1857 की क्रान्ति अंग्रेजों को भारत से बाहर निकालने का सशस्त्र प्रयास था। भारतीय सेना संख्या में अंग्रेजों से सात गुना अधिक थी और जनता का सहयोग भी प्राप्त था। इतने पर भी अंग्रेज विद्रोह का दमन करने में सफल रहे और भारतीयों को हार का सामना करना पड़ा।
कुशल एवं योग्य नेतृत्व का अभाव
इस संग्राम को सही से संचालित करने वाले कुशल एवं योग्य नेतृत्व का अभाव था। बहादुर शाह, वृद्ध और कमजोर शासक था। नाना साहब, रानी लक्ष्मी बाई, वाजिद अली शाह, हजरत महल, कुँवर सिंह, बख्त खां, अजीमुल्ला आदि के हाथ में विद्रोहियों की बागडोर थी, लेकिन वे अपने उद्देश्य पर दृढ़ थे. इनमें आपसी समन्वय व नेतृत्व क्षमता का अभाव था.
क्रान्ति का समय से पूर्व होना
क्रान्ति की पूर्व योजनानुसार 31 मई 1857 का दिन एक साथ विद्रोह करने हेतु तय किया गया था लेकिन मेरठ में विद्रोह 10 मई 1857 को तय समय से पूर्व आरम्भ हो था. ऐसे में अलग-अलग समय और स्थानों पर हुई क्रान्ति का दमन करने में अंग्रेज सफल हो गये. मेलिसन ने लिखा है - “यदि पूर्व योजना के अनुसार 31 मई 1857 को एक साथ सभी स्थानों पर स्वाधीनता का संग्राम आरम्भ होता तो अंग्रेजों के लिए भारत को पुनः विजय करना किसी भी प्रकार सम्भव न होता।
भारतीय नरेशों का असहयोग
अधिकांश रियासतों के राजाओं ने अपने स्वार्थवश इस विद्रोह का दमन करने में अंग्रेजों का साथ दिया। लार्ड केनिंग ने इन राजाओं को “तूफान रोकने में बांध" की तरह बताया है।अपनी वीरता के लिए प्रसिद्द राजपूताने, मराठे, मैसूर, पँजाब, पूर्वी बंगाल आदि के शासक शान्त रहे. डब्ल्यू एच रसेल ने लिखा है “यदि भारतीय और साहस के साथ अंग्रेजों का विरोध करते तो वे (अंग्रेज) शीघ्र ही समाप्त हो जाते। यदि पटियाला या जींद के राजा हमारे मित्र न होते, यदि पंजाब में शान्ति न बनी रहती तो दिल्ली पर हमारा अधिकार करना सम्भव न होता।"
जमींदारों, व्यापारियों व शिक्षित वर्ग की तटस्थता
बड़े जमींदारों, साहूकारों और व्यापारियों ने अंग्रेजों को सहयोग किया। शिक्षित वर्ग का समर्थन भी क्रान्तिकारियों को न मिल सका।
सीमित साधन
अंग्रेजों के पास यूरोपीय देश के प्रशिक्षित और आधुनिक हथियारों से सुसज्जित अनुशासित सेना थी, समुद्र अपने नियन्त्रण का लाभ भी उन्हें मिला। भारतीय सैनिकों में अनुशासन, सैनिक संगठन व योग्य नेतृत्व का अभाव था. साथ ही इन्हें धन, रसद और हथियारों की कमी का सामना भी पड़ा.
निश्चित लक्ष्य एवं आर्दश का अभाव
क्रान्तिकारियों द्वारा अंग्रेजों को भारत से बाहर निकालने के लिए किया गया यह संग्राम यद्यपि व्यापक था और अंग्रेजों को भारत से बाहर निकालने के लिए किया गया था लेकिन अंग्रेजों के यहाँ से जाने के बाद भावी प्रशासनिक स्वरूप के संबंध में कोई आदर्श या योजना क्रान्तिकारियों के सामने नहीं थी। वी.डी. सावरकर ने
लिखा है- “लोगों के सामने यदि कोई स्पष्ट आदर्श रखा होता, जो उनको हृदय से आकृष्ट कर सकता, तो क्रान्ति का अन्त भी उतना ही अच्छा होता जितना कि प्रारम्भ।
अंग्रेजों की अनुकूल परिस्थितियाँ
1857 का वर्ष अंग्रेजों के लिए हितकारी रहा. क्रीमिया व चीन से युद्ध में विजय के पश्चात अंग्रेज सैनिक भारत पहुँच गए। अंग्रेजों ने 3,10,000 की एक अतिरिक्त सेना का गठन भी कर लिया था. यातायात और संचार में डलहौजी द्वारा रेल, डाकतार की व्यवस्था भी अंग्रेज़ों के लिए अनुकूल रही.
केनिंग और अंग्रेजों की कूटनीति
अंग्रेज अपनी कूटनीति से पंजाब, पश्चिमत्तोर सीमा प्रान्त के पठानों, अफगानों, सिन्धिया व निजाम का सहयोग प्राप्त करने में सफल रहे. क्रान्तिकारियों को शान्त करने में केनिंग की उदार नीति का भी प्रभाव पड़ा। आर. सी. मजूमदार ने अंग्रेजों की कूटनीति को उनकी सफलता की चाबी बताया है।
संक्षेप में कहा जा सकता है कि राष्ट्रीय भावनाओं की कमी, पारस्परिक समन्वय और सर्वमान्य नेतृत्व का अभाव 1857 की क्रांति की असफलता का प्रमुख कारण था.
कुशल एवं योग्य नेतृत्व का अभाव
इस संग्राम को सही से संचालित करने वाले कुशल एवं योग्य नेतृत्व का अभाव था। बहादुर शाह, वृद्ध और कमजोर शासक था। नाना साहब, रानी लक्ष्मी बाई, वाजिद अली शाह, हजरत महल, कुँवर सिंह, बख्त खां, अजीमुल्ला आदि के हाथ में विद्रोहियों की बागडोर थी, लेकिन वे अपने उद्देश्य पर दृढ़ थे. इनमें आपसी समन्वय व नेतृत्व क्षमता का अभाव था.
क्रान्ति का समय से पूर्व होना
क्रान्ति की पूर्व योजनानुसार 31 मई 1857 का दिन एक साथ विद्रोह करने हेतु तय किया गया था लेकिन मेरठ में विद्रोह 10 मई 1857 को तय समय से पूर्व आरम्भ हो था. ऐसे में अलग-अलग समय और स्थानों पर हुई क्रान्ति का दमन करने में अंग्रेज सफल हो गये. मेलिसन ने लिखा है - “यदि पूर्व योजना के अनुसार 31 मई 1857 को एक साथ सभी स्थानों पर स्वाधीनता का संग्राम आरम्भ होता तो अंग्रेजों के लिए भारत को पुनः विजय करना किसी भी प्रकार सम्भव न होता।
भारतीय नरेशों का असहयोग
अधिकांश रियासतों के राजाओं ने अपने स्वार्थवश इस विद्रोह का दमन करने में अंग्रेजों का साथ दिया। लार्ड केनिंग ने इन राजाओं को “तूफान रोकने में बांध" की तरह बताया है।अपनी वीरता के लिए प्रसिद्द राजपूताने, मराठे, मैसूर, पँजाब, पूर्वी बंगाल आदि के शासक शान्त रहे. डब्ल्यू एच रसेल ने लिखा है “यदि भारतीय और साहस के साथ अंग्रेजों का विरोध करते तो वे (अंग्रेज) शीघ्र ही समाप्त हो जाते। यदि पटियाला या जींद के राजा हमारे मित्र न होते, यदि पंजाब में शान्ति न बनी रहती तो दिल्ली पर हमारा अधिकार करना सम्भव न होता।"
जमींदारों, व्यापारियों व शिक्षित वर्ग की तटस्थता
बड़े जमींदारों, साहूकारों और व्यापारियों ने अंग्रेजों को सहयोग किया। शिक्षित वर्ग का समर्थन भी क्रान्तिकारियों को न मिल सका।
सीमित साधन
अंग्रेजों के पास यूरोपीय देश के प्रशिक्षित और आधुनिक हथियारों से सुसज्जित अनुशासित सेना थी, समुद्र अपने नियन्त्रण का लाभ भी उन्हें मिला। भारतीय सैनिकों में अनुशासन, सैनिक संगठन व योग्य नेतृत्व का अभाव था. साथ ही इन्हें धन, रसद और हथियारों की कमी का सामना भी पड़ा.
निश्चित लक्ष्य एवं आर्दश का अभाव
क्रान्तिकारियों द्वारा अंग्रेजों को भारत से बाहर निकालने के लिए किया गया यह संग्राम यद्यपि व्यापक था और अंग्रेजों को भारत से बाहर निकालने के लिए किया गया था लेकिन अंग्रेजों के यहाँ से जाने के बाद भावी प्रशासनिक स्वरूप के संबंध में कोई आदर्श या योजना क्रान्तिकारियों के सामने नहीं थी। वी.डी. सावरकर ने
लिखा है- “लोगों के सामने यदि कोई स्पष्ट आदर्श रखा होता, जो उनको हृदय से आकृष्ट कर सकता, तो क्रान्ति का अन्त भी उतना ही अच्छा होता जितना कि प्रारम्भ।
अंग्रेजों की अनुकूल परिस्थितियाँ
1857 का वर्ष अंग्रेजों के लिए हितकारी रहा. क्रीमिया व चीन से युद्ध में विजय के पश्चात अंग्रेज सैनिक भारत पहुँच गए। अंग्रेजों ने 3,10,000 की एक अतिरिक्त सेना का गठन भी कर लिया था. यातायात और संचार में डलहौजी द्वारा रेल, डाकतार की व्यवस्था भी अंग्रेज़ों के लिए अनुकूल रही.
केनिंग और अंग्रेजों की कूटनीति
अंग्रेज अपनी कूटनीति से पंजाब, पश्चिमत्तोर सीमा प्रान्त के पठानों, अफगानों, सिन्धिया व निजाम का सहयोग प्राप्त करने में सफल रहे. क्रान्तिकारियों को शान्त करने में केनिंग की उदार नीति का भी प्रभाव पड़ा। आर. सी. मजूमदार ने अंग्रेजों की कूटनीति को उनकी सफलता की चाबी बताया है।
संक्षेप में कहा जा सकता है कि राष्ट्रीय भावनाओं की कमी, पारस्परिक समन्वय और सर्वमान्य नेतृत्व का अभाव 1857 की क्रांति की असफलता का प्रमुख कारण था.
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