ट थे। 1850 के दशक तक आते-आते उनके असंतोष के कई नए कारण पैदा हो चुके थे।
1857 के जनविद्रोह से पहले के सालों में सिपाहियों के अपने गोरे अफ़सरों के साथ रिश्ते काफ़ी बदल चुके थे। 1820 के दशक में अंग्रेज अफ़सर सिपाहियों के साथ दोस्ताना ताल्लुक्रात रखने पर खासा ज़ोर देते थे। वे उनकी मौजमस्ती में शामिल होते थे, उनके साथ मल्ल-युद्ध करते थे, उनके साथ तलवारबाज़ी करते थे और उनके साथ शिकार पर जाते थे। उनमें से बहुत सारे तो बखूबी हिंदुस्तानी बोलना जानते थे और यहाँ के रीति-रिवाजों व संस्कृति से वाकिफ़ थे। उनमें अफ़सर की कड़क और अभिवावक का स्नेह, दोनों निहित थे।
1840 के दशक में स्थिति बदलने लगी। अफ़ससों में श्रेष्ठठा का भाव पैदा होने लगा और वे सिपाहियों को कमतर नस्ल का मानने लगे। वे उनकी भावनाओं की ज़रा-सी भी फ़िक्र नहीं करते थे। गाली-गलौज और शारीरिक हिंसा सामान्य बात बन गई। सिपाहियों व अफ़सरों के बीच फ़ासला बढ़ता गया। भरोसे की जगह संदेह ने ले ली। चिकनाई युक्त कारतूसों की घटना इसका एक बढ़िया उदाहरण थी।
यह भी याद रखना महत्त्वपूर्ण है कि उत्तर भारत में सिपाहियों और ग्रामीण जगत के बीच गहरे संबंध थे। बंगाल आर्मी के सिपाहियों में से बहुत सारे अवध और पूर्वी उत्तर प्रदेश के गाँवों से भर्ती होकर आए थे। उनमें से बहुत सारे ब्राह्मण या “ऊँची जाति” के थे। बल्कि अवध को तो “बंगाल आर्मी कौ पौधशाला” कहा जाता था। सिपाहियों के परिवार अपने इर्द-रगिंद जिन बदलावों को देख रहे थे और उन्हें जो ख़तरे दिखाई दे रहे थे वे जल्दी ही सिपाही लाइनों में भी दिखाई देने लगे। दूसरी ओर, कारतूसों के बारे में सिपाहियों का भय, छुट्टियों के बारे में उनकी शिकायतें, बढ़ते दुर्ूग्ययहार और नस्ली गाली गलौज के प्रति बढ़ता असंतोष गाँवों में भी प्रतिबिंबित होने लगा था।
सिपाहियों और ग्रामीण जगत के बीच मौजूद इन संबंधों से जनविद्रोह के रूप-रंग पर गहरा असर पड़ा। जब सिपाही अपने अफ़सरों की अवज्ञा करते थे और हथियार उठाते थे तो फ़ौरन ही गाँवों में उनके भाई-बिरादर भी उनके साथ आ जुटते थे। हर कहीं किसान शहाों में पहुँचकर सिपाहियों और शहर के आम लोगों के साथ जुड़ कर विद्रोह के सामूहिक कृत्य में शामिल हो रहे थे।
3. विद्रोही क्या चाहते थे?
बतौर विजेता कठिनाइयों, चुनौतियों और बहादुरी के बारे में अंग्रेजों की अपनी राय थी। वे विद्रोहियों को अहसानफ़रामोश और बर्बर लोगों का झुंड मानते थे। विद्रोहियों को कुचलने का एक मतलब यह भी था कि उनकी आवाज़ को दबा दिया जाए। कुछ विद्रोहियों को ही इस घटनाक्रम के बारे में अपनी बात दर्ज करने का मौका मिला। यूँ भी विद्रोहियों में ज़्यादातर सिपाही और आम लोग थे जो पढ़े लिखे नहीं थे। इस प्रकार, अपने विचारों का प्रसार करने और लोगों को विद्रोह में शामिल करने के लिए जारी की गई कुछ घोषणाओं व इश्तहारों के सिवाय हमारे पास ऐसी ज़्यादा चीजें नहीं हैं जिनकी बिना पर हम विद्रोहियों के नज़रिए को समझ सकें। इसीलिए,
1857 में जो कुछ हुआ, उसे रचने के लिए इतिहासकारों की कोशिशों को बहुत हद तक, और मजबूरन, अंग्रेज़ों के दस्तावेजों पर निर्भर रहना पड़ता है। विडबना यह है कि इन स्रोतों से अंग्रेज अफ़सरों की सोच का तो पता चलता है लेकिन इस बारे में ज़्यादा सुराग नहीं मिल पाता कि विद्रोही क्या चाहते थे।
3.1 एकता की कल्पना
1857 में विद्रोहियों द्वारा जारी की गई घोषणाओं में, जाति और धर्म का भेद किए बिना, समाज के सभी तबकों का आहवान किया जाता था। बहुत सारी घोषणाएँ मुस्लिम राजकुमारों या नवाबों की तरफ़ से या उनके नाम पर जारी की गई थीं। परंतु उनमें भी हिंदुओं की भावनाओं का ख़याल रखा जाता था। इस विद्रोह को एक ऐसे युद्ध के रूप में पेश किया जा रहा था जिसमें हिंदुओं और मुसलमानों, दोनों का नफ़ा-नुकसान बराबर था। इश्तहारों में अंग्रेजों से पहले के हिंदू मुस्लिम अतीत की ओर संकेत किया जाता था और मुगल साम्राज्य के तहत विभिन्न समुदायों के सहअस्तित्व का गौरवगान किया जाता था। बहादुर शाह के नाम से जारी की गई घोषणा में मुहम्मर और महावीर, दोनों की दुहाई देते हुए जनता से इस लड़ाई में शामिल होने का आहवान किया गया। दिलचस्प बात यह है कि आंदोलन में हिंदू और मुसलमानों के बीच खाई पैदा करने की अंग्रेजों द्वारा की गई कोशिशों के बावजूद ऐसा कोई फ़र्क् नहीं दिखाई दिया। अंग्रेज़ शासन ने दिसंबर 1857 में पश्चिमी उत्तर प्रदेश स्थित बरेली के हिंदुओं को मुसलमानों के ख़िलाफ़ भड़काने के लिए 50/000 रुपये खर्च किए। उनकी यह कोशिश नाकामयाब रही।
3.2 उत्पीड़न के प्रतीकों के ख़िलाफ़
इन घोषणाओं में ब्रिटिश राज (जिसे विद्रोही फ़िरंगी राज कहते थे) से संबंधित हर चीज़ को पूरी तरह खारिज किया जा रहा था। देशी रियासतों पर क़ब्ज़े और समझौतों का उल्लंघन करने के लिए अंग्रेजों की निंदा की जाती थी। विद्रोही नेताओं का कहना था कि अंग्रेजों पर भरोसा नहीं किया जा सकता।
लोगों को इस बात पर गुस्सा था कि ब्रिटिश भूराजस्व व्यवस्था ने बड़े-छोटे भुस्वामियों को ज़मीन से बेदख़ल कर दिया था और विदेशी व्यापार ने दस्तकारों और बुनकरों को तबाह कर डाला था। ब्रिटिश शासन के हर पहलू पर निशाना साधा जाता था। फ़िरंगियों पर स्थापित और सुंदर जीवन-शैली को नष्ट करने का आरोप लगाया जाता था। विद्रोही अपनी उस दुनिया को दोबारा बहाल करना चाहते थे।
विद्रोही उद्घोषणाएँ इस व्यापक डर को व्यक्त करती थीं कि अंग्रेज, हिंदुओं और मुसलमानों की जाति और धर्म को नष्ट करने पर तुले हैं और वे लोगों को ईसाई बनाना चाहते हैं। इसी डर की वजह से लोग चल रही अफ़वाहों पर भरोसा करने लगे। लोगों को प्रेरित किया गया की वे इकट्टे मिलकर अपने रोज़गार, धर्म, इज्जत और अस्मिता के लिए लडें। यह “व्यापक सार्वजनिक भलाई' की लड़ाई होगी।
जैसा कि हम देख चुके हैं, बहुत सारे स्थानों पर अंग्रेजों के ख़िलाफ़ विद्रोह उन तमाम ताकतों के विरुद्ध हमले की शक्ल ले लेता था जिनको अंग्रेजों के हिमायती या जनता का उत्पीड़क समझा जाता था। कई दफ़ा विद्रोही शहर के संभ्रांत को जान-बूझकर बेइज़्ज़त करते थे। गाँवों में उन्होंने सूदखोरों के बहीखाते जला दिए और उनके घर तोड़फोड़ डाले। इससे पता चलता है कि विद्रोही त्रमाम उत्पीड़कों के ख़िलाफ़ थे और परंपरागत सोपानों (ऊँच-नीच) को ख़त्म करना चाहते थे। इसमें हमें एक वैकल्पिक दृष्टि, संभवत: एक ज़्यादा समतापरक समाज की कल्पना दिखाई देती है। पर, यह सोच उनकी घोषणाओं में नहीं दिखाई देती। उनमें तो फ़िरंगी राज के ख़िलाफ़ तमाम सामाजिक समूहों को एकजुट करने का ही आह्वान किया जाता था।
3.3 वैकल्पिक सत्ता की तलाश
ब्रिटिश शासन ध्वस्त हो जाने के बाद दिल्ली, लखनऊ और कानपुर जैसे स्थानों पर विद्रोहियों ने एक प्रकार की सत्ता और शासन संरचना स्थापित करने का प्रयास किया। बेशक यह प्रयोग ज़्यादा समय तक नहीं चला लेकिन इन कोशिशों से पता चलता है कि विद्रोही नेता अठारहवीं सदी की पूर्व-ब्रिटिश दुनिया को पुनर्स्थापित करना चाहते थे। इन नेताओं ने पुरानी दरबारी संस्कृति का सहारा लिया। विभिन्न पदों पर नियुक्तियाँ की गईं। भूराजस्व वसूली और सैनिकों के वेतन के भुगतान का इंतज़ाम किया गया। लूटपाट बंद करने के लिए हुक््मनामे जारी किए गए। इसके साथ-साथ अंग्रेजों के ख़िलाफ़ युद्ध जारी रखने की योजनाएँ भी बनाई गई। सेना की कमान श्रृंखला तय की गई। इन सारे प्रयासों में विद्रोही अठारहवीं सदी के मुगल जगत से ही प्रेरणा ले रहे थे - यह जगत उन तमाम चीज़ों का प्रतीक बन गया जो उनसे छिन चुकी थीं।
विद्रोहियों द्वारा स्थापित शासन संरचना का प्राथमिक उद्देश्य युद्ध की ज़रूरतों को पूरा करना था। लेकिन ज़्यादातर मामलों में ये संरचनाएँ अंग्रेजों की मार बरदाश्त नहीं कर पाईं। अवध में अंग्रेजों के ख़िलाफ़ प्रतिरोध सबसे लंबा चला। वहाँ लखनऊ दरबार द्वारा जवाबी हमले की योजनाएँ बनाई जा रही थीं और 1857 के आखिर तथा 1858 के शुरुआती महीनों तक हुकुम कौ श्रेणियाँ वजूद में थीं।
4. दमन
1857 के बारे में हमारे पास जो भी विवरण मौजूद हैं उनसे यह साफ़ हो जाता है कि इस विद्रोह को कुचलना अंग्रेजों के लिए बहुत आसान साबित नहीं हुआ।
उत्तर भारत को दोबारा जीतने के लिए टुकडियों को रवाना करने से पहले अंग्रेजों ने उपद्रव शांत करने के लिए फ़ौजियों की आसानी के लिए कई क़ानून पारित कर दिए थे। मई और जून 1857 में पारित किए गए कई क़ानूनों के ज़रिए न केवल समूचे उत्तर भारत में मार्शल लॉ लागू कर दिया गया बल्कि फ़ौजी अफ़सरों और यहाँ तक कि आम अंग्रेज़ों को भी ऐसे हिंदुस्तानियों पर मुक़दमा चलाने और उनको सज्ञा देने का अधिकार दे दिया गया जिन पर विद्रोह में शामिल होने का शक था। कहने का मतलब यह है कि क़ानून और मुकदमें की सामान्य प्रक्रिया रद कर दी गई थी और यह स्पष्ट कर दिया गया था कि विद्रोह की केवल एक ही सज़ा हो सकती है - सज्ञा-ए मौत।
इन नए विशेष क़ानूनों और ब्रिटेन से मैँगाई गई नयी टुकड़ियों से लैस अंग्रेज सरकार ने विद्रोह को कुचलने का काम शुरू कर दिया। विद्रोहियों की तरह वे भी दिल्ली के सांकेतिक महत्त्व को बखूबी समझते थे। लिहाजा, उन्होंने दोतरफ़ा हमला बोल दिया। एक तरफ़ कलककत्ते से, दूसरी तरफ़ पंजाब से दिल्ली की तरफ़ कूच हुआ हालांकि पंजाब कमोबेश शांत था। दिल्ली को क़ब्ज़े में लेने को अंग्रेजों की कोशिश जून 1857 में बड़े पैमाने पर शुरू हुई लेकिन यह मुहिम सितंबर के आखिर में जाकर पूरी हो पाई। दोनों तरफ़ से जमकर हमले किए गए और दोनों पक्षों को भारी नुकसान उठाना पड़ा। इसकी एक वजह ये थी कि पूरे उत्तर भारत के विद्रोही राजधानी को बचाने के लिए दिल्ली में आ जमे थे।
गंगा के मैदान में भी अंग्रेजों की बढ़त का सिलसिला धीमा रहा। अंग्रेज़ टुकडियों को हर इलाक़ा गाँव-दर-गाँव जीतना था। आम देहाती जनता और आस-पास के लोग उनके ख़िलाफ़ थे। जैसे ही उन्होंने अपनी उपद्रव-विरोधी कार्रवाई शुरू की, अंग्रेजों को अहसास हो गया कि उनका सामना सिर्फ़ सैनिक विद्रोह से नहीं है, वे ऐसे आंदोलन से जूझ रहे हैं जिसके पीछे बेहिसाब जन-समर्थन मौजूद है। उदाहरण के लिए, अवध में फॉरसिथ नाम के एक अंग्रेज अफ़सर का अनुमान था कि कम से कम तीन-चौथाई वयस्क पुरुष आबादी विद्रोह में शामिल थी। इस इलाक़े को लंबी लड़ाई के बाद मार्च 1858 में जाकर ही अंग्रेज़ दोबारा अपने नियंत्रण में ले पाए।
अंग्रेज़ों ने सैनिक ताकत का भयानक पैमाने पर इस्तेमाल किया। लेकिन यह उनका एकमात्र हथियार नहीं था। वर्तमान उत्तर प्रदेश के एक विशाल भू-भाग में बड़े भूस्वामियों और काश्तकारों ने मिलकर अंग्रेज़ों का विरोध किया था। अंग्रेजों ने इस एकता को तोड़ने के लिए
बड़े ज़मींदारों को आश्वासन दिया कि उन्हें उनकी जागीरें लौंग दी जाएँगी। विद्रोह का रास्ता अपनाने वाले ज़मींदारों को ज़मीन से बेदख़ल कर दिया गया और जो वफ़ादार थे उन्हें ईनाम दिए गए। बहुत सारे ज़मींदार या तो अंग्रेजों से लड़ते-लड़ते मारे गए या भागकर नेपाल चले गए जहाँ उन्होंने बीमारी व भूख से दम तोड़ दिया।
5. विद्रोह की छवियाँ
हम इस विद्रोह, विद्रोहियों की गतिविधियों और उन पर किए गए दमन के तरीकों के बारे में किस तरह जान सकते हैं?
जैसा कि हम पीछे देख चुके हैं, विद्रोहियों की सोच के बारे में हमारे पास बहुत कम दस्तावेज्ञ मौजूद हैं। हमारे पास विद्रोहियों की कुछ घोषणाएँ, अधिसूचनाएँ तथा नेताओं के पत्र हैं। लेकिन अब तक ज़्यादातर इतिहासकार अंग्रेज्ञों द्वारा लिखे गए दस्तावेज्ञों की रोशनी में ही विद्रोहियों की कार्रवाइयों पर चर्चा करते आ रहे हैं।
यह तो है ही कि इस बारे में सरकारी ब्योरों की कमी नहीं है औपनिवेशिक प्रशासक और फ़ौजी अपनी चिट्टियों, डायरियों, आत्मकथाओं और सरकारी इतिहासों में अपने-अपने ब्योरे दर्ज कर गए हैं। असंख्य मेमों और नोट्स, परिस्थितियों के आकलन एवं विभिन्न रिपोर्टों के ज़रिए भी हम सरकारी सोच और अंग्रेजों के बदलते रवैये को समझ सकते हैं। आज इनमें से बहुत सारे दस्तावेजों को सैनिक विद्रोह रिकॉर्ड्स पर केंद्रित खंडों में संकलित किया जा चुका है। ये दस्तावेज़ हमें अफ़सरों के भीतर मौजूद भय और बैचेनी तथा विद्रोहियों के बारे में उनकी सोच का पता देते हैं। ब्रिटिश अख़बारों और पत्रिकाओं में इस विद्रोह की जो कहानियाँ छपी उनमें सैनिक विद्रोहियों द्वारा की गई हिंसा को बड़े लोमहर्षक शब्दों में छापा जाता था। ये कहानियाँ जनता की भावनाओं को भड़काती थीं तथा प्रतिशोध और सबक सिखाने की माँगों को हवा देती थीं।
अंग्रेजों और भारतीयों द्वारा तैयार की गई तसवीरें सैनिक विद्रोह का एक महत्त्वपूर्ण रिकॉर्ड रही हैं। इस विद्रोह के बारे में कई चित्र, पेंसिल से बने रेखांकन, उत्कीर्ण चित्र, पोस्टर, कार्टून, और बाज़ार-प्रिंट उपलब्ध हैं। आइए, उनमें से कुछ को देखें और जाने कि वे हमें क्या बताते हैं।
5.1 रक्षकों का अभिनंदन
अंग्रेजों द्वारा बनाई तसवीरों को देखने पर तरह-तरह की भावनाएँ और प्रतिक्रियाएँ पैदा होती हैं। उनमें से कुछ में अंग्रेजों को बचाने और विद्रोहियों को कुचलने वाले अंग्रेज़ नायकों का गुणगान किया गया है। 1859 में टॉमस जोन्स बार्कर द्वारा बनाया गया चित्र 'रिलीफ़ ऑफ़ लखनऊ' (लखनऊ की राहत) इसी श्रेणी का एक उदाहरण है। जब विद्रोही टुकड़ियों ने लखनऊ पर घेरा डाल दिया तो लखनऊ के कमिश्नर हेनरी लॉरेंस ने ईसाइयों को इकट्ठा किया और बेहद सुरक्षित रेज़ीडेंसी में पनाह ले ली। बाद में लॉरेंस तो मारा गया किंतु कर्नल इंगलिस के नेतृत्व में रेज़ीडेंसी सुरक्षित रहा। 25 सितंबर को जेम्स ऑट्रम और हेनरी हेवलॉक वहाँ पहुँचे, उन्होंने विद्रोहियों को तितर-बितर कर दिया और ब्रिटिश टुकडियों को नयी मजबूती दी। 20 दिन बाद भारत में ब्रिटिश टुकडियों का नया कमांडर कॉलिन कैम्पबेल भारी तादाद में सेना लेकर वहाँ पहुँचा और उसने ब्रिटिश रक्षकसेना को घेरे से छुड़ाया। अंग्रेजों के बयानों में लखनऊ की घेरेबंदी उत्तरजीविता, बहादुराना प्रतिरोध और ब्रिटिश सत्ता की निर्विवाद विजय की कहानी बन गई।
बार्कर की पेंटिंग कैम्पबेल के आगमन के क्षण का जश्न मनाती है। कैन्वस के मध्य में कैम्पबेल, ऑट्रम और हेवलॉक, इन तीन ब्रिटिश नायकों की छवियाँ हैं। उनके इर्द गिर्द खड़े लोगों के हाथों को देखने पर दर्शक की निगाह चित्र के मध्य भाग की तरफ़ चली जाती है। ये नायक एक ऐसे स्थान पर खडे हैं जहाँ काफ़ी उजाला है, जिनके अगले हिस्से में परछाईं है और पिछली तरफ़ टूय-फूय रेज़ीडेंसी दिखाई देता है। चित्र के अगले भाग में पड़े शव और घायल इस घेरेबंदी के दौरान हुई मारकाट की गवाही देते हैं जबकि मध्य भाग में घोड़ों की विजयी तसदीरें इस तथ्य पर जोर देती हैं कि अब ब्रिटिश सत्ता और नियंत्रण बहाल हो चुका है। इस तरह के चित्रों से अंग्रेज जनता में अपनी सरकार के प्रति भरोसा पैदा होता था। इन चित्रों से उन्हें यह लगता था कि संकट की घड़ी जा चुकी है और विद्रोह ख़त्म हो चुका है : अंग्रेज़ जीत चुके हैं।
5.2 अंग्रेज़ औरतें तथा ब्रिटेन की प्रतिष्ठा
अख़बारों में छपी ख़बरों का जनता की कल्पना और मनोदशा पर भारी असर होता है। वे घटनाओं के बारे में लोगों की भावनाओं और सोच को तय करती हैं। भारत में औरतों और बच्चों के साथ हुई हिंसा की कहानियों को पढ़कर ब्रिटेन की जनता प्रतिशोध और सबक सिखाने की माँग करने लगी। अंग्रेज़ अपनी सरकार से मासूम औरतों की इज्जत बचाने और निस्सहाय बच्चों को सुरक्षा प्रदान करने की माँग करने लगे। कलाकारों ने सदमे और पीड़ा की अपनी चित्रात्मक अभिव्यक्तियों के ज़रिये इन भावनाओं को आकार प्रदान किया।
जोज़ेफ़ नोएल पेटन ने सैनिक विद्रोह के दो साल बाद “इन मेमोरियम” ('स्मृति में', चित्र 11.11) बनाई। इस चित्र में अंग्रेज औरतें और बच्चे एक घेरे में एक-दूसरे से लिपटे दिखाई देते हैं। वे लाचार और मासूम दिख रहे हैं, मानो एक भयानक घड़ी की आंशका में हैं।
वे अपनी बेइज़्ज़ती, हिंसा और मृत्यु का इंतज़ार कर रहे हैं। “इन मेमोरियम” में भीषण हिंसा नहीं दिखती : ठसकी तरफ़ सिर्फ़ एक इशारा है। यह दर्शक की कल्पना को झिंझोड़ती है और उसमें गुस्से और बेचेनी का भाव पैदा करती है। इसमें विद्रोहियों को हिंसक और बर्बर बताया गया है हलांकि वे चित्र में अदृश्य हैं। पृष्ठभूमि में आप ब्रिटिश टुकडियों को रक्षक के तौर पर आगे बढ़ते देख सकते हैं।
कुछ अन्य रेखाचित्रों व पेंटिंग्स में हमें औरतें अलग तेवर में दिखाई देती हैं। इनमें वे विद्रोहियों के हमले से अपना बचाव करती हुईं नज़र आती हैं। उन्हें बीरता की मूर्ति के रूप में दर्शाया गया है। चित्र 11.12 में मिस व्हीलर मध्य में दृढ़तापूर्वक खड़ी है। वह अकेले ही विद्रोहियों को मौत की नींद सुलाते हुए अपनी इज़्ज़त की रक्षा करती है। तमाम ब्रिटिश चित्रों की तरह यहाँ भी विद्रोहियों को दानवों के रूप में दर्शाया गया है। यहाँ चार कद्दवर आदमी हाथों में तलवारें और बंदूक लिये एक अकेली औरत के ऊपर हमला कर रहे हैं। यहाँ इज़्ज़त और ज़िंदगी की रक्षा के लिए औरत के संघर्ष की आड़ में दरअसल एक गहरे धार्मिक विचार को प्रस्तुत किया गया है - यह ईसाइयत की रक्षा का संघर्ष है। चित्र में धरती पर पड़ी किताब बाइबल है।
5.3 प्रतिशोध और सबक
जैसे जैसे ब्रिटेन में गुस्से और सकते का माहौल बनता गया, बदले की माँग बुलंद होती गई। विद्रोह के बारे में प्रकाशित चित्रों एवं ख़बरों ने ऐसा माहौल रच दिया जिसमें हिंसक दमन और प्रतिशोध को लाज़िमी और वाजिब माना जाने लगा। माहौल ऐसा था मानो न्याय के मूल्यों की रक्षा के लिए ब्रिटिश प्रतिष्ठा और सत्ता को दी जा रही चुनौती को निर्ममता से कुचलना ज़रूरी था। विद्रोह से आतंकित अंग्रेजों को लगता था कि उन्हें अपनी अपराजयता का प्रदर्शन करना ही चाहिए। ऐसी ही एक तसवीर (चित्र 11.13) में हमें न््याय की एक रूपकात्मक स्त्री छवि दिखाई देती है जिसके एक हाथ में तलवार और दूसरे हाथ में ढाल है। उसकी मुद्रा आक्रामक है : उसके चेहरे पर भयानक गुस्सा और बदला लेने की तड़प दिखाई देती है। वह सिपाहियों को अपने पैरों तले कुचल रही है जबकि भारतीय औरतों और बच्चों की भीड़ भय से काँप रही है।
इनके अलावा भी ब्रिटिश प्रेस में असंख्य दूसरी तसवीरें और कार्टून थे जो निर्मम दमन और हिंसक प्रतिशोध की ज़रूरत पर ज़ोर दे रहे थे।
5.4 दहशत का प्रदर्शन
प्रतिशोध और सबक़ सिखाने की चाह इस बात में भी प्रतिबिम्बित होती है कि विद्रोहियों को कितने निर्मम ढंग से मौत के घाट उतारा गया। उन्हें तोपों के मुहाने पर बाँधकर उड़ा दिया गया या फ़ाँसी पर लटका दिया। इन सज्ञाओं की तसवीरें आम पत्र-पत्रिकाओं के ज़रिये दूर-दूर तक पहुँच रही थीं।
5.5 दया के लिए कोई जगह नहाँ
जब प्रतिशोध के लिए ही शोर मच रहा हो, ऐसे समय पर नर्म सुझाव मज़ाक का पात्र बन कर ही रह जाते हैं। जब गवर्नर-जनरल कैनिंग ने ऐलान किया कि नर्मी और दया भाव से सिपाहियों की वफ़ादारी हासिल करने में मदद मिलेगी तो ब्रिटिश प्रेस में उसका मज़ाक उड़ाया गया।
हास्यपरक व्यंग्य की ब्रिटिश पत्रिका पन्च के पन्नों में प्रकाशित एक कार्टून में कैनिंग को एक भव्य नेक बुजुर्ग के रूप में दर्शाया गया। उसका हाथ एक सिपाही के सिर पर है जो अभी भी नंगी तलवार और कटार लिए हुए है और दोनों से खून टपक रहा है (चित्र 11.17)। यह एक ऐसी छवि थी जो उस समय की बहुत सारी ब्रिटिश तसवीरों में बार-बार सामने आती थी।
5.6 राष्ट्रवादी दृश्य कल्पना
बीसवीं सदी में राष्ट्रवादी आंदोलन को 1857 के घटनाक्रम से प्रेरणा मिल रही थी। इस विद्रोह के इर्द-गिर्द राष्ट्रवादी कल्पना का एक विस्तृत दृश्य जगत बुन दिया गया था। इसको प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के रूप में याद किया जाता था जिसमें देश के हर तबके के लोगों ने साम्राज्यवादी शासन के छख्िलाफ़ मिलकर लड़ाई लड़ी थी।
इतिहास लेखन की तरह कला और साहित्य ने भी 1857 की स्मृति को जीवित रखने में योगदान दिया। विद्रोह के नेताओं को ऐसे नायकों के रूप में पेश किया जाता था जो देश को रणस्थल की तरफ़ ले जा रहे हैं। उन्हें लोगों को दमनकारी साप्राज्यवादी शासन के ख़िलाफ़ उत्तेजित करते चित्रित किया जाता था। एक हाथ में घोड़े की रास और दूसरे हाथ में तलवार थामे अपनी मातृभूमि की मुक्ति के लिए लड़ाई लड़ने वाली रानी के शौर्य का गौरवगान करते हुए कविताएँ लिखी गईं। रानी झाँसी को एक ऐसी मर्दाना शख््सियत के रूप में चित्रित किया जाता था जो दुश्मनों का पीछा करते हुए और ब्रिटिश सिपाहियों को मौत की नींद सुलाते हुए आगे बढ़ रही है। देश के विभिन्न भागों में बच्चे सुभद्रा कुमारी चौहान की इन पंक्तियों को पढ़ते हुए बड़े हो रहे थे : “खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रात थी।” लोक छवियों में रानी लक्ष्मीबाई को प्राय: फ़ौजी पोशाक में घोड़े पर सवार और एक हाथ में तलवार लिए दिखाया जाता है अन्याय और विदेशी शासन के दृढ़ प्रतिरोध का प्रतीक।
इन तसवीरों से पता चलता है कि उन्हें बनाने वाले चित्रकार इन घटनाओं को कैसे देखते थे, उनके अहसास क्या थे और वे क्या कहना चाहते थे। इन चित्रों और कार्टूनों के माध्यम से हम उस जनता के बारे में जान सकते हैं जो उन चित्रों की तारीफ़ या आलोचना करती थी, उनकी नक़लों को ख़रीद कर घरों में सजाती थी।
ये तस्वीरें केवल अपने समय की भावनाओं और अहसासों को ही प्रतिबंबित नहीं कर रही थीं। उन्होंने संवेदरनाओं को भी शक्ल दी। ब्रिटेन में छप रहे चित्रों से उत्तेजित वहाँ की जनता विद्रोहियों को भयानक बर्बरता के साथ कुचल डालने के लिए आवाज़ उठा रही थी। दूसरी तरफ़ भारतीय राष्ट्रवादी चित्र हमारी राष्ट्रवादी कल्पना को निर्धारित करने में मदद कर रहे थे।
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