फ्रांस्वा बर्नियर
फ्रांस का रहने वाला फ्रांस्वा बर्नियर एक चिकित्सक, राजनीतिक दार्शनिक तथा एक इतिहासकार था। कई और लोगों की तरह ही वह मुगल साम्राज्य में अवसरों की तलाश में आया था। वह 1656 से 1668 तक भारत में बारह वर्ष तक रहा और मुगल दरबार से नज़दीकी रूप से जुड़ा रहा-पहले सम्राट शाहजहाँ के ज्येष्ठ पुत्र दारा
शिकोह के चिकित्सक के रूप में, और बाद में मुगल दरबार के एक आर्मीनियाई अमीर दानिशमंद ख़ान के साथ एक बुद्धिजीवी तथा वैज्ञानिक के रूप में।
3.1 “पूर्व” और “पश्चिम” को तुलना
बर्नियर ने देश के कई भागों की यात्रा की और जो देखा उसके विषय में विवरण लिखे। वह सामान्यतः भारत में जो देखता था उसकी तुलना यूरोपीय स्थिति से करता था। उसने अपनी प्रमुख कृति को फ्रांस के शासक लुई जाए को समर्पित किया था और उसके कई अन्य कार्य प्रभावशाली आधिकारियों और मंत्रियों को पत्रों के रूप में लिखे गए थे। लगभग प्रत्येक दुष्टांत में बर्नियर ने भारत की स्थिति को यूरोप में हुए विकास की तुलना में दयनीय बताया। जैसाकि हम देखेंगे उसका आकलन हमेशा सटीक नहीं था फिर भी जब उसके कार्य प्रकाशित हुए
तो बर्नियर के वृत्तांत अत्यधिक प्रसिद्ध हुए।
बर्नियर के कार्य फ्रांस में 1670-71 में प्रकाशित हुए थे, और अगले पाँच वर्षों के भीतर ही अंग्रेजी, डच, जर्मन तथा इतालवी भाषाओं में इनका अनुवाद हो गया। 1670 और 1725 के बीच उसका चवृत्तांत फ्रांसीसी में आठ बार पुनर्मुद्रित हो चुका था और 1684 तक यह तीन बार अंग्रेज़ी में पुनर्मुद्रित हुआ था। यह अरबी और फ़ारसी वृत्तांतों
जिनका प्रसार हस्तलिपियों के रूप में होता था और जो 1800 से पहले सामान्यत: प्रकाशित नहीं होते थे, के पूरी तरह विपरीत था।
6. बर्नियर तथा “अपविकसित ” पूर्व
जहाँ इब्न बतूता ने हर उस चीज़ का वर्णन करने का निश्चय किया जिसने उसे अपने अनूठेपन के कारण प्रभावित और उत्सुक किया, वहीं बर्नियर एक भिन्न बुद्धिजीवी परंपरा से संबंधित था। उसने भारत में जो भी देखा, वह उसकी सामान्य रूप से यूरोप और विशेष रूप से फ्रांस में व्याप्त स्थितियों से तुलना तथा भिन्नता को उजागर करने के प्रति अधिक चिंतित था, विशेष रूप से वे स्थितियाँ जिन्हें उसने अवसादकारी पाया। उसका विचार नीति-निर्माताओं तथा बुद्धिजीवी वर्ग को प्रभावित करने का था ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि ये ऐसे निर्णय ले
सकें जिन्हें वह “सही” मानता था।
बर्नियर के ग्रंथ ट्रैवल्स इन द मुगल एस्पायर अपने गहन प्रेक्षण, आलोचनात्मक अंतर्दृष्टि तथा गहन चिंतन के लिए उल्लेखनीय है। उसके वृत्तांत में की गई चर्चाओं में मुगलों के इतिहास को एक प्रकार के वैश्विक ढाँचे में स्थापित करने का प्रयास किया गया है। वह निरंतर मुग़लकालीन भारत की तुलना तत्कालीन यूरोप से करता रहा, सामान्यतया यूरोप की श्रेष्ठता को रेखांकित करते हुए। उसका भारत का चित्रण द्वि विपरीतता के नमूने पर आधारित है, जहाँ भारत को यूरोप के प्रतिलोम के रूप में दिखाया गया है, या फिर यूरोप का “विपरीत ”' जैसा
कि कुछ इतिहासकार परिभाषित करते हैं। उसने जो भिन्नताएँ महसूस कीं उन्हें भी पदानुक्रम के अनुसार क़मबद्ध किया, जिससे भारत, पश्चिमी दुनिया को निम्न कोटि का प्रतीत हो।
6.1 भूमि स्वामित्व का प्रश्न
बर्नियर के अनुसार भारत और यूरोप के बीच मूल भिन्नताओं में से एक भारत में निजी भूस्वामित्व का अभाव था। उसका निजी स्वामित्व के गुणों में दृढ़ विश्वास था और उसने भूमि पर राजकीय स्वामित्व को राज्य तथा उसके निवासियों, दोनों के लिए हानिकारक माना। उसे यह लगा कि मुग़ल साम्राज्य में सम्राट सारी भूमि का स्वामी था जो इसे अपने अमीरों के बीच बाँटता था, और इसके अर्थव्यवस्था और समाज के लिए अनर्थकारी परिणाम होते थे। इस प्रकार का अवबोधन बर्नियर तक ही सीमित नहीं था बल्कि सोलहवीं तथा सत्रहवीं शताब्दी के अधिकांश यात्रियों के बृत्तांतों में मिलता है।
राजकीय भृस्वामित्व के कारण, बर्नियर तर्क देता है, भूधारक अपने बच्चों को भूमि नहीं दे सकते थे। इसलिए वे उत्पादन के स्तर को बनाए रखने ओर उसमें बढ़ोत्तरी के लिए दूरगामी निवेश के प्रति उदासीन थे।
इस प्रकार, निजी भूस्वामित्व के अभाव ने “बेहतर'' भूधारकों के वर्ग के उदय (जैसा कि पश्चिमी यूरोप में) को रोका जो भूमि के रखरखाव व बेहतरी के प्रति सजग रहते। इसी के चलते कृषि का समान रूप से विनाश, किसानों का असीम उत्पीड़न तथा समाज के सभी वर्गों के जीवन स्तर में अनवस्त पतन की स्थिति उत्पन्न हुई है, सिवाय शासक वर्ग के।
इसी के विस्तार के रूप में बर्नियर भारतीय समाज को दरिद्र लोगों के समरूप जनसमूह से बना वर्णित करता है, जो एक बहुत अमीर तथा शक्तिशाली शासक वर्ग, जो अल्पसंख्यक होते हैं, के द्वारा अधीन बनाया जाता है। गरीबों में सबसे गरीब तथा अपीरों में सबसे अमीर व्यक्ति के बीच नाममात्र को भी कोई सामाजिक समूह या वर्ग नहीं था। बर्नियर बहुत विश्वास से कहता है, “ भारत में मध्य की स्थिति के लोग नहीं है।”
तो बर्नियर ने मुग़ल साम्राज्य को इस रूप में देखा-इसका राजा “भिखारियों और क़ूर लोगों" का राजा था; इसके शहर और नगर विनष्ट तथा “खराब हवा” से दूषित थे; और इसके खेत “झाड़ीदार” तथा “घातक दलदल” से भरे हुए थे और इसका मात्र एक ही कारण था- राजकीय भुस्वामित्व।
आश्चर्य की बात यह है कि एक भी सरकारी मुग़ल दस्तावेज़ यह इंगित नहीं करता कि राज्य ही भूमि का एकमात्र स्वामी था। उदाहरण के लिए, सोलहवीं शताब्दी में अकबर के काल का सरकारी इतिहासकार अबुल फ़ज्ल भूमि राजस्व को 'राजत्व का पारिश्रमिक' बताता है जो राजा द्वारा अपनी प्रजा को सुरक्षा प्रदान करने के बदले की गई माँग प्रतीत होती है न कि अपने स्वामित्व वाली भूमि पर लगान। ऐसा संभव है कि यूरोपीय यात्री ऐसी माँगों को लगान मानते थे क्योंकि भूमि राजस्व की माँग अकसर बहुत अधिक होती थी। लेकिन असल में यह न तो लगान था, न ही भूमिकर, बल्कि उपज पर लगने वाला कर था (अधिक जानकारी के लिए अध्याय 8 देखिए)।
बर्नियर के विवरणों ने अठारहवीं शताब्दी से पश्चिमी विचारकों को प्रभावित किया। उदाहरण के लिए, फ्रांसीसी दार्शनिक मॉन््टेस्क्यू ने उसके वृत्तांत का प्रयोग प्राच्य निरंकुशवाद के सिद्धांत को विकसित करने में किया, जिसके अनुसार एशिया (प्राच्य अथवा पूर्व) में शासक अपनी प्रजा के ऊपर निर्बाध प्रभुत्तव का उपभोग करते थे, जिसे दासता और गरीबी की स्थितियों में रखा जाता था। इस तर्क का आधार यह था कि सारी भूमि पर राजा का स्वामित्व होता था तथा निजी संपत्ति अस्तित्व में नहीं थी। इस दृष्टिकोण के अनुसार राजा और उसके अमीर वर्ग को छोड़ प्रत्येक व्यक्ति मुश्किल से गुजर-बसर कर पाता था।
उनन्नीसवीं शताब्दी में कार्ल मार्क्स ने इस विचार को एशियाई उत्पादन शैली के सिद्धांत के रूप में और आगे बढ़ाया। उसने यह तर्क दिया कि भारत (तथा अन्य एशियाई देशों) में उपनिवेशवाद से पहले अधिशेष का अधिग्रहण राज्य द्वारा होता था। इससे एक ऐसे समाज का उद्भव हुआ जो बड़ी संख्या में स्वायत्त तथा (आंतरिक रूप से) समतावादी ग्रामीण समुदायों से बना था। इन ग्रामीण समुदायों पर राजकीय दरबार का नियंत्रण होता था और जब तक अधिशेष की आपूर्ति निर्विष्न रूप से जारी रहती थी, इनकी स्वायत्तता का सम्मान किया जाता था। यह एक निष्क्रिय प्रणाली मानी जाती थी।
परंतु, जैसा कि हम देखेंगे (अध्याय 8) ग्रामीण समाज का यह चित्रण सच्चाई से बहुत दूर था। बल्कि सोलहवीं और सत्रहवीं शताब्दी में ग्रामीण समाज में चारित्रिक रूप से बड़े पैमाने पर सामाजिक और आर्थिक विभेद था। एक ओर बड़े ज़मींदार थे जो भूमि पर उच्चाधिकारों का उपभोग करते थे और दूसरी ओर “अस्पृश्य” भूमिविहीन श्रमिक (बलाहार)। इन दोनों के बीच में बड़ा किसान था जो किराए के श्रम का प्रयोग करता था और माल उत्पादन में संलग्न रहता था; साथ ही अपेक्षाकृत छोटे किसान भी थे जो मुश्किल से ही निर्वहन लायक उत्पादन कर पाते थे।
एक अधिक जटिल सामाजिक सच्चाई
हालाँकि मुगल राज्य को निरंकुश रूप देने की तन्मयता स्पष्ट है, लेकिन उसके विवरण कभी-कभी एक अधिक जटिल सामाजिक सच्चाई की ओर इशारा करते हैं। उदाहरण के लिए वह कहता है कि शिल्पकारों के पास अपने उत्पादों को बेहतर बनाने का कोई प्रोत्साहन नहीं था क्योंकि मुनाफ़े का अधिग्रहण राज्य द्वारा कर लिया जाता था। इसलिए उत्पादन हर जगह पतनोन्मुख था। साथ ही वह यह भी मानता है कि पूरे विश्व से बड़ी मात्रा में बहुमूल्य धातुएँ भारत में आती थीं क्योंकि उत्पादों का सोने और चाँदी के बदले निर्यात होता था। वह एक समृद्ध व्यापारिक समुदाय जो लंबी दुरी के विनिमय से संलग्न था, के अस्तित्व को भी रेखांकित करता है।
सत्रहवीं शताब्दी में जनसंख्या का लगभग पंद्रह प्रतिशत भाग नगरों में रहता था। यह औसतन उसी समय पश्चिमी यूरोप की नगरीय जनसंख्या के अनुपात से अधिक था। इतने पर भी, बर्नियर मुगलकालीन शहरों को “शिविर नगर” कहता हे, जिससे उसका आशय उन नगरों से था जो अपने अस्तित्व और बने रहने के लिए राजकीय शिविर पर निर्भर थे। उसका विश्वास था कि ये राजकीय दरबार के आगमन के साथ अस्तित्व में आते थे और इसके कहीं और चले जाने के बाद तेज्ञी से पतनोन्मुख हो जाते थे। उसने यह भी सुझाया कि इनकी सामाजिक और आर्थिक नीव व्यवहार्य नहीं होती थी और ये राजकीय प्रश्नय पर आश्रित रहते थे।
भूस्वामित्व के प्रश्न की तरह ही बर्नियर एक अतिसरलीकृत चित्रण प्रस्तुत कर रहा था। वास्तव में सभी प्रकार के नगर अस्तित्व में थे: उत्पादन केंद्र, व्यापारिक नगर, बंदरगाह नगर, धार्मिक केंद्र, तीर्थ स्थान आदि। इनका अस्तित्व समृद्ध व्यापारिक समुदायों तथा व्यावसायिक वर्गों के अस्तित्व का सूचक हेै।
व्यापारी अक्सर मजबूत सामुदायिक अथवा बंधुत्व के संबंधों से जुडे होते थे और अपनी जाति तथा व्यावसायिक संस्थाओं के माध्यम से संगठित रहते थे। पश्चिमी भारत में ऐसे समूहों को महाजन कहा जाता था और उनके मुखिया को सेठ। अहमदाबाद जैसे शहरी केंद्रों में सभी महाजनों का सामूहिक प्रतिनिधित्व व्यापारिक समुदाय के मुखिया द्वारा होता था जिसे नगर सेठ कहा जाता था।
अन्य शहरी समूहों में व्यावसायिक वर्ग जैसे चिकित्सक (हकीम अथवा वैद्य), अध्यापक (पंडित या मुल्ला), अधिवक्ता (वकील), चित्रकार, वास्तुविद, संगीतकार, सुलेखक आदि सम्मिलित थे। जहाँ कई राजकीय प्रश्नय पर आश्रित थे, कई अन्य संरक्षकों या भीड्भाड़ वाले बाज़ार में आम लोगों की सेवा द्वारा जीवनयापन करते थे।
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मुग़ल सेना के साथ यात्रा
बर्नियर ने कई बार मुगल सेना के साथ यात्राएँ की। यहाँ सेना के कश्मीर कूच के संबंध में दिए गए विवरण से एक अंश दिया जा रहा है: इस देश की प्रथा के अनुसार मुझसे दो अच्छे तुर्कमान घोड़े देखने की अपेक्षा की जाती है और मैं अपने साथ एक शक्तिशाली फ़ार॒सी ऊंट तथा चालक, अपने घोड़ों के लिए एक साईस, एक खानसामा
तथा एक सेवक जो हाथ में पानी का पात्र लेकर मेरे घोड़े के आगे चलता है, भी रखता हूँ। मुझे हर उपयोगी वस्तु दी गई है जैसे औसत आकार का एक तंबू, एक दरी, चार बहुत कठोर पर हलके बेतों से बना एक छोटा बिस्तर, एक तकिया, एक बिछौना, भोजन के समय प्रयुक्त गोलाकार चमडे के मेज़पोश, रंगे हुए कपड़ों के कुछ अंगौछे/नैपकिन, खाना बनाने के सामान से भरे तीन छोटे झोले जो सभी एक बड़े झोले में रखे हुए थे, और यह झोला भी एक लंबे-चौड़े तथा सुदृढ़ दुहरे बोरे अथवा चमड़े के पूट्ों से बने जाल में रखा है। इसी तरह इस दुहरे बोरे में स्वामी और सेवकों कौ खाद्य सामग्री, साप्राज्य कपड़े तथा वस्त्र रखे गए हैं। मैंने ध्यानपूर्वक पाँच या छह दिनों के उपभोग के लिए बढ़िया चावल; सौंफ (एक प्रकार का शाक/पौधा) की सुगंध वाली मीठी रोटी, नींबू तथा चीनी का
भंडार साथ रखा है। साथ ही मैं दही को टाँगने और पानी निकालने के लिए प्रयुक्त छोटे, लोहे के अंकुश वाला झोला लेना भी नहीं भूला हूँ। इस देश में नींबू के शरबत और दही से अधिक ताज़गी भरी वस्तु कोई नहीं मानी जाती।
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गरीब किसान
यहाँ बर्नियर द्वारा ग्रामीण अंचल में कृषकों के विषय में दिए गए विवरण से एक उद्धरण दिया जा रहा है:
हिंदुस्तान के साम्राज्य के विशाल ग्रामीण अंचलों में से कई केवल रेतीली भूमियाँ या बंजर पर्वत ही हैं। यहाँ की खेती अच्छी नहीं है और इन इलाकों की आबादी भी कम है। यहाँ तक कि कृषियोग्य भूमि का एक बड़ा हिस्सा भी श्रमिकों के अभाव में कृषि विहीन रह जाता है; इनमें से कई श्रमिक गवर्नरों द्वारा किए गए बुरे व्यवहार के फलस्वरूप मर जाते हैं। गरीब लोग जब अपने लोभी स्वामियों की माँगों को पूरा करने में असमर्थ हो जाते हैं तो उन्हें न केवल जीवन-निर्वहन के साधनों से वंचित कर दिया जाता है, बल्कि उन्हें अपने बच्चों से भी हाथ धोना पड़ता है, जिन्हें दास बना कर ले जाया जाता है। इस प्रकार ऐसा होता है कि इस अत्यंत निरंकुशता से हताश हो किसान गाँव छोड़कर चले जाते हैं।
इस उद्धरण में बर्नियर राज्य और समाज से संबंधित यूरोप में प्रचलित तत्कालीन विवादों में भाग ले रहा था, और उसका प्रयास था कि मुगल कालीन भारत से संबंधित उसका विवरण यूरोप में उन लोगों के लिए एक चेतावनी का कार्य करेगा जो निजी स्वामित्व की “अच्छाइयों” को स्वीकार नहीं करते थे।
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यूरोप के लिए एक चेतावनी
बर्नियर चेतावनी देता है कि यदि यूरोपीय शासकों ने मुगल ढाँचे का अनुसरण किया तो :
उनके राज्य इस प्रकार अच्छी तरह से जुते और बसे हुए, इतनी अच्छी तरह से निर्मित, इतने सपृद्ध, इतने सुशिष्ट तथा फलते-फूलते नहीं रह जाएँगे जैसा कि हम उन्हें देखते हैं। दूसरी दृष्टि से हमारे शासक अमीर और शक्तिशाली हैं; और हमें यह स्वीकार करना चाहिए कि उनकी और बेहतर और राजसी ढंग से सेवा हो। वे जल्द ही रेगिस्तान तथा निर्जन स्थानों के, भिखारियों तथा क्र लोगों के राजा बनकर रह जाएँगे जैसे कि वे जिनके विषय में मैंने वर्ण किया है। (मुगल शासक हम उन महान शहरों और नगरों को खराब हवा के कारण न रहने योग्य अवस्था में पाएंगे, तथा विनाश की स्थिति में, जिनके जीर्णोद्धार की किसी को चिंता नहीं है, व्यक्त टीले और झादधियों अथवा घातक दलदल से भरे हुए खेत, जैसा कि पहले ही बताया गया है।
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एक भिन्न सामाजिक-आर्थिक परिवृश्य
बर्नियर के वृत्तांत से लिए गए इस उद्धरण को पढ़िए जिसमें कृषि तथा शिल्प-उत्पादन दोनों का विवरण दिया गया हैः
यह ध्यान देना आवश्यक है कि इस देश के विस्तृत भू-भाग का अधिकांश भाग अत्यधिक उपजाऊ है; ठदाहरण के लिए, बंगाल का विशाल राज्य जो मिस्र से न केवल चावल, मकई तथा जीवन की अन्य आवश्यक वस्तुओं के उत्पादन में, बल्कि उन अनगिनत वाणिज्यिक वस्तुओं के संदर्भ में, जो मिस्र में भी नहीं उगाई जारी, जैसे रेशम, कपास तथा नील कहीं आगे हैं। भारत के कई ऐसे भाग भी हैं जहाँ जनसंख्या पर्याप्त है और भूमि पर खेती अच्छी होती है; और जहाँ एक शिल्पकार जो हालाँकि मूल रूप से आलसी होता है, आवश्यकता से या किसी अन्य कारण से अपने आप को गलीचों, ज़री, कसीदाकारी कढ़ाई, सोने और चाँदी के वस्त्रों, तथा विभिन्न प्रकार के रेशम तथा सूती वस्त्रों, जो देश में भी प्रयोग होते हैं और विदेश में निर्यात किए जाते हैं, के निर्माण का कार्य
करने के लिए बाध्य हो जाता है।
यह भी नहीं भूलना चाहिए कि पूरे विश्व के सभी भागों में संचलन के पश्चात सोना और चाँदी भारत में आकर कुछ हद तक खो जाता है।
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राजकीय कारखाने
संभवत: बर्नियर एकमात्र ऐसा इतिहासकार है जो राजकीय कारखानों की कार्यप्रणाली का विस्तृत विवरण प्रदान करता है:
कई स्थानों पर बड़े कक्ष दिखाई देते हैं जिन्हें कारखाना अथवा शिल्पकारों की कार्यशाला कहते हैं। एक कक्ष में कसीदाकार एक मास्टर के निरीक्षण में व्यस्तता से कार्यरत रहते हैं। एक अन्य में आप सुनारों को देखते हैं; तीसरे में, चित्रकार; चौथे में, प्रलाक्षा रस का रोगन लगाने वाले; पाँचवें में बढ़ई, खरादी, दर्जी तथा जूते बनाने वाले; छठे में रेशम, जरी तथा महीन मलमल का काम करने वाले...
शिल्पकार अपने कारखानों में हर रोज़ सुबह आते हैं जहाँ वे पूरे दिन कार्यरत रहते हैं; और शाम को अपने-अपने घर चले जाते हैं। इसी निश्चेष्ट नियमित ढंग से उनका समय बीतता जाता है; कोई भी जीवन की उन स्थितियों में सुधार करने का इच्छुक नहीं है जिनमें वह पैदा हुआ था।
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सती बालिका
यह संभवत: बर्नियर के वृत्तांत के सबसे मार्मिक विवरणों में से एक हैः
लाहौर में मैंने एक बहुत ही सुंदर अल्पवयस्क विधवा जिसकी आयु मेरे विचार में बारह वर्ष से अधिक नहीं थी, की बलि होते हुए देखी। उस भयानक नर्क की ओर जाते हुए वह असहाय छोटी बच्ची जीवित से अधिक मृत
प्रतीत हो रही थी; उसके मस्तिष्क की व्यथा का वर्णन नहीं किया जा सकता; वह काँपते हुए बुरी तरह से रो रही थी; लेकिन तीन या चार ब्राह्मण, एक बूढ़ी औरत, जिसने उसे अपनी आस्तीन के नीचे दबाया हुआ था, की सहायता से उस अनिच्छुक पीड़िता को जबरन घातक स्थल की ओर ले गए, उसे लकडियों पर बैठाया, उसके हाथ और पैर बाँध दिए ताकि वह भाग न जाए और इस स्थिति में उस मासूम प्राणी को जिन्दा जला दिया गया। मैं
अपनी भावनाओं को दबाने में और उनके कोलाहलपूर्ण तथा व्यर्थ के क्रोध को बाहर आने से रोकने में असमर्थ था...
फ्रांस का रहने वाला फ्रांस्वा बर्नियर एक चिकित्सक, राजनीतिक दार्शनिक तथा एक इतिहासकार था। कई और लोगों की तरह ही वह मुगल साम्राज्य में अवसरों की तलाश में आया था। वह 1656 से 1668 तक भारत में बारह वर्ष तक रहा और मुगल दरबार से नज़दीकी रूप से जुड़ा रहा-पहले सम्राट शाहजहाँ के ज्येष्ठ पुत्र दारा
शिकोह के चिकित्सक के रूप में, और बाद में मुगल दरबार के एक आर्मीनियाई अमीर दानिशमंद ख़ान के साथ एक बुद्धिजीवी तथा वैज्ञानिक के रूप में।
3.1 “पूर्व” और “पश्चिम” को तुलना
बर्नियर ने देश के कई भागों की यात्रा की और जो देखा उसके विषय में विवरण लिखे। वह सामान्यतः भारत में जो देखता था उसकी तुलना यूरोपीय स्थिति से करता था। उसने अपनी प्रमुख कृति को फ्रांस के शासक लुई जाए को समर्पित किया था और उसके कई अन्य कार्य प्रभावशाली आधिकारियों और मंत्रियों को पत्रों के रूप में लिखे गए थे। लगभग प्रत्येक दुष्टांत में बर्नियर ने भारत की स्थिति को यूरोप में हुए विकास की तुलना में दयनीय बताया। जैसाकि हम देखेंगे उसका आकलन हमेशा सटीक नहीं था फिर भी जब उसके कार्य प्रकाशित हुए
तो बर्नियर के वृत्तांत अत्यधिक प्रसिद्ध हुए।
बर्नियर के कार्य फ्रांस में 1670-71 में प्रकाशित हुए थे, और अगले पाँच वर्षों के भीतर ही अंग्रेजी, डच, जर्मन तथा इतालवी भाषाओं में इनका अनुवाद हो गया। 1670 और 1725 के बीच उसका चवृत्तांत फ्रांसीसी में आठ बार पुनर्मुद्रित हो चुका था और 1684 तक यह तीन बार अंग्रेज़ी में पुनर्मुद्रित हुआ था। यह अरबी और फ़ारसी वृत्तांतों
जिनका प्रसार हस्तलिपियों के रूप में होता था और जो 1800 से पहले सामान्यत: प्रकाशित नहीं होते थे, के पूरी तरह विपरीत था।
6. बर्नियर तथा “अपविकसित ” पूर्व
जहाँ इब्न बतूता ने हर उस चीज़ का वर्णन करने का निश्चय किया जिसने उसे अपने अनूठेपन के कारण प्रभावित और उत्सुक किया, वहीं बर्नियर एक भिन्न बुद्धिजीवी परंपरा से संबंधित था। उसने भारत में जो भी देखा, वह उसकी सामान्य रूप से यूरोप और विशेष रूप से फ्रांस में व्याप्त स्थितियों से तुलना तथा भिन्नता को उजागर करने के प्रति अधिक चिंतित था, विशेष रूप से वे स्थितियाँ जिन्हें उसने अवसादकारी पाया। उसका विचार नीति-निर्माताओं तथा बुद्धिजीवी वर्ग को प्रभावित करने का था ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि ये ऐसे निर्णय ले
सकें जिन्हें वह “सही” मानता था।
बर्नियर के ग्रंथ ट्रैवल्स इन द मुगल एस्पायर अपने गहन प्रेक्षण, आलोचनात्मक अंतर्दृष्टि तथा गहन चिंतन के लिए उल्लेखनीय है। उसके वृत्तांत में की गई चर्चाओं में मुगलों के इतिहास को एक प्रकार के वैश्विक ढाँचे में स्थापित करने का प्रयास किया गया है। वह निरंतर मुग़लकालीन भारत की तुलना तत्कालीन यूरोप से करता रहा, सामान्यतया यूरोप की श्रेष्ठता को रेखांकित करते हुए। उसका भारत का चित्रण द्वि विपरीतता के नमूने पर आधारित है, जहाँ भारत को यूरोप के प्रतिलोम के रूप में दिखाया गया है, या फिर यूरोप का “विपरीत ”' जैसा
कि कुछ इतिहासकार परिभाषित करते हैं। उसने जो भिन्नताएँ महसूस कीं उन्हें भी पदानुक्रम के अनुसार क़मबद्ध किया, जिससे भारत, पश्चिमी दुनिया को निम्न कोटि का प्रतीत हो।
6.1 भूमि स्वामित्व का प्रश्न
बर्नियर के अनुसार भारत और यूरोप के बीच मूल भिन्नताओं में से एक भारत में निजी भूस्वामित्व का अभाव था। उसका निजी स्वामित्व के गुणों में दृढ़ विश्वास था और उसने भूमि पर राजकीय स्वामित्व को राज्य तथा उसके निवासियों, दोनों के लिए हानिकारक माना। उसे यह लगा कि मुग़ल साम्राज्य में सम्राट सारी भूमि का स्वामी था जो इसे अपने अमीरों के बीच बाँटता था, और इसके अर्थव्यवस्था और समाज के लिए अनर्थकारी परिणाम होते थे। इस प्रकार का अवबोधन बर्नियर तक ही सीमित नहीं था बल्कि सोलहवीं तथा सत्रहवीं शताब्दी के अधिकांश यात्रियों के बृत्तांतों में मिलता है।
राजकीय भृस्वामित्व के कारण, बर्नियर तर्क देता है, भूधारक अपने बच्चों को भूमि नहीं दे सकते थे। इसलिए वे उत्पादन के स्तर को बनाए रखने ओर उसमें बढ़ोत्तरी के लिए दूरगामी निवेश के प्रति उदासीन थे।
इस प्रकार, निजी भूस्वामित्व के अभाव ने “बेहतर'' भूधारकों के वर्ग के उदय (जैसा कि पश्चिमी यूरोप में) को रोका जो भूमि के रखरखाव व बेहतरी के प्रति सजग रहते। इसी के चलते कृषि का समान रूप से विनाश, किसानों का असीम उत्पीड़न तथा समाज के सभी वर्गों के जीवन स्तर में अनवस्त पतन की स्थिति उत्पन्न हुई है, सिवाय शासक वर्ग के।
इसी के विस्तार के रूप में बर्नियर भारतीय समाज को दरिद्र लोगों के समरूप जनसमूह से बना वर्णित करता है, जो एक बहुत अमीर तथा शक्तिशाली शासक वर्ग, जो अल्पसंख्यक होते हैं, के द्वारा अधीन बनाया जाता है। गरीबों में सबसे गरीब तथा अपीरों में सबसे अमीर व्यक्ति के बीच नाममात्र को भी कोई सामाजिक समूह या वर्ग नहीं था। बर्नियर बहुत विश्वास से कहता है, “ भारत में मध्य की स्थिति के लोग नहीं है।”
तो बर्नियर ने मुग़ल साम्राज्य को इस रूप में देखा-इसका राजा “भिखारियों और क़ूर लोगों" का राजा था; इसके शहर और नगर विनष्ट तथा “खराब हवा” से दूषित थे; और इसके खेत “झाड़ीदार” तथा “घातक दलदल” से भरे हुए थे और इसका मात्र एक ही कारण था- राजकीय भुस्वामित्व।
आश्चर्य की बात यह है कि एक भी सरकारी मुग़ल दस्तावेज़ यह इंगित नहीं करता कि राज्य ही भूमि का एकमात्र स्वामी था। उदाहरण के लिए, सोलहवीं शताब्दी में अकबर के काल का सरकारी इतिहासकार अबुल फ़ज्ल भूमि राजस्व को 'राजत्व का पारिश्रमिक' बताता है जो राजा द्वारा अपनी प्रजा को सुरक्षा प्रदान करने के बदले की गई माँग प्रतीत होती है न कि अपने स्वामित्व वाली भूमि पर लगान। ऐसा संभव है कि यूरोपीय यात्री ऐसी माँगों को लगान मानते थे क्योंकि भूमि राजस्व की माँग अकसर बहुत अधिक होती थी। लेकिन असल में यह न तो लगान था, न ही भूमिकर, बल्कि उपज पर लगने वाला कर था (अधिक जानकारी के लिए अध्याय 8 देखिए)।
बर्नियर के विवरणों ने अठारहवीं शताब्दी से पश्चिमी विचारकों को प्रभावित किया। उदाहरण के लिए, फ्रांसीसी दार्शनिक मॉन््टेस्क्यू ने उसके वृत्तांत का प्रयोग प्राच्य निरंकुशवाद के सिद्धांत को विकसित करने में किया, जिसके अनुसार एशिया (प्राच्य अथवा पूर्व) में शासक अपनी प्रजा के ऊपर निर्बाध प्रभुत्तव का उपभोग करते थे, जिसे दासता और गरीबी की स्थितियों में रखा जाता था। इस तर्क का आधार यह था कि सारी भूमि पर राजा का स्वामित्व होता था तथा निजी संपत्ति अस्तित्व में नहीं थी। इस दृष्टिकोण के अनुसार राजा और उसके अमीर वर्ग को छोड़ प्रत्येक व्यक्ति मुश्किल से गुजर-बसर कर पाता था।
उनन्नीसवीं शताब्दी में कार्ल मार्क्स ने इस विचार को एशियाई उत्पादन शैली के सिद्धांत के रूप में और आगे बढ़ाया। उसने यह तर्क दिया कि भारत (तथा अन्य एशियाई देशों) में उपनिवेशवाद से पहले अधिशेष का अधिग्रहण राज्य द्वारा होता था। इससे एक ऐसे समाज का उद्भव हुआ जो बड़ी संख्या में स्वायत्त तथा (आंतरिक रूप से) समतावादी ग्रामीण समुदायों से बना था। इन ग्रामीण समुदायों पर राजकीय दरबार का नियंत्रण होता था और जब तक अधिशेष की आपूर्ति निर्विष्न रूप से जारी रहती थी, इनकी स्वायत्तता का सम्मान किया जाता था। यह एक निष्क्रिय प्रणाली मानी जाती थी।
परंतु, जैसा कि हम देखेंगे (अध्याय 8) ग्रामीण समाज का यह चित्रण सच्चाई से बहुत दूर था। बल्कि सोलहवीं और सत्रहवीं शताब्दी में ग्रामीण समाज में चारित्रिक रूप से बड़े पैमाने पर सामाजिक और आर्थिक विभेद था। एक ओर बड़े ज़मींदार थे जो भूमि पर उच्चाधिकारों का उपभोग करते थे और दूसरी ओर “अस्पृश्य” भूमिविहीन श्रमिक (बलाहार)। इन दोनों के बीच में बड़ा किसान था जो किराए के श्रम का प्रयोग करता था और माल उत्पादन में संलग्न रहता था; साथ ही अपेक्षाकृत छोटे किसान भी थे जो मुश्किल से ही निर्वहन लायक उत्पादन कर पाते थे।
एक अधिक जटिल सामाजिक सच्चाई
हालाँकि मुगल राज्य को निरंकुश रूप देने की तन्मयता स्पष्ट है, लेकिन उसके विवरण कभी-कभी एक अधिक जटिल सामाजिक सच्चाई की ओर इशारा करते हैं। उदाहरण के लिए वह कहता है कि शिल्पकारों के पास अपने उत्पादों को बेहतर बनाने का कोई प्रोत्साहन नहीं था क्योंकि मुनाफ़े का अधिग्रहण राज्य द्वारा कर लिया जाता था। इसलिए उत्पादन हर जगह पतनोन्मुख था। साथ ही वह यह भी मानता है कि पूरे विश्व से बड़ी मात्रा में बहुमूल्य धातुएँ भारत में आती थीं क्योंकि उत्पादों का सोने और चाँदी के बदले निर्यात होता था। वह एक समृद्ध व्यापारिक समुदाय जो लंबी दुरी के विनिमय से संलग्न था, के अस्तित्व को भी रेखांकित करता है।
सत्रहवीं शताब्दी में जनसंख्या का लगभग पंद्रह प्रतिशत भाग नगरों में रहता था। यह औसतन उसी समय पश्चिमी यूरोप की नगरीय जनसंख्या के अनुपात से अधिक था। इतने पर भी, बर्नियर मुगलकालीन शहरों को “शिविर नगर” कहता हे, जिससे उसका आशय उन नगरों से था जो अपने अस्तित्व और बने रहने के लिए राजकीय शिविर पर निर्भर थे। उसका विश्वास था कि ये राजकीय दरबार के आगमन के साथ अस्तित्व में आते थे और इसके कहीं और चले जाने के बाद तेज्ञी से पतनोन्मुख हो जाते थे। उसने यह भी सुझाया कि इनकी सामाजिक और आर्थिक नीव व्यवहार्य नहीं होती थी और ये राजकीय प्रश्नय पर आश्रित रहते थे।
भूस्वामित्व के प्रश्न की तरह ही बर्नियर एक अतिसरलीकृत चित्रण प्रस्तुत कर रहा था। वास्तव में सभी प्रकार के नगर अस्तित्व में थे: उत्पादन केंद्र, व्यापारिक नगर, बंदरगाह नगर, धार्मिक केंद्र, तीर्थ स्थान आदि। इनका अस्तित्व समृद्ध व्यापारिक समुदायों तथा व्यावसायिक वर्गों के अस्तित्व का सूचक हेै।
व्यापारी अक्सर मजबूत सामुदायिक अथवा बंधुत्व के संबंधों से जुडे होते थे और अपनी जाति तथा व्यावसायिक संस्थाओं के माध्यम से संगठित रहते थे। पश्चिमी भारत में ऐसे समूहों को महाजन कहा जाता था और उनके मुखिया को सेठ। अहमदाबाद जैसे शहरी केंद्रों में सभी महाजनों का सामूहिक प्रतिनिधित्व व्यापारिक समुदाय के मुखिया द्वारा होता था जिसे नगर सेठ कहा जाता था।
अन्य शहरी समूहों में व्यावसायिक वर्ग जैसे चिकित्सक (हकीम अथवा वैद्य), अध्यापक (पंडित या मुल्ला), अधिवक्ता (वकील), चित्रकार, वास्तुविद, संगीतकार, