गुरुवार, 20 दिसंबर 2018

बौद्ध धर्म

बुद्ध की कहानी 

बौद्ध धर्म के संस्थापक सिद्धार्थ थे जिन्हें गौतम के नाम से भी जाना जाता है। उनका जन्म लगभग 2500 वर्ष पूर्व हुआ था। यह वह समय था जब लोगों के जीवन में तेज़ी से परिवर्तन हो रहे थे। जैसा कि तुमने अध्याय 6 में पढ़ा, महाजनपदों के कुछ राजा इस समय बहुत शक्तिशाली हो गए थे। हज़ारों सालों के बाद फिर से नगर उभर रहे थे। गाँवों के जीवन में भी बदलाव आ रहा था (अध्याय 10 देखो)। बहुत-से विचारक इन परिवर्तनों को समझने का प्रयास कर रहे थे। वे जीवन के सच्चे अर्थ को भी जानना चाह रहे थे।

बुद्ध क्षत्रिय थे तथा 'शाक्य' नामक एक छोटे से गण से संबंधित थे। युवावस्था में ही ज्ञान की खोज में उन्होंने घर के सुखों को छोड़ दिया। अनेक वर्षों तक वे भ्रमण करते रहे तथा अन्य विचारकों से मिलकर चर्चा करते रहे। अंततः ज्ञान प्राप्ति के लिए उन्होंने स्वयं ही रास्ता ढूँढ़ने का निश्चय किया। इसके लिए उन्होंने बोध गया (बिहार) में एक पीपल के नीचे कई दिनों तक तपस्या की। अंततः उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ। इसके बाद से वे बुद्ध के रूप में जाने गए। यहाँ से वे वाराणसी के निकट स्थित सारनाथ गए, जहाँ उन्होंने पहली बार उपदेश दिया। कुशीनारा में मृत्यु से पहले का शेष जीवन उन्होंने पैदल ही एक स्थान से दूसरे स्थान की यात्रा करने और लोगों को शिक्षा देने में व्यतीत किया।

बुद्ध ने शिक्षा दी कि यह जीवन कष्टों और दुखों से भरा हुआ है और ऐसा हमारी इच्छा और लालसाओं (जो हमेशा पूरी नहीं हो सकतीं) के कारण होता है। कभी-कभी हम जो चाहते हैं वह प्राप्त कर लेने के बाद भी संतुष्ट नहीं होते हैं एवं और अधिक (अथवा अन्य) वस्तुओं को पाने की इच्छा करने लगते हैं। बुद्ध ने इस लिप्सा को तज्हा (तृष्णा) कहा है। बुद्ध ने शिक्षा दी कि आत्मसंयम अपनाकर हम ऐसी लालसा से मुक्ति पा सकते हैं।

उन्होंने लोगों को दयालु होने तथा मनुष्यों के साथ-साथ जानवरों के जीवन का भी आदर करने की शिक्षा दी। वे मानते थे कि हमारे कर्मों के

वेदों की रचना के लिए किस भाषा का प्रयोग हुआ था? 

बुद्ध ने कहा कि लोग किसी शिक्षा को केवल इसलिए नहीं स्वीकार करें कि यह उनका उपदेश है, बल्कि वे उसे अपने विवेक से मापें। आओ देखो, उन्होंने ऐसा किस प्रकार किया।

उपनिषद्‌ 

जिस समय बुद्ध उपदेश दे रहे थे उसी समय या उससे भी थोड़ा पहले दूसरे अन्य चिंतक भी कठिन प्रश्नों का उत्तर ढूँढ़ने का प्रयास कर रहे थे। उनमें से कुछ मृत्यु के बाद के जीवन के बारे में जानना चाहते थे जबकि अन्य यज्ञों की उपयोगिता के बारे में जानने को उत्सुक थे। इनमें से अधिकांश चिंतकों का यह मानना था कि इस विश्व में कुछ तो ऐसा है जो कि स्थायी है और जो मृत्यु के बाद भी बचा रहता है। उन्होंने इसका वर्णन आत्मा तथा ब्रह्म अथवा सार्वभौम आत्मा के रूप में किया है। वे मानते थे कि अंततः आत्मा तथा ब्रह्म एक ही हैं।

ऐसे कई विचारों का संकलन उपनिषदों में हुआ है। उपनिषद्‌ उत्तर वैदिक ग्रंथों का हिस्सा थे। उपनिषद्‌ का शाब्दिक अर्थ है “गुरू के समीप बैठना। इन ग्रंथों में अध्यापकों और विद्यार्थियों के बीच बातचीत का संकलन किया गया है। प्राय: ये विचार सामान्य वार्तालाप के रूप में प्रस्तुत किए गए हैं।

