शुक्रवार, 21 दिसंबर 2018

मुग़ल दरबार व उनकी प्रशासनिक व्यवस्था

मुगल शासक और उनका साप्राज्य

मुग़ल नाम मंगोल से व्युत्पनन हुआ है। यद्यपि आज यह नाम एक साम्राज्य की भव्यता का अहसास कराता हे लेकिन राजवंश के शासकों ने स्वयं के लिए यह नाम नहीं चुना था। उन्होंने अपने को तैमूरी कहा क्योंकि पितृपक्ष से वे तुर्की शासक तिमूर के वंशज थे। पहला मुग़ल शासक बाबर मातृपक्ष से चंगेज़ खाँ का संबधी था। वह तुर्की बोलता था और उसने मंगोलों का उपहास करते हुए उन्हें बर्बर गिरोह के रूप में उल्लिखित किया है।

सोलहवीं शताब्दी के दौरान यूरोपियों ने परिवार की इस शाखा के भारतीय शासकों का वर्णन करने के लिए मुगल शब्द का प्रयोग किया। सोलहवीं शताब्दी से ही इस शब्द का निरंतर प्रयोग होता रहा है। यहाँ तक कि रडयार्ड किपलिंग की ज्यल बुक के युवा नायक मोगली का नाम भी इससे व्युत्पन्न हुआ है।

मुग़लों व स्थानीय सरदारों के बीच राजनीतिक -मैत्रियों के ज़रिए तथा विजयों के ज़रिए भारत के विविध क्षेत्रीय राज्यों को मिलाकर साम्राज्य की रचना की गई। साम्राज्य के संस्थापक जहीरुद्दीन बाबर को उसके मध्य एशियाई स्वदेश फरगाना से प्रतिद्वंद्वी उज्ञबेकों ने भगा दिया था। उसने सबसे पहले स्वयं को काबुल में स्थापित किया और फिर 1526 में अपने दल के सदस्यों की आवश्यकताएँ पूरी करने के लिए क्षेत्रों और संसाधनों की खोज में वह भारतीय उपमहाद्वीप में और आगे की ओर बढ़ा।

इसके उत्तराधिकारी नसीरुद्दीन हुमायूँ (1530-40, 1555-56) ने साम्राज्य की सीमाओं में विस्तार किया किंतु वह अफ़गान नेता शेरशाह सूर से पराजित हो गया जिसने उसे ईरान के सफ़ावी शासक के दरबार में निर्वासित होने को बाध्य कर दिया। 1555 में हुमायूँ ने सूरों को पराजित कर दिया किंतु एक वर्ष बाद ही उसकी मृत्यु हो गई।

कई लोग जलालुद्दीन अकबर (1556-1605) को मुग़ल बादशाहों में महानतम मानते हैं क्योंकि उसने न केवल अपने साम्राज्य का विस्तार ही किया बल्कि इसे अपने समय का विशालतम, दुढ़ुतम और सबसे समृद्ध राज्य बनाकर सुदृढ़ भी किया। अकबर हिंदुकुश पर्वत तक अपने साम्राज्य की सीमाओं के विस्तार में सफल हुआ और उसने ईरान के सफ़ावियों और तूरान (मध्य एशिया) के उज़बेकों की विस्तारवादी योजनाओं पर लगाम लगाए रखी। अकबर के बाद जहांगीर (1605-27) , शाहजहाँ (1628-58) और औरंगज्ञेब (1658-1707) के रूप में भिन्‍न-भिन्‍न व्यक्तित्वों वाले तीन बहुत योग्य उत्तराधिकारी हुए। इनके अधीन क्षेत्रीय विस्तार जारी रहा यद्यपि इसकी गति काफ़ी धीमी रही। तीनों शासकों ने शासन के विविध यंत्रों को बनाए रखा ओर उन्हें सुदृढ़ किया।

सोलहवीं और सत्रहरवी शताब्दियों के दौरान शाही संस्थाओं के ढाँचे का निर्माण हुआ। इनके अंतर्गत प्रशासन और कराधान के प्रभावशाली तरीके शामिल थे। मुग़ल शक्ति का सुस्पष्ट केंद्र दरबार था। यहाँ राजनीतिक संबंध गढ़े जाते थे, साथ ही श्रेणियाँ और हैसियतें परिभाषित की जाती थीं। मुग़लों द्वारा शुरू की गई राजनीतिक व्यवस्था सैन्य शक्ति और उपमहाद्वीप की भिन्‍न-भिन्‍न परंपराओं को समायोजित करने की चेतन नीति के संयोजन पर आधारित थी।

1707 के बाद औरंगज़ेब की मृत्योपरांत राजवंश की शक्ति घट गई। दिल्‍ली, आगरा अथवा लाहौर जैसे भिन्‍न राजधानी नगरों से नियंत्रित एक विशाल साम्राज्य तंत्र की जगह क्षेत्रीय शक्तियों ने अधिक स्वायत्तता अर्जित कर ली। फिर भी सांकेतिक रूप में ही सही पर मुग़ल शासक की प्रतिष्ठा ने अभी अपनी आभा नहीं खोई थी। 1857 में इस वंश के अंतिम वंशज बहादुरशाह ज़फर द्वितीय को अंग्रेज्ञों ने उखाड़ फेंका।

2. इतिवृत्तों की रचना

मुग़ल बादशाहों द्वारा तैयार करवाए गए इतिवृत्त साम्राज्य और उसके दरबार के अध्ययन के महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं। ये इतिवृत्त इस साम्राज्य के अंतर्गत आने वाले सभी लोगों के सामने एक प्रबुद्ध राज्य के दर्शन की प्रायोजना के उद्देश्य से लिखे गए थे। इसी तरह इनका उद्देश्य उन लोगों को, जिन्होंने मुगल शासन का विरोध किया था, यह बताना भी था कि उनके सारे विरोधों का असफल होना नियत है। शासक यह भी सुनिश्चित कर लेना चाहते थे कि भावी पीढ़ियों के लिए उनके शासन का विवरण उपलब्ध रहे।

मुग़ल इतिवृत्तों के लेखक निरपवाद रूप से दरबारी ही रहे। उन्होंने जो इतिहास लिखे उनके केंद्रबिंदु में थीं शासक पर केंद्रित घटनाएं, शासक का परिवार, दरबार व अभिजात, युद्ध और प्रशासनिक व्यवस्थाएं। अकबर, शाहजहाँ और आलमगीर (मुगल शासक औरंगजेब की एक पदवी) की कहानियों पर आधारित इतिवृत्तों के शीर्षक अकबरनामा, शाहजहानामा, आलमगीरनामा यह संकेत करते हैं कि इनके लेखकों की निगाह में साम्राज्य व दरबार का इतिहास और बादशाह का इतिहास एक ही था।

2.1 तुर्की से फ़ारसी की ओर

मुगल दरबारी इतिहास फ़ारसी भाषा में लिखे गए थे। दिल्ली के सुल्तानों के काल में उत्तर भारतीय भाषाओं विशेषकर हिंदवी व इसकी क्षेत्रीय भिन्‍नताओं के साथ फ़ारसी, दरबार और साहित्यिक रचनाओं की भाषा के रूप में, खूब पुष्पित-पल्लवित हुई। चूँकि मुगल चग्रताई मूल के थे अतः तुर्की उनकी मातृभाषा थी। इनके पहले शासक बाबर ने कविताएँ और अपने संस्मरण इसी भाषा में लिखे थे।

अकबर ने सोच-समझकर फ़ारसी को दरबार की मुख्य भाषा बनाया। संभवतया ईरान के साथ सांस्कृतिक और बौद्धिक संपक्कों के साथ-साथ मुग़ल दरबार में पद पाने को इच्छुक ईरानी और मध्य एशियाई प्रवासियों ने बादशाह को इस भाषा को अपनाए जाने के लिए प्रेरित किया होगा। फ़ारसी को दरबार की भाषा का ऊंचा स्थान दिया गया तथा उन लोगों को शक्ति व प्रतिष्ठा प्रदान की गई जिनकी इस भाषा पर अच्छी फ्कड़ थी। राजा, शाही परिवार के लोग और दरबार के विशिष्ट सदस्य यह भाषा बोलते थे। कुछ और आगे यह सभी स्तरों के प्रशासन की भाषा बन गई जिससे लेखाकारों, लिपिकों तथा अन्य अधिकारियों ने भी इसे सीख लिया।

जहाँ जहाँ फ़ारसी प्रत्यक्ष प्रयोग में नहीं थी, वहाँ भी राजस्थानी, मराठी और यहाँ तक कि तमिल में शासकीय लेखों की भाषा को इसकी शब्दावली और मुहावरों ने व्यापक रूप से प्रभावित किया था। चूंकि सोलहवीं और सत्रहवीं शताब्दियों के दौरान फ़ारसी का प्रयोग करने वाले लोग उपमहाद्वीप के कई अलग-अलग क्षेत्रों से आए थे और वे अन्य भारतीय भाषाएं भी बोलते थे अतः स्थानीय मुहावरों को समाविष्ट करने से फ़ारसी का भी भारतीयकरण हो गया था। फ़ारसी के हिंदवी के साथ पारस्परिक संपर्क से उर्दू के रूप में एक नयी भाषा निकल कर आई।

अकबरनामा जैसे मुगल इतिहास फ़ारसी में लिखे गए थे जबकि अन्य जैसे बाबर के संस्मरणों का बाबरनामा के नाम से तुर्की से फ़ारसी में अनुवाद किया गया था। मुगल बादशाहों ने महाभारत और रामायण जैसे संस्कृत ग्रंथों को फ़ारसी में अनुवादित किए जाने का आदेश दिया। महाभारत का अनुवाद रज़्मनामा (युद्धों की पुस्तक) के रूप में हुआ।

2.2 पांडुलिपियों की रचना

मुगल भारत की सभी पुस्तकें पांडुलिफियों के रूप में थीं अर्थात्‌ वे हाथ से लिखी होती थीं। पांडुलिपि रचना का मुख्य केंद्र शाही किताबखाना था। हालाँकि किताबसख़ाना शब्द पुस्तकालय के रूप में अनुवादित किया जा सकता है, यह दरअसल एक लिपिघर था अर्थात ऐसी जगह जहाँ बादशाह की पांद्ुलिपियों का संग्रह रखा जाता तथा नयी पांडुलिपियों की रचना की जाती थी।

पांडुलिपियों की रचना में विविध प्रकार के कार्य करने वाले बहुत लोग शामिल होते थे। कागज बनाने वालों की पांडुलिपि के पन्‍ने तैयार करने, सुलेखकों की पाठ की नकल तैयार करने, कोफ़्तगरों की पृष्ठों को चमकाने के लिए, चित्रकारों की पाठ से दृश्यों को चित्रित करने के लिए और जिल्दसाज़ों की प्रत्येक पन्‍ने को इकट्ठा कर उसे अलंकृत आवरण में बैठने के लिए. आवश्यकता होती थी। तैयार पांडुलिपि को एक बहुमूल्य वस्तु, बोद्धिक संपदा और सौंदर्य के कार्य के रूप में देखा जाता था। इस तरह के सौंदर्य को अस्तित्व में लाकर इन पांडुलिपियों के संरक्षक मुग़ल बादशाह अपनी शक्ति को दर्शा रहे थे।

इसी तरह इन पांडुलिपियों की वास्तविक रचना में शामिल कुछ लोगों को भी पदवियों ओर पुरस्कारों के रूप में पहचान मिली। इनमें सुलेखकों और चित्रकारों को तो उच्च सामाजिक प्रतिष्ठा मिली जबकि अन्य, जैसे कागज़ बनाने वाले अथवा जिल्दसाज़ गुमनाम कारीगर ही रह गए।

सुलेखन अर्थात्‌ हाथ से लिखने की कला अत्यंत महत्त्वपूर्ण कौशल मानी जाती थी। इसका प्रयोग भिन्न-भिन्न शैलियों में होता था। नस्तलिक अकबर की पसंदीदा शैली थी। यह एक ऐसी तरल शैली थी जिसे लंबे सपाट प्रवाही ढंग से लिखा जाता था। इसे 5 से 10 मिलीमीटर की नोक वाले छंटे हुए सरकंडे, जिसे कलम कहा जाता है, के टुकड़े से स्याही में डुबोकर लिखा जाता है। सामान्यतया कलम की नोक में बीच में छोटा सा चीरा लगा दिया जाता था ताकि वह स्याहदी आसानी से सोख ले।

3. रंगीन चित्र

जैसा कि हमने पिछले अनुभाग में पढ़ा, मुग़ल पांडुलिपियों की रचना में चित्रकार भी शामिल थे। एक मुग़ल बादशाह के शासन की घटनाओं का विवरण देने वाले इतिहासों में लिखित पाठ के साथ ही उन घटनाओं को
चित्रों के माध्यम से दृश्य रूप में भी वर्णित किया जाता था। जब किसी पुस्तक में घटनाओं अथवा विषयों को दृश्य रूप में व्यक्त किया जाना होता था तो सुलेखक उसके आसपास के पृष्ठों को खाली छोड़ देते थे। चित्रकार शब्दों में वर्णित विषय को अलग से चित्र रूप में उतारकर वहाँ संलग्न कर देते थे। ये लघुचित्र होते थे जिन्हें पांडुलिपि के पृष्ठों पर आसानी से लगाया और देखा जा सकता था।

चित्रों को न केवल किसी पुस्तक के सौंदर्य को बढ़ावा देने वाला बल्कि उन्हें तो, लिखित माध्यम से राजा और राजा की शक्ति के विषय में जो बात कही न जा सकी हों, ऐसे विचारों के संप्रेषण का भी एक सशक्त माध्यम माना जाता था। इतिहासकार अबुल फज्ल ने चित्रकारी का एक “जादुई कला' के रूप में वर्णन किया है। उसकी राय में यह कला किसी निर्जीव वस्तु को भी इस रूप में प्रस्तुत कर सकती है कि जैसे उसमें जीवन हो।

बादशाह, उसके दरबार तथा उसमें हिस्सा लेने वाले लोगों का चित्रण करने वाले चित्रों की रचना को लेकर शासकों और मुसलमान रूढ़्वादी वर्ग के प्रतिनिधियों अर्थात उलमा के बीच निरंतर तनाव बना रहा। उलमा
ने कुरान के साथ-साथ हदीस, जिसमें पैगम्बर मुहम्मद के जीवन से एक ऐसा ही प्रसंग वर्णित है, में प्रतिष्ठापित मानव रूपों के चित्रण पर इस्लामी प्रतिबंध का आह्वान किया। इस प्रसंग में पैगम्बर साहब को प्राकृतिक तरीके से जीवित रूपों के चित्रण की मनाही करते हुए उल्लिखित किया गया है क्‍योंकि ऐसा करने से यह लगता था कि
कलाकार रचना की शक्ति को अपने हाथ में लेने की कोशिश कर रहा है। यह एक ऐसा कार्य था जो केवल ईश्वर का ही था।

किंतु समय के साथ शरिया की व्याख्याओं में भी बदलाव आया। विभिन्‍न सामाजिक समूहों ने इस्लामी परंपरा के ढाँचे की अलग-अलग तरीकों से व्याख्या की। प्राय: प्रत्येक समूह ने इस परंपरा की ऐसी व्याख्या प्रतिपादित की जो उनकी राजनीतिक आवश्यकताओं से सबसे ज़्यादा मेल खाती थी। जिन शतान्दियों के दौरान साम्राज्य निर्माण हो रहा था उस समय कई एशियाई क्षेत्रों के शासकों ने नियमित रूप से कलाकारों को उनके चित्र तथा उनके राज्य के जीवन के दृश्य चित्रित करने के लिए नियुक्त किया। उदाहरण के लिए, ईरान के सफ़ावी राजाओं ने दरबार में स्थापित कार्यशालाओं में प्रशिक्षित उत्कृष्ट कलाकारों को संरक्षण प्रदान किया। बिहज़ाद जैसे चित्रकारों के नाम ने सफ़ावी दरबार की सांस्कृतिक प्रसिद्धि को चारों ओर फैलाने में बहुत योगदान दिया।

ईरान से भी कलाकार मुग़लकालीन भारत आने में सफल हुए। कुछ को मुग़ल दरबार में लाया गया जैसे मीर सैय्यद अली और अब्दुस समद को बादशाह हुमायूं को दिल्‍ली तक साथ देने के लिए कहा गया। अन्य ने संरक्षण ओर प्रतिष्ठा के अक्सरों की तलाश में प्रवास किया। बादशाह और रूढ़िवादी मुसलमान विचाराधारा के प्रवक्‍ताओं के बीच जीवधारियों के दृश्य निरूपण पर मुगल दरबार में तनाव बना हुआ था। अकबर का दरबारी इतिहासकार अबुल फज्ल बादशाह को यह कहते हुए उद्धृत करता है, “कई लोग ऐसे हैं जो चित्रकला से घृणा करते हैं पर मैं ऐसे व्यक्तियों को नापसंद करता हूँ। मुझे ऐसा लगता है कि कलाकार के पास खुदा को पहचानने का बेजोड़ तरीका है। चौके कहीं न कहीं उसे यह महसूस होता है कि खुदा की रचना को वह जीवन नहीं दे सकता...

4. अकबरनामा और बादशाहनामा

महत्त्वपूर्ण चित्रित मुगल इतिहासों में सर्वाधिक ज्ञात अकबरनामा और बादशाहनामा (राजा का इतिहास) है। प्रत्येक पांडुलिपि में औसतन 150 पूरे अथवा दोहरे पृष्ठों पर लड़ाई, घेराबंदी, शिकार, इमारत-निर्माण, दरबारी दृश्य आदि के चित्र हैं।

अकबरनामा के लेखक अबुल फज्ल का पालन-पोषण मुग़ल राजधानी आगरा में हुआ। वह अरबी, फारसी, यूनानी दर्शन और सूफ़ीवाद में पर्याप्त निष्णात था। इससे भी अधिक वह एक प्रभावशाली विवादी तथा स्वतंत्र चिंतक था जिसने लगातार दकियानूसी उलमा के विचारों का विरोध किया। इन गुणों से अकबर बयहुत प्रभावित हुआ। उसने अबुल फल को अपने सलाहकार और अपनी नीतियों के प्रवक्ता के रूप में बहुत उपर्युक्त पाया। बादशाह का एक मुख्य उद्देश्य राज्य को धार्मिक रूढ़्िवादियों के नियंत्रण से मुक्त करना था। दरबारी इतिहासकार के रूप में अबुल फज्ल ने अकबर के शासन से जुड़े विचारों को न केवल आकार दिया बल्कि उनको स्पष्ट रूप से व्यक्त भी किया।

1589 में शुरू कर अबुल फज्ल ने अकबरनामा पर तेरह वर्षों तक कार्य किया और इस दौरान कई बार उसने प्रारूप में सुधार किए। यह इतिहास घटनाओं के यास्तविक वियरणों ( वाक़ई), शासकीय दस्तावेजों तथा जानकार व्यक्तियों के मौखिक प्रमाणों जैसे विभिन्‍न प्रकार के साक्ष्यों पर आधारित है।

अकबरनामा को तीन जिल्दों में विभाजित किया गया है जिनमें से प्रथम दो इतिहास हैं। तीसरी जिल्द आइन-ए-अकबरी है। पहली जिल्द में आदम से लेकर अकबर के जीवन के एक खगोलीय कालचक्र तक (30 वर्ष) का मानव-जाति का इतिहास है। दूसरी जिल्द अकबर के 46वें शासन वर्ष (1601) पर ख़त्म होती है। अगले ही वर्ष अबुल फ़ज्ल राजकुमार सलीम द्वारा तैयार किए गए षड्यंत्र का शिकार हुआ और सलीम के सहापराधी बीर सिंह बुंदेला द्वारा उसकी हत्या कर दी गई।

अकबरनामा का लेखन राजनीतिक रूप से महत्त्वपूर्ण घटनाओं के समय के साथ विवरण देने के पारंपरिक ऐतिहासिक दृष्टिकोण से किया गया। इसके साथ ही तिथियों और समय के साथ होने वाले बदलावों के उल्लेख के बिना ही अकबर के साम्राज्य के भौगोलिक, सामाजिक, प्रशासनिक और सांस्कृतिक सभी पक्षों का विवरण प्रस्तुत करने के अभिनव तरीके से भी इसका लेखन हुआ। आइन-ए-अकबरी में मुगल साम्राज्य को हिंदुओं, जैनों, बौद्धों और मुसलमानों की भिन्‍न-भिन्‍न आबादी वाले तथा एक मिश्रित संस्कृति वाले साम्राज्य के रूप में प्रस्तुत
किया गया है।

अबुल फ़्ल की भाषा बहुत अलंकृत थी और चूंकि इस भाषा के पाठों को ऊंची आवाज़ में पढ़ा जाता था अतः इस भाषा में लय तथा कथन-शैली को यहुत महत्त्व दिया जाता था। इस भारतीय-फ़ारसी शैली को दरबार में संरक्षण मिला।

अबुल फजल का एक शिष्य अब्दुल हमीद लाहौरी बादशाहनामा के लेखक के रूप में जाना जाता है। इसकी योग्यताओं के बारे में सुनकर बादशाह शाहजहाँ ने उसे अकबरनामा के नमूने पर अपने शासन का इतिहास लिखने के लिए नियुक्त किया। बादशाहनामा भी सरकारी इतिहास है। इसकी तीन जिल्दें ( दफ़्तर) हैं और प्रत्येक जिल्द दस चंद्र वर्षों का ब्योरा देती है। लाहौरी ने बादशाह के शासन (1627-47) के पहले दो दशकों पर पहला य दूसरा दफ़्तः लिखा। इन जिलों में बाद में शाहजहाँ के वज़ीर सादुल्‍लाह खाँ ने सुधार किया। बुढ़ापे की अशक्तताओं की वजह से लाहौरी तीसरे दशक के बारे में न लिख सका जिसे बाद में इतिहासकार वारिस ने लिखा।

औपनिवेशिक काल के दौरान अंग्रेज प्रशासकों ने अपने साम्राज्य के लोगों ओर संस्कृतियों (जिन पर वे लंबा शासन करना चाहते थे), को बेहतर ढंग से समझने के लिए भारतीय इतिहास का अध्ययन तथा उपमहाद्वीप के बारे में ज्ञान का अभिलेखागार स्थापित करना शुरू किया। 1784 में सर विलियम जोन्स द्वारा स्थापित एशियाटिक सोसाइटी ऑफ़ बंगाल ने कई भारतीय पांडुलिपियों के संपादन, प्रकाशन और अनुवाद का ज़िम्मा अपने ऊपर ले लिया।

अकबरनामा और बादशाहनामा के संपादित पाठान्तर सबसे पहले एशियाटिक सोसाइटी द्वारा उन्‍नीसवी शताब्दी में प्रकाशित किए गए। वर्षों की कड़ी मेहनत के बाद बीसवीं शताब्दी के आरंभ में हेनरी बेवरिज द्वारा अकबरनामा का अंग्रेज़ी अनुवाद किया गया। बादशाहनामा के केवल कुछ ही अंशों का अभी तक अंग्रेज़ी में अनुवाद हुआ है, इसका मूल पाठ अपने संपूर्ण रूप में आज भी अनुवाद किए जाने की प्रतीक्षा में हे।

5. आदर्श राज्य

5.1 एक दैवीय प्रकाश

दरबारी इतिहासकारों ने कई साक्ष्यों का हवाला देते हुए यह दिखाया कि मुगल राजाओं को सीधे ईश्वर से शक्ति मिली थी। उनके द्वारा वर्णित दंतकथाओं में से एक मंगोल रानी अलानकुआ की कहानी है जो अपने शिविर में आराम करते समय सूर्य की एक किरण द्वारा गर्भवती हुई थी। उसके द्वारा जन्म लेने वाली संतान पर इस दैवीय प्रकाश का प्रभाव था। इस प्रकार पीढ़ी-दर-पीढ़ी यह प्रकाश हस्तांतरित होता रहा।

ईश्वर ( फर-ए-इज्ादी) से निःसृत प्रकाश को ग्रहण करने वाली चीज्ञों के पदानुक्रम में मुगल राजत्व को अबुल फज्ल ने सबसे ऊँचे स्थान पर रखा। इस विषय में वह प्रसिद्ध ईरानी सूफी शिहाबुद्दीन सुहरावर्दी (1191 में मृत) के विचारों से प्रभावित था जिसने सर्वप्रथम इस प्रकार का विचार प्रस्तुत किया था। इस विचार के अनुसार एक पदानुक्रम के तहत यह देवीय प्रकाश राजा में संप्रेषित होता था जिसके बाद राजा अपनी प्रजा के लिए आध्यात्मिक मार्गदर्शन का स्रोत बन जाता था।

इतिवृत्तों के विवरणों का साथ देने वाले चित्रों ने इन विचारों को इस तरीके से संप्रेषित किया कि उन्होंने देखने वालों के मन-मस्तिष्क पर स्थायी प्रभाव डाला। सत्रहवी शताब्दी से मुगल कलाकारों ने बादशाहों को प्रभामंडल के साथ चित्रित करना शुरू किया। ईश्वर के प्रकाश के प्रतीक रूप इन प्रभामंडलों को उन्होंने ईसा और वर्जिन मेरी के यूरोपीय चित्रों में देखा था।

5.2 सुलह-ए-कुल : एकीकरण का एक स्रोत

मुगल इतिवृत्त साम्राज्य को हिंदुओं, जैनों, ज़रतुश्तियों और मुसलमानों जैसे अनेक भिन्‍न-भिन्‍न नृजातीय और धार्मिक समुदायों को समाविष्ट किए हुए साम्राज्य के रूप में प्रस्तुत करते हैं। सभी तरह की शांति और स्थायित्व के स्रोत रूप में बादशाह सभी धार्मिक और नृजातीय समूहों से ऊपर होता था, इनके बीच मध्यस्थता करता था, तथा यह सुनिश्चित करता था कि न्याय और शांति बनी रहे। अबुल फज्ल सुलह-ए-कुल (पूर्ण शांति) के आदर्श को प्रबुद्ध शासन की आधारशिला बताता है। सुलह-ए-कुल में यूँ तो सभी धर्मों और मतों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता थी किंतु उसकी एक शर्त थी कि वे राज्य-सत्ता को क्षति नहीं पहुंचाएंगे अथवा आपस में नहीं लड़ेंगे।

सुलह-ए-कुल का आदर्श राज्य नीतियों के ज़रिए लागू किया गया। मुगलों के अधीन अभिजात-वर्ग मिश्रित किस्म का था-अर्थात उसमें ईरानी, तूरानी, अफ़गानी, राजपूत, दक्खनी सभी शामिल थे। इन सबको दिए गए पद और पुरस्कार पूरी तरह से राजा के प्रति उनकी सेवा और निष्ठा पर आधारित थे। इसके अलावा, अकबर ने 1563 में तीर्थयात्रा कर तथा 1564 में जज़िया को समाप्त कर दिया क्योंकि यह दोनों कर धार्मिक पक्षपात पर आधारित थे। साम्राज्य के अधिकारियों को प्रशासन में सुलह-ए-कुल के नियम का अनुपालन करने के लिए निर्देश दे दिए गए।

सभी मुग़ल बादशाहों ने उपासना-स्थलों के निर्माण व रख-रखाव के लिए अनुदान दिए। यहाँ तक कि युद्ध के दौरान जब मंदिरों को नष्ट कर दिया जाता था तो बाद में उनकी मरम्मत के लिए अनुदान जारी किए जाते थे। ऐसा हमें शाहजहाँ और औरंगज्ञेब के शासन में पता चलता है, हालांकि औरंगजेब के शासनकाल में गैर-मुसलमान प्रजा पर जज़िया फिर से लगा दिया गया।

5.3 सामाजिक अनुबंध के रूप में

न्यायपूर्ण प्रभुसत्ता

अबुल फल ने प्रभुसत्ता को एक सामाजिक अनुबंध के रूप में परिभाषित किया है। वह कहता है कि बादशाह
अपनी प्रजा के चार सन्तों की रक्षा करता है- जीवन (जन), धन (माल), सम्मान ( नामस) ओर विश्वास ( दीन) और इसके बदले में वह आज्ञापालन तथा संसाधनों में हिस्से की माँग करता है। केवल न्यायपूर्ण संप्रभु ही शक्ति और दैवीय मार्गदर्शन के साथ इस अनुबंध का सम्मान कर पाते थे।

6 राजधानियाँ और दरबार

6.1 राजधानी गगर

मुगल साम्राज्य का हृदय-स्थल उसका राजधानी नगर था, जहाँ दरबार लगता था। सोलहवीं और सत्रहवीं शताब्दियों के दौरान मुग़लों की राजधानियाँ बड़ी तेज़ी से स्थानांतरित होने लगीं। हालाँकि बाबर ने लोदियों की राजधानी आगरा पर अधिकार कर लिया था तथापि उसके शासन के चार वर्षों के दौरान राजसी दरबार भिन्‍न-भिन्‍न स्थान पर लगाए जाते रहे। 1560 के दशक में अकबर ने आगरा के किले का निर्माण करवाया। इसे आसपास के क्षेत्रों की खदानों से लाए गए लाल बलुआ पत्थर से बनाया गया था। 1570 के दशक में उसने फतेहपुर सीकरी में एक नयी राजधानी बनाने का निर्णय लिया। इस निर्णय का एक कारण यह हो सकता हे कि
सीकरी अजमेर को जाने वाली सीधी सड़क पर स्थित था, जहाँ शेख मुइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह उस समय तक एक महत्त्वपूर्ण तीर्थ्थल बन चुकी थी। मुग़ल बादशाहों के चिश्ती सिलसिले के सूफ़ियों के साथ घनिष्ठ संबंध बने। अकबर ने सीकरी में जुम्मा मस्जिद के बगल में ही शेख सलीम चिश्ती के लिए सफेद संगमरमर का एक मकबरा बनाने का आदेश दिया। विशाल मेहराबी प्रवेशद्वार (बुलंद दरवाज़ा) के निर्माण का उद्देश्य वहाँ आने वाले लोगों को गुजरात में मुग़ल विजय की याद दिलाना था। 1585 में उत्तर-पश्चिम को और अधिक नियंत्रण में लाने के लिए राजधानी को लाहोर स्थानांतरित कर दिया गया और इस तरह तेरह वर्षो तक अकबर ने इस सीमा पर गहरी चोकसी बनाए रखी। शाहजहाँ ने विवेकपूर्ण राजकोषीय नीतियों को आगे बढ़ाया तथा इमारत निर्माण के अपने शौक को पूरा करने के लिए पर्याप्त धन इकट्ठा कर लिया। जैसाकि आपने पहले के शासकों के संदर्भ में देखा,
राजतंत्रीय संस्कृतियों में इमारत निर्माण-कार्य राजबंशीय सत्ता, धन तथा प्रतिष्ठा का सर्वाधिक स्पष्ट और ठोस
प्रतीक था। मुसलमान शासकों के संदर्भ में इसे धर्मनिष्ठा के एक कार्य के रूप में भी देखा जाता था। 1648 में दरबार, सेना व राजसी खानदान आगरा से नयी निर्मित शाही राजधानी शाहजहाँनाबाद चले गए। दिल्‍ली के प्राचीन रिहायशी नगर में शाहजहाँनाबाद एक नयी और शाही आबादी थी। यहाँ लाल किला, जामा मस्जिद, चाँदनी चोक के बाज़ार की वृक्ष वीधि और अभिजात वर्ग के बड़े-बड़े घर थे। शाहजहाँ का यह नया शहर विशाल एवं भव्य राजतंत्र की ज्यादा औपचारिक कल्पना को व्यक्त करता था।

6.2 मुग़ल दरबार

शासक पर केंद्रित दरबार की भौतिक व्यवस्था ने शासक के अस्तित्व को समाज के हृदय के रूप में प्रदर्शित किया। इसका केंद्रबिंदु इस प्रकार राजसिंहासन अथवा तख्त था जिसने संप्रभु के कार्यों को भौतिक स्वरूप
प्रदान किया था। इसे एक ऐसे स्तंभ के रूप में देखा जाता था जिस पर धरती टिकी हुई थी। सहस्लाब्दियों से भारत में राजतंत्र का प्रतीक रही छतरी, शासक की कांति को सूर्य की कांति से पृथक करने वाली मानी जाती थी।
इतिवृत्तों ने मुग़ल संभ्रांत वर्गों के बीच हैसियत को निर्धारित करने वाले नियमों को बड़ी सुस्पष्टता से सामने रखा है। दरबार में किसी की हेसियत इस बात से निर्धारित होती थी कि वह शासक के कितना पास और दूर
बैठा है। किसी भी दरबारी को शासक द्वारा दिया गया स्थान बादशाह की नज़र में उसकी महत्ता का प्रतीक था। एक बार जब बादशाह सिंहासन पर बैठ जाता था तो किसी को भी अपनी जगह से कहीं और जाने की अनुमति नहीं थी और न ही कोई अनुमति के बिना दरबार से बाहर जा सकता था। दरबारी समाज में सामाजिक नियंत्रण का व्यवहार दरबार में मान्य संबोधन, शिष्यचार तथा बोलने के ध्यानपूर्वक निर्धारित किए गए नियमों द्वारा होता था। शिष्टाचार का ज़रा सा भी उल्लंघन होने पर ध्यान दिया जाता था और उस व्यक्ति को तुरंत ही दंडित किया जाता था।

शासक को किए गए अभिवादन के तरीके से पदानुक्रम में उस व्यक्ति की हेसियत का पता चलता था जैसे जिस व्यक्ति के सामने ज़्यादा झुककर अभिवादन किया जाता था, उस व्यक्ति की हैसियत ज़्यादा ऊंची मानी जाती थी। आत्मनिवेदन का उच्चतम रूप सिजदा या दंडबत लेटना था। शाहजहाँ के शासनकाल में इन तरीकों के स्थान पर चार तसलीम तथा जर्मीबोसी (ज़मीन चूमना) के तरीके अपनाए गए।

मुगल दरबार में राजनयिक दूतों संबंधी नयाचारों में भी ऐसी ही सुस्पष्टता थी। मुग़ल बादशाह के समक्ष प्रस्तुत होने वाले राजदूत से यह अपेक्षा की जाती थी कि वह अभिवादन के मान्य रूपों में से एक-या तो बहुत झुककर अथवा ज़मीन को चूमकर अथवा फ़ारसी रिवाज के मुताबिक छाती के सामने हाथ बाँधकर-तरीके से अभिवादन करेगा। जेम्स- के अंग्रेज दूत टॉमस रो ने यूरोपीय रिवाज के अनुसार जहांगीर के सामने केवल झुककर अभिवादन किया और इसके बाद बैठने के लिए कुर्सी का आग्रह कर पुनः दरबार को अचंभित कर दिया।

बादशाह अपने दिन की शुरुआत सूर्योदय के समय कुछ व्यक्तिगत धार्मिक प्रार्थाओं से करता था और इसके बाद वह पूर्व की ओर मुंह किए एक छोटे छज्जे अर्थात झरोखे में आता था। इसके नीचे लोगों की भीड़ (सैनिक, व्यापारी, शिल्पकार, किसान, बीमार बच्चों के साथ औरतें) बादशाह की एक झलक पाने के लिए इंतज़ार करती थी। अकबर द्वारा शुरू की गई झरोखा दर्शन की प्रथा का उद्देश्य जन विश्वास के रूप में शाही सत्ता की स्वीकृति को और विस्तार देना था।

झरोखे में एक घंटा बिताने के बाद बादशाह अपनी सरकार के प्राथमिक कार्यों के संचालन हेतु सार्वजनिक सभा भवन (दीवान-ए आम) में आता था। वहाँ राज्य के अधिकारी रिपोर्ट प्रस्तुत करते तथा निवेदन करते थे। दो घंटे बाद बादशाह दीवान-ए-ख़ास में निजी सभाएं और गोपनीय मुद्दों पर चर्चा करता था। राज्य के वरिष्ठ मंत्री उसके सामने अपनी याचिकाएं प्रस्तुत करते थे और कर अधिकारी हिसाब का ब्योरा देते थे। कभी-कभी बादशाह उच्च प्रतिष्ठित कलाकारों के कार्यों अथवा वास्तुकारों ( मिमार) के द्वारा बनाए गए इमारतों के नक्शों को देखता था।

सिंहासनारोहण की वर्षगाँठ, ईद, शब-ए-बारात तथा होली जैसे कुछ विशिष्ट अवसरों पर दरबार का माहौल जीवंत हो उठता था। सजे हुए डिब्बों में रखी सुगंधित मोमबत्तियाँ और महल की दीवारों पर लटक रहे रंग-बिरंगे बंदनवार आने वालों पर आश्चर्यजनक प्रभाव छोड़ते थे। मुगल शासक वर्ष में तीन मुख्य त्योहार मनाया करते थे : सूर्यवर्ष ओर चंद्रवर्ष के अनुसार शासक का जन्मदिन और वसंतागमन पर फ़ारसी नववर्ष शाही परिवारों में विवाहों का आयोजन काफी खर्चीला होता था। 1633 में दाराशिकोह और नादिरा (राजकुमार परवेज्ञ की पुत्री) के विवाह की व्यवस्था राजकुमारी जहाँआरा और दिवंगत महारानी मुपताज्ञ महल की प्रमुख नौकरानी सती उन निसाखानुम द्वारा की गई। शादी के उपहारों के प्रदर्शन की व्यवस्था दीवान-ए-आम में की गई थी। बादशाह तथा हरम की स्त्रियाँ दोपहर में इसे देखने के लिए आईं तथा शाम के समय अभिजात यहाँ आए। दुलहन की माँ ने भी इसी तरह उसी विशाल कक्ष में उपहारों को सजाया था। शाहजहाँ इन्हें देखने के लिए वहाँ गया। हिनाबंदी (मेंहदी लगाना) की रस्म दीवान-ए-खास में अदा की गई। दरबार में उपस्थित व्यक्तियों के बीच पान, इलायची तथा मेवे बाँटे गए। विवाह पर कुल 32 लाख रुपए खर्च हुए थे जिसमें 6 लाख रुपए शाही खज़ाने से, 16 लाख रुपए जहाँआरा (मुमताज़ महल द्वारा आरंभ में अलग से रखे गए रुपयों को मिलाते हुए) और शेष दुलहन की माँ द्वारा दिए गए थे।

“*नौरोश" जन्मदिन पर शासक को विभिन्‍न वस्तुओं से तौला जाता था तथा बाद में ये वस्तुएं दान में बाँट दी जाती थीं।

6.3 पदवियाँ, उपहार और भेंट

राज्याभिषेक के समय अथवा किसी शत्रु पर विजय के बाद मुगल बादशाह विशाल पदवियाँ ग्रहण करते थे। उद्घोषकों ( नक़ीब) द्वारा जब इन गुंजायमान और लयबद्ध पदवियों की घोषणा की जाती थी तो वे सभा में विस्मय का माहौल बना देती थीं। मुगल सिक्‍कों पर राजसी नयाचार के साथ शासनरत बादशाह की पूरी पदवी होती थी।

योग्य व्यक्तियों को पदवियाँ देना मुगल राज्यतंत्र का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष था। दरबारी पदानुक्रम में किसी व्यक्ति की उन्नति को उसके द्वारा धारण की जानेवाली पदवियों से जाना जा सकता था। उच्चतम मंत्रियों में से एक को दी जाने वाली आसफ खाँ की पदवी का उद्भव पैगम्बर शासक सुलेमान के कल्पित मंत्री से हुआ था। औरगज्ञेब ने अपने दो उच्च पदस्थ अभिजातों जयसिंह और जसवंत सिंह को मिर्जा राजा की पदवी प्रदान की। पदवियाँ या तो अर्जिव की जा सकती थीं अथवा इन्हें पाने के लिए पैसे दिए जा सकते थे। मीर खान ने अपने नाम में अलिफ़ अर्थात 'अ' अक्षर लगाकर उसे अमीर ख़ान करने के लिए औरंगजेब को एक लाख रुपए देने का प्रस्ताव किया।

अन्य पुरस्कारों में सम्मान का जामा (ख्िल्लत) भी शामिल था जिसे पहले कभी न कभी बादशाह द्वारा पहना गया हुआ होता था। इसलिए यह समझा जाता था कि वह बादशाह के आशीर्वाद का प्रतीक है। सरप्पा (सर से पाँव तक') एक अन्य उपहार था। इस उपहार के तीन हिस्से हुआ करते थे : जामा, पगड़ी और पटका। बादशाह द्वारा अकसर रत्नजड्ित आधूषण भी उपहार के रूप में दिए जाते थे। बहुत खास परिस्थितियों में बादशाह कमल की मंजरियों वाला रत्नजड्ित गहनों का सेट ( पद्म मुरस्सा) भी उपहार में प्रदान करता था।

एक दरबारी बादशाह के पास कभी खाली हाथ नहीं जाता था। वह या तो नज़र के रूप में थोड़ा धन या पेशकश के रूप में मोटी रकम बादशाह को पेश करता था। राजनयिक संबंधों में उपहारों को सम्मान और आदर का प्रतीक माना जाता था। राजदूत प्रतिद्वंद्वी राजनीतिक शक्तियों के बीच संधि और संबंधों के ज़रिए समझौता करवाने के महत्त्वपूर्ण कार्य का संपादन करते थे। ऐसी परिस्थितियों में उपहारों की महत्त्वपूर्ण प्रतीकात्मक भूमिका होती थी। टॉमस रो को इस बात से बहुत निराशा हुई थी कि उसने आसफ खाँ को जो अंगूठी भेंट की थी, वह उसे केवल इसलिए वापस कर दी गई कि वह क्‍यों मात्र चार सौ रुपए मूल्य की थी।

7. शाही परिवार

हरम' शब्द का प्रयोग प्राय: मुगलों की घरेलू दुनिया की ओर संकेत करने के लिए होता हे। यह शब्द फारसी से निकला है जिसका तात्पर्य है “पवित्र स्थान'। मुगल परिवार में बादशाह की पत्नियाँ और उपपत्तियाँ, उसके नज़दीकी और दूर के रिश्तेदार (माता, सौतेली व उपमाताएँ, बहन, पुत्री, बहू, चाची-मौसी, बच्चे आदि) व महिला परिचारिकाएं तथा गुलाम होते थे। बहुविवाह प्रथा भारतीय उपमहाद्वीप में विशेषकर शासक वर्गों में व्यापक रूप से प्रचलित थी।

राजपूत कुलों एवं मुग़लों, दोनों के लिए विवाह राजनीतिक संबंध बनाने व मैत्री-संबंध स्थापित करने का एक तरीका थे। विवाह में पुत्री को भेंटस्वरूप दिए जाने के साथ प्राय: एक क्षेत्र भी उपहार में दे दिया जाता था। इससे विभिन्‍न शासक वर्गों के बीच पदानुक्रमिक संबंधों की निरंतरता सुनिश्चित हो जाती थी। इस तरह के विवाह और उनके फलस्वरूप विकसित संबंधों के कारण ही मुगल बंधुता के एक व्यापक तंत्र का निर्माण कर सके। इससे वे महत्त्वपूर्ण वर्गों से जुड़े और उन्हें एक बुहद साम्राज्य को इकट्ठा रखने में मदद मिली।

मुगल परिवार में शाही परिवारों से आने वाली स्त्रियों ( बेगमों) और अन्य स्त्रियों (अयहा), जिनका जन्म कुलीन परिवार में नहीं हुआ था, में अंतर रखा जाता था। दहेज ( मेहर) के रूप में अच्छा-ख़ासा नकद और बहुमूल्य वस्तुएं लेने के बाद विवाह करके आई बेगमों को अपने पतियों से स्वाभाविक रूप से अगहाओं की तुलना में अधिक ऊँचा दर्जा और सम्मान मिलता था। राजतंत्र से जुड़े महिलाओं के पदानुक्रम में उपत्नियों अगाचा) की स्थिति सबसे निम्न थी। इन सभी को नकद मासिक भत्ता तथा अपने-अपने दर्ज के हिसाब से उपहार मिलते थे। वंश आधारित पारिवारिक ढाँचा पूरी तरह स्थायी नहीं था। यदि पति की इच्छा हो और उसके पास पहले से ही चार पत्नियाँ न हों तो अगहा और अगाचा भी बेगम की स्थिति पा सकती थीं। प्रेम तथा मातृत्व ऐसी स्त्रियों को
विधिसम्मत विवाहित पत्नियों के दर्ज तक पहुँचाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते थे।

पत्नियों के अतिरिक्त मुगल परिवार में अनेक महिला तथा पुरुष गुलाम होते थे। वे साधारण से साधारण कार्य से लेकर कौशल, निपुणता तथा बुद्धिमता के अलग-अलग कार्यों का संपादन करते थे। गुलाम हिजडे (ख्याजासर) परिवार के अंदर और बाहर के जीवन में रक्षक, नौकर और व्यापार में दिलचस्पी लेने वाली महिलाओं के एजेंट होते थे।

नूरजहाँ के बाद मुग़ल रानियों और राजकुमारियों ने महत्त्वपूर्ण वित्तीय स्नोतों पर नियंत्रण रखना शुरू कर दिया। शाहजहाँ की पुत्रियों, जहाँआरा और रोशनआरा, को ऊँचे शाही मनसबदारों के समान वार्षिक आय होती थी। इसके अतिरिक्त जहाँआरा को सूरत के बंदरगाह नगर जो कि विदेशी व्यापार का एक लाभप्रद केंद्र था, से राजस्व प्राप्त होता था। संसाधनों पर नियंत्रण ने मुग़ल परिवार की महत्त्वपूर्ण स्त्रियों को इमारतों व बागों के निर्माण का अधिकार दे दिया। जहाँआरा ने शाहजहाँ की नयी राजधानी शाहजहाँनाबाद (दिल्ली) की कई वास्तुकलात्मक परियोजनाओं में हिस्सा लिया। इनमें से आँगन व बाग के साथ एक दोमेजिली भव्य कारवाँसराय थी। शाहजहानाबाद के हृदय स्थल चाँदनी चौक की रूपरेखा जहाँआरा द्वारा बनाई गई थी। गुलबदन बेगम द्वारा लिखी गई एक रोचक पुस्तक हुमायुनामा से हमें मुग़लों की घरेलू दुनिया की एक झलक मिलती है। गुलबदन बेगम बाबर की पुत्री, हमायूं की बहन तथा अकबर की चाची थी। गुलबदन स्वयं तुर्की तथा फ़ारसी में धाराप्रवाह
लिख सकती थी। जब अकबर ने अबुल फज्ल को अपने शासन का इतिहास लिखने के लिए नियुक्त किया तो उसने अपनी चाची से बाबर और हुमायूँ के समय के अपने पहले संस्मरणों को लिपिबद्ध करने का आग्रह किया ताकि अबुल फज्ल उनका लाभ उठाकर अपनी कृति को पूरा कर सके। गुलबदन ने जो लिखा वह मुगल बादशाहों की प्रशस्ति नहीं थी बल्कि उसने राजाओं और राजकुमारों के बीच चलने वाले संघर्षो और तनावों के साथ ही इनमें से कुछ संघर्षों को सुलझाने में परिवार की उम्रदराज्ञ स्त्रियों की महत्त्वपूर्ण भूमिकाओं के बारे
में विस्तार से लिखा।

8. शाही नौकरशाही

8.1 भर्ती की प्रक्रिया तथा पद

मुगल इतिहास विशेषकर अकबरनामा ने साम्राज्य की ऐसी कल्पना दी जिसमें क्रिया और सत्ता लगभग पूरी तरह से एकमात्र बादशाह में निहित होती है जबकि शेष राज्य को बादशाह के आदेशों का अनुपालन करते हुए प्रदर्शित किया गया है। किंतु मुगल राज्य-तंत्र के बारे में इन इतिहासों से प्राप्त समृद्ध जानकारी को हम ध्यान से देखें तो हम उन तरीकों को समझ सकते हैं जिनसे कई भिन्‍न-भिन्‍न प्रकार की संस्थाओं पर आधारित शाही संगठन प्रभावशाली ढंग से कार्य करने में सक्षम हुआ। मुग़ल राज्य का एक महत्त्वपूर्ण स्तंभ इसके अधिकारियों का दल था जिसे इतिहासकार सामूहिक रूप से अभिजात-वर्ग भी कहते हैं।

अभिजात-वर्ग में भर्ती विभिन्‍न नृ-जातीय तथा धार्मिक समूहों से होती थी। इससे यह सुनिश्चित हो जाता था कि कोई भी दल इतना बड़ा न हो कि वह राज्य की सत्ता को चुनौती दे सके। मुग़लों के अधिकारी-वर्ग को गुलदस्ते के रूप में वर्णित किया जाता था जो वफ़ादारी से बादशाह के साथ जुड़े हुए थे। साम्राज्य के निर्माण के आरंभिक चरण से ही तूरानी और ईरानी अभिजात अकबर की शाही सेवा में उपस्थित थे। इनमें से कुछ हुमायूं के साथ भारत चले आए थे। कुछ अन्य बाद में मुगल दरबार में आए थे।

1560 से आगे भारतीय मूल के दो शासकीय समूहों-राजपूतों व भारतीय मुसलमानों (शेखज़्ादाओं) ने शाही सेवा में प्रवेश किया। इनमें नियुक्त होने वाला प्रथम व्यक्ति एक राजपृत मुखिया अंबेर का राजा भारमल कछतवाहा था जिसकी पुत्री से अकबर का विवाह हुआ था। शिक्षा और लेखाशास्त्र की ओर झुकाव वाले हिंदू जातियों के सदस्यों को भी पदोन्‍नत किया जाता था। इसका एक प्रसिद्ध उदाहरण अकबर के वित्तमंत्री टोडरमल का है जो खत्री जाति का था।

जहाँगीर के शासन में ईरानियों को उच्च पद प्राप्त हुए। जहाँगीर की राजनीतिक रूप से प्रभावशाली रानी नूरजहाँ (1645) ईरानी थी। औरगज़ोब ने राजपूतों को उच्च पदों पर नियुक्त किया। फिर भी शासन में अधिकारियों के समूह में मराठे अच्छी खासी संख्या में थे।

सभी सरकारी अधिकारियों के दर्ज और पदों में दो तरह के संख्या-विषयक ओहदे होते थे : “ज्ञात” शाही पदानुक्रम में अधिकारी मनसबदार) के पद और वेतन का सूचक था और “सवार' यह सूचित करता था कि उससे सेवा में कितने घुड्सवार रखना अपेक्षित था। सत्रहवीं शताब्दी में 1,000 या उससे ऊपर जात वाले मनसबदार
अभिजात (उमरा जो कि अमीर का बहुवचन हे) कहे गए।

सैन्य अभियानों में ये अभिजात अपनी सेनाओं के साथ भाग लेते थे तथा प्रांतों में वे साम्राज्य के अधिकारियों के रूप में भी कार्य करते थे। प्रत्येक सैन्य कमांडर घुड्सवारों को भर्ती करता था, उन्हें हथियारों आदि से लैस करता था ओर उन्हें प्रशिक्षण देता था। घुड्सवारी फ़ौज मुगल फ़ौज का अपरिहार्य अंग थी। घुड्सवार सिपाही शाही निशान से पार्श्वभाग में दागे गए उत्कृष्ट श्रेणी के घोड़े रखते थे। निम्नततम ओहदों के अधिकारियों को छोड़कर बादशाह स्वयं सभी अधिकारियों के ओहदों, पदवियों और अधिकारिक नियुक्तियों के बदलाव का पुनरीक्षण करता था। मनसब प्रथा की शुरुआत करने याले अकबर ने अपने अभिजात-वर्ग के कुछ लोगों को शिष्य (मुरीद) की तरह मानते हुए उनके साथ आध्यात्मिक रिश्ते भी कायम किए।

अभिजात-वर्ग के सदस्यों के लिए शाही सेवा शक्ति, धन तथा उच्चतम प्रतिष्ठा प्राप्त करने का एक जरिया थी। सेवा में आने का इच्छुक व्यक्ति एक अभिजात के ज्ञरिए याचिका देता था जो बादशाह के सामने तजवीज प्रस्तुत करता था। अगर याचिकाकर्ता को सुयोग्य माना जाता था तो उसे मनसब प्रदान किया जाता था। मीरबख्शी (उच्चतम वेतनदाता) खुले दरबार में बादशाह के दाएं ओर खड़ा होता था तथा नियुक्ति और पदोन्‍नति के सभी उम्मीदवारों को प्रस्तुत करता था जबकि उसका कार्यालय उसकी मुहर व हस्ताक्षर के साथ-साथ बादशाह की
मुहर व हस्ताक्षर वाले आदेश तैयार करता था। केंद्र में दो अन्य महत्त्वपूर्ण मंत्री थे : दीवान-ए-आला (वित्तमंत्री) और संद्र-उस-सुदुर मदद-ए-माश अथवा अनुदान का मंत्री और स्थानीय न्यायाधीशों अथवा काजियों की नियुक्ति का प्रभारी)। ये तीनों मंत्री कभी-कभी इकट्ठे एक सलाहकार निकाय के रूप में काम करते थे लेकिन ये एक दूसरे से स्वतंत्र होते थे। अकबर ने इन तथा अन्य सलाहकारों के साथ मिलकर साम्राज्य की प्रशासनिक, राजकोषीय व मौद्रिक संस्थाओं को आकार प्रदान किया।

दरबार में नियुक्त ( तैनात-ए-रकाब) अभिजातों का एक ऐसा सुरक्षित दल था जिसे किसी भी प्रांत या सैन्य अभियान में प्रतिनियुक्त किया जा सकता था। वे प्रतिदिन दो बार सुबह व शाम को सार्वजनिक सभा-भवन
में बादशाह के प्रति आत्मनिवेदन करने के कर्तव्य से बंधे थे। दिन-रात बादशाह और उसके घराने की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी भी वे उठाते थे।

8.2 सुचना तथा साप्राज्य

सटीक और विस्तृत आलेख तैयार करना मुग़ल प्रशासन के लिए मुख्य रूप से महत्त्वपूर्ण था। मीर बख्शी दरबारी लेखकों (वाकिया नवीस) के समूह का निरीक्षण करता था। ये लेखक ही दरबार में प्रस्तुत किए जाने वाले सभी अर्जियों व दस्तावेज्ञों तथा सभी शासकीय आदेशों ( फरमान) का आलेख तैयार करते थे। इसके अतिरिक्त अभिजातों और क्षेत्रीय शासकों के प्रतिनिधि (वकील) दरबार की बेठकों ( पहर) की तिथि और समय के साथ “उच्च दरबार से समाचार” ( अख़बारात-ए-दरबार- ए-मुअल्ला) शीर्षक के अंतर्गत दरबार की सभी कार्यवाहियों का विवरण तैयार करते थे। अख़बारात में हर तरह की सूचनाएं होती हैं जैसे दरबार में उपस्थिति, पदों और पदवियों का दान, राजनयिक शिष्टमंडलों, ग्रहण किए गए उपहारों अथवा किसी अधिकारी के स्वास्थ्य के विषय
में बादशाह द्वारा की गई पूछताछ। राजाओं और अभिजातों के सार्वजनिक और व्यक्तिगत जीवन का इतिहास लिखने के लिए यह सूचनाएं बहुत उपयोगी होती हें।

समाचार वृत्तांत और महत्त्वपूर्ण शासकीय दस्तावेज़ शाही डाक के ज़रिए मुगल शासन के अधीन क्षेत्रों में एक छोर से दूसरे छोर तक जाते थे। बांस के डिब्बों में लपेटकर रखे कागज़ों को लेकर हरकारों ( कसीद अथवा पफ्थमार) के दल दिन-रात दौड़ते रहते थे। काफ़ी दूर स्थित प्रांतीय राजधानियों से भी वृत्तांत बादशाह को कुछ ही दिनों में मिल जाया करते थे। राजधानी से बाहर तेनात अभिजातों के प्रतिनिधि अथवा राजपूत राजकुमार तथा अधीनस्थ शासक बड़े मनोयोग से इन उद्घोषणाओं की नकल तेयार करते थे व संदेशवाहकों के जरिए अपनी टिप्पणियाँ अपने स्वामियों के पास भेज देते थे। सार्वजनिक समाचार के लिए पूरा साम्राज्य आश्चर्यजनक रूप से तीव्र सूचना तंत्र से जुड़ा हुआ था।

8.3 केंद्र से परे : प्रांतीय प्रशासन

केंद्र में स्थापित कार्यों के विभाजन को प्रांतों ( सूबों) में दुहराया गया था। यहाँ भी केंद्र के समान मंत्रियों के अनुरूप अधीनस्थ ( दीवान, बख्शी और सद्र) होते थे। प्रांतीय शासन का प्रमुख गवर्नर ( सूबेदार) होता था जो सीधा बादशाह को प्रतिवेदन प्रस्तुत करता था।

प्रत्येक सूबा कई सरकारों में बंग हुआ था। अकसर सरकार की सीमाएँ फ़ौजदारों के नीचे आने वाले क्षेत्रों की सीमाओं से मेल खाती थीं। इन इलाकों में फ़ोजदारों को विशाल घुड्सवार फ़ोज और तोपचियों के साथ रखा जाता था। परगना (उप-जिला) स्तर पर स्थानीय प्रशासन की देख-रेख तीन अर्ध-वंशानुगत अधिकारियों, कानूनगो (राजस्व आलेख का रखवाला), चौधरी (राजस्व संग्रह का प्रभारी) और काजी द्वारा की जाती थी।

शासन के प्रत्येक विभाग के पास लिपिकों का एक बड़ा सहायक समूह, लेखाकार, लेखा-परीक्षक, संदेशवाहक और अन्य कर्मचारी होते थे जो तकनीकी रूप से दक्ष अधिकारी थे। ये मानकीकृत नियमों और प्रक्रियाओं के अनुसार कार्य करते तथा प्रचुर संख्या में लिखित आदेश व वृत्तांत तैयार करते थे। सर्वत्र फ़ारसी को शासन की भाषा बना दिया गया लेकिन ग्राम-लेखा के लिए स्थानीय भाषाओं का प्रयोग होता था।

मुगल इतिहासकारों ने प्राय: बादशाह और उसके दरबार को ग्राम स्तर तक के संपूर्ण प्रशासनिक तंत्र का नियंत्रण करते हुए प्रदर्शित किया है। पर जैसा कि आपने देखा (अध्याय 8), इस प्रक्रिया का तनावमुक्त रहना
असंभव सा ही था। स्थानीय ज़मींदारों और मुग़ल साम्राज्य के प्रतिनिधियों के बीच के संबंध कई बार संसाधनों और सत्ता के बंटवारों को लेकर संघर्ष का रूप ले लेते थे। ज़मींदार प्राय: राज्य के खिलाफ़ किसानों का समर्थन संघटित करने में सफल हो जाते थे।

9, सीमाओं के परे

इतिवृत्तों के लेखकों ने मुग़ल बादशाहों द्वारा धारण की गई कई गुंजायमान पदवियों को सूचीबद्ध किया है। इनके अंतर्गत शहंशाह (राजाओं का राजा) जैसी सामान्य पदवियाँ अथवा जहाँगीर (विश्व पर कब्ज्ञा करने वाला), अथवा शाहजहाँ (विश्व का राजा) जैसे अलग-अलग राजाओं द्वारा अपनाई गई ख़ास उपाधियाँ शामिल थीं। मुग़ल  दशाहों के अविजित क्षेत्रीय व राजनीतिक नियंत्रण के दावों को दुहराने के लिए इतिहासकार प्राय: इन पदवियों और उनके अर्थों का हवाला देते थे। लेकिन यही समसामयिक इतिहास पड़ोसी राजनीतिक शक्तियों के साथ राजनयिक रिश्तों और संघर्ष का विवरण देते हैं जिसमें प्रतिस्पर्धी क्षेत्रीय हितों की वजह से कुछ तनाव और राजनीतिक प्रतिद्वंद्धाता का पता चलता हे।

9.1 सफ़ाबी और कंधार

मुग़ल राजाओं तथा ईरान व तूरान के पड़ोसी देशों के राजनीतिक व राजनयिक रिश्ते अफ़गानिस्तान को ईरान व मध्य एशिया के क्षेत्रों से पृथक करने वाले हिंदूकुश पर्वतों द्वारा निर्धारित सीमा के नियंत्रण पर निर्भर करते थे। भारतीय उपमहाद्वीप में आने को इच्छुक सभी विजेताओं को उत्तर भारत तक पहुँचने के लिए हिंदुकुश को पार करना होता था। मुगल नीति का यह निरंतर प्रयास रहा कि सामरिक महत्त्व की चोकियों विशेषकर काबुल व कंधार पर नियंत्रण के द्वारा इस संभावित खतरे से बचाव किया जा सके। कंधार सफ़ाबियों और मुग़लों के
बीच झगड़े की जड़ था। यह किला-नगर आरंभ में हुमायूं के अधिकार में था जिसे 1595 में अकबर द्वारा पुन: जीत
लिया गया। यद्यपि सफ़ाबी दरबार ने मुग़लों के साथ अपने राजनयिक संबंध बनाए रखे तथापि कंधार पर यह दावा करता रहा। 1613 में जहाँगीर ने शाह अब्बास के दरबार में कंधार को मुग़ल अधिकार में रहने देने की
वकालत करने के लिए एक राजनयिक दूत भेजा लेकिन यह शिष्टमंडल अपने उद्देश्य में सफल नहीं हुआ। 1622 की शीत ऋतु में एक फ़ारसी सेना ने कंधार पर घेरा डाल दिया। मुग़ल रक्षक सेना पूरी तरह से तैयार नहीं थी। अत: यह पराजित हुई और उसे किला तथा नगर सफ़ावियों को सौंपने पड़े।

9,2 ऑटोमन साम्राज्य : तीर्थयात्रा और व्यापार

ऑटोमन साम्राज्य के साथ मुग़लों ने अपने संबंध इस हिसाब से बनाए कि वे ऑोमन नियंत्रण वाले क्षेत्रों में व्यापारियों व तीर्थयात्रियों के स्वतंत्र आवागमन को बरकरार रखवा सकें। यह हिजाज़ अर्थात ऑयोमन अरब
के उस हिस्से के लिए विशेष रूप से सत्य था जहाँ मक्का और मदीना के महत्त्वपूर्ण तीर्थस्थल स्थित थे। इस क्षेत्र के साथ अपने संबंधों में मुगल बादशाह आमतौर पर धर्म एवं वाणिज्य के मुद्दों को मिलाने की कोशिश करता था। यह लाल सागर के बंदरगाह अदन और मोखा को बहुमूल्य वस्तुओं के निर्यात को प्रोत्साहन देता था और इनकी बिक्री से अर्जित आय को उस इलाके के धर्मस्थलों व फ़कीरों में दान में बाँट देता था। हालाँकि औरंगज्ेब को जब अरब भेजे जाने वाले धन के दुरुपयोग का पता चला तो उसने भारत में उसके वितरण का समर्थन किया क्योंकि उसका मानना था कि “यह भी वैसा ही ईश्वर का घर है जैसा कि मक्‍का।

9.3 मुगल दरबार में जेसुइट धर्म प्रचारक

यूरोप को भारत के बारे में जानकारी जेसुइट धर्म प्रचारकों, यात्रियों, व्यापारियों और राजनयिकों के विवरणों से हुई। मुग़ल दरबार के यूरोपीय विवरणों में जेसुइट वृत्तात सबसे पुराने वृत्तांत हैं। पंद्रहवीं शताब्दी के अंत में भारत तक एक सीधे समुद्री मार्ग की खोज का अनुसरण करते हुए पुर्तगाली व्यापारियों ने तटीय नगरों में व्यापारिक केंद्रों का जाल स्थापित किया। पुर्तगाली राजा भी सोसाइटी ऑफ़ जीसस (जेसुइट) के थधर्मप्रचारकों की मदद से ईसाई धर्म के प्रचार-प्रसार में रुचि रखता था। सोलहवीं शताब्दी के दौरान भारत आने वाले जेसुइट शिष्टमंडल व्यापार और साम्राज्य निर्माण की इस प्रक्रिया का हिस्सा थे।

अकबर ईसाई धर्म के विषय में जानने को बहुत उत्सुक था। उसने जेसुइट पादरियों को आमंत्रित करने के लिए एक दृतमंडल गोवा भेजा। पहला जेसुइट शिष्टमंडल फतेहपुर सीकरी के मुग़ल दरबार में 1580 में पहुँचा और वह वहाँ लगभग दो वर्ष रहा। इन जेसुइट लोगों ने ईसाई धर्म के विषय में अकबर से बात की और इसके सदगुणों के विषय में उलमा से उनका वाद-विवाद हुआ। लाहौर के मुग़ल दरबार में दो और शिष्टमंडल 1591 और 1595 में भेजे गए।

जेसुइट विवरण व्यक्तिगत प्रेक्षणों पर आधारित हैं और वे बादशाह के चरित्र और सोच पर गहरा प्रकाश डालते हैं। सार्वजनिक सभाओं में जेसुइट लोगों को अकबर के सिंहासन के काफ़ी नज़दीक स्थान दिया जाता था। वे उसके साथ अभियानों में जाते, उसके बच्चों को शिक्षा देते तथा उसके फुरसत के समय में वे अकसर उसके साथ होते थे। जेसुइट विवरण मुगलकाल के राज्य अधिकारियों और सामान्य जन-जीवन के बारे में फारसी इतिहासों में दी गई सूचना की पुष्टि करते हैं।

10, औपचारिक धर्म पर प्रश्न उठाना

जेसुइट शिष्टमंडल के सदस्यों के प्रति अकबर ने जो उच्च आदर प्रदर्शित किया उससे वे बहुत प्रभावित हुए।
ईसाई धर्म सिद्धांतों में बादशाह की स्पष्ट दिलचस्पी की व्याख्या उन्होंने अपने मत में बादशाह के धर्म-परिवर्तन
के संकेत रूप में की। इसे पश्चिमी यूरोप में हावी धार्मिक असहिष्णुता के माहौल के प्रकाश में समझा जा सकता है। मान्सेरेट ने टिप्पणी की कि, “राजा ने इस बात की बहुत कम परवाह की कि सभी को उसके धर्म के अनुपालन की अनुमति देकर उसने वास्तव में सबका तिरस्कार किया।”

धार्मिक ज्ञान के लिए अकबर की तलाश ने फतेहपुर सीकरी के इबादतखाने में विद्वान मुसलमानों, हिंदुओं,
जैनों, पारसियों और ईसाइयों के बीच अंतर-धर्माय वाद-विवादों को जन्म दिया। अकबर के धार्मिक विचार,
विभिन्‍न धर्मों व संप्रदायों के विद्वानों से प्रश्न पूछने और उनके धर्म-सिद्धांतों के बारे में जानकारी इकट्ठा करने से,
परिपक्व हुए। धीरे-धीरे वह धर्मों को समझने के रूढ़्िवादी तरीकों से दूर प्रकाश और सूर्य पर केंद्रित दैवीय उपासना के स्व-कल्पित विभिन्‍नदर्शन ग्राही रूप की ओर बढ़ा। हमने देखा कि अकबर और अबुल फज्ल ने प्रकाश के दर्शन का सृजन किया और राजा की छवि तथा राज्य की विचारधारा को आकार देने में इसका प्रयोग किया। इसमें दैवीय रूप से प्रेरित व्यक्ति का अपने लोगों पर सर्वोच्च प्रभुत्व तथा अपने शत्रुओं पर पूर्ण नियंत्रण होता है।

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