इन चर्चाओं में भाग लेने वाले अधिकांशत: पुरुष ब्राह्मण तथा राजा होते थे। कभी-कभी गार्गी जैसी स्त्री-विचारकों का भी उल्लेख मिलता है। विद्त्ता के लिए प्रसिद्ध गागी राजदरबारों में होने वाले वाद-विवाद में भाग लिया करती थीं। निर्धन व्यक्ति इस तरह के वाद-विवाद में बहुत कम ही हिस्सा लेते थे। इस तरह का एक प्रसिद्ध अपवाद सत्यकाम जाबाल का है। सत्यकाम जाबाल का नाम उसकी दासी माँ के नाम पर पड़ा। सत्यकाम के मन में सत्य जानने की तीब्र जिज्ञासा उत्पन्न हुई। गौतम नामक एक ब्राह्मण ने उन्हें अपने विद्यार्थी के रूप में स्वीकार किया तथा वह अपने समय के सर्वाधिक प्रसिद्ध विचारकों में से एक बन गए। उपनिषदों के कई विचारों का विकास बाद में प्रसिद्ध विचारक शंकराचार्य के द्वारा किया गया जिनके बारे में तुम कक्षा 7 में पढ़ोगी।

जैन धर्म 

इसी युग में अर्थात्‌ लगभग 2500 वर्ष पूर्व जैन धर्म के 24वें तथा अंतिम तीर्थंकर वर्धमान महावीर ने भी अपने विचारों का प्रसार किया। वह वज्जि संघ के लिच्छवि कुल के एक क्षत्रिय राजकुमार थे। इस संघ के विषय में तुमने अध्याय 6 में पढ़ा है। 30 वर्ष की आयु में उन्होंने घर छोड़ दिया और जंगल में रहने लगे । बारह वर्ष तक उन्होंने कठिन व एकाकी जीवन व्यतीत किया। इसके बाद उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ।

उनकी शिक्षा सरल थी। सत्य जानने की इच्छा रखने वाले प्रत्येक स्त्री व पुरुष को अपना घर छोड़ देना चाहिए। उन्हें अहिसा के नियमों का कड़ाई से पालन करना चाहिए अर्थात्‌ किसी भी जीव को न तो कष्ट देना चाहिए और न ही उसकी हत्या करनी चाहिए। महावीर का कहना था, ''सभी जीव जीना चाहते हैं। सभी के लिए जीवन प्रिय है।'” महावीर ने अपनी शिक्षा प्राकृत में दी। यही कारण है कि साधारण जन भी उनके तथा उनके अनुयायियों की शिक्षाओं को समझ सके | देश के अलग-अलग हिस्सों में प्राकृत के अलग-अलग रूप प्रचलित थे। प्रचलन क्षेत्र के आधार पर ही उनके अलग-अलग नाम थे जैसे मगध में बोली जाने वाली प्राकृत, मागधी कहलाती थी।

जैन नाम से जाने गए महावीर के अनुयायियों को भोजन के लिए भिक्षा माँगकर सादा जीवन बिताना होता था। उन्हें पूरी तरह से ईमानदार होना पड़ता था तथा चोरी न करने की उन्हें सख्त हिदायत थी। उन्हें ब्रह्मचर्य का पालन करना होता था। पुरुषों को वस्त्रों सहित सब कुछ त्याग देना पड़ता था।

अधिकांश व्यक्तियों के लिए ऐसे कड़े नियमों का पालन करना बहुत कठिन था। फिर भी हज़ारों व्यक्तियों ने इस नई जीवन शैली को जानने और सीखने के लिए अपने घरों को छोड़ दिया। कई अपने घरों पर ही रहे और भिक्‍खु-भिक्खुणी बने लोगों को भोजन प्रदान कर उनकी सहायता करते रहे। मुख्यतः व्यापारियों ने जैन धर्म का समर्थन किया । किसानों के लिए इन नियमों का पालन अत्यंत कठिन था क्‍योंकि फ़सल की रक्षा के लिए उन्हें कीडे-मकौड़ों को मारना पड़ता था। बाद की सदियों में जैन धर्म, उत्तर भारत के कई हिस्सों के साथ-साथ गुजरात, तमिलनाडु और कर्नाटक में भी फैल गया। महावीर तथा उनके अनुयायियों की शिक्षाएँ कई शताब्दियों तक मौखिक रूप में ही रहीं । वर्तमान रूप में उपलब्ध जैन धर्म की शिक्षाएँ लगभग 1500 वर्ष पूर्व गुजरात में वल्‍लभी नामक स्थान पर लिखी गई थीं (मानचित्र 7, पृष्ठ 113 देखें)।

संघ 

महावीर तथा बुद्ध दोनों का ही मानना था कि घर का त्याग करने पर ही सच्चे ज्ञान की प्राप्ति हो सकती है। ऐसे लोगों के लिए उन्होंने संघ नामक संगठन बनाया जहाँ घर का त्याग करने वाले लोग एक साथ रह सकें।

संघ में रहने वाले बौद्ध भिक्षुओं के लिए बनाए गए नियम विनयपिटक नामक ग्रंथ में मिलते हैं। विनयपिटक से हमें पता चलता है कि संघ में पुरुषों और स्त्रियों के रहने की अलग-अलग व्यवस्था थी। सभी व्यक्ति संघ में प्रवेश ले सकते थे। हालाँकि संघ में प्रवेश के लिए बच्चों को अपने माता-पिता से, दासों को अपने स्वामी से, राजा के यहाँ काम करने वाले लोगों को राजा से, तथा कर्ज़दारों को अपने देनदारों से अनुमति लेनी होती थी। एक स्त्री को इसके लिए अपने पति से अनुमति लेनी होती थी।

संघ में प्रवेश लेने वाले स्त्री-पुरुष बहुत सादा जीवन जीते थे। वे अपना अधिकांश समय ध्यान करने में बिताते थे और दिन के एक निश्चित समय में वे शहरों तथा गाँवों में जाकर भिक्षा माँगते थे। यही कारण है कि उन्हें भिक्‍्खु तथा भिक्खुणी (साधु-भिखारी के लिए प्राकृत शब्द) कहा गया। वे आम लोगों को शिक्षा देते थे और साथ ही एक-दूसरे की सहायता भी करते थे। किसी तरह की आपसी लड़ाई का निपयारा करने के लिए वे प्राय: बैठकें भी किया करते थे।

संघ में प्रवेश लेने वालों में ब्राह्मण, क्षत्रिय, व्यापारी, मज़दूर, नाई, गणिकाएँ तथा दास शामिल थे। इनमें से कई लोगों ने बुद्ध की शिक्षाओं के विषय में लिखा तथा कुछ लोगों ने संघ में अपने जीवन के विषय में सुंदर कविताओं कौ रचना की।

पिछले अध्याय में वर्णित संघ और इस अध्याय में वर्णित संघ के बीच दो भिन्‍नताएँ बताओ। क्या इनमें कोई समानताएँ दिखती हैं?

विहार 

जैन तथा बौद्ध भिक्‍्खु पूरे साल एक स्थान से दूसरे स्थान घूमते हुए उपदेश दिया करते थे। केवल वर्षा ऋतु में जब यात्रा करना कठिन हो जाता था तो वे एक स्थान पर ही निवास करते थे। ऐसे समय वे अपने अनुयायियों द्वारा उद्यानों में बनवाए गए अस्थायी निवासों में अथवा पहाड़ी क्षेत्रों की प्राकृतिक गुफाओं में रहते थे।

जैसे-जैसे समय बीतता गया भिक्‍्खु-भिक्खुणियों ने स्वयं तथा उनके समर्थकों ने अधिक स्थायी शरणस्थलों की आवश्यकता का अनुभव किया। तब कई शरणस्थल बनाए गए जिन्हें विहार कहा गया। आरभिक विहार लकड़ी के बनाए गए तथा बाद में इनके निर्माण में ईंटों का प्रयोग होने लगा। पश्चिमी भारत में विशेषकर कुछ विहार पहाड़ियों को खोद कर बनाए गए।

प्राय: किसी धनी व्यापारी, राजा अथवा भू-स्वामी द्वारा दान में दी गई भूमि पर विहार का निर्माण होता था। स्थानीय व्यक्ति भिक्खु-भिक्खुणियों के लिए भोजन, वस्त्र तथा दवाईयाँ लेकर आते थे जिसके बदले ये भिक्‍्खु और भिकक्‍्खुणी लोगों को शिक्षा देते थे। आगे आने वाली शताबिदयों में बौद्ध धर्म उपमहाद्वीप के विभिन्न हिस्सों के साथ-साथ बाहरी क्षेत्रों में भी फैल गया। अध्याय 10 में तुम इनके बारे में और अधिक पढ़ोगे।

परिणाम, चाहे वे अच्छे हों या बुरे, हमारे वर्तमान जीवन के साथ-साथ बाद के जीवन को भी प्रभावित करते हैं। बुद्ध ने अपनी शिक्षा सामान्य लोगों की प्राकृत भाषा में दी। इससे सामान्य लोग भी उनके संदेश को समझ सके।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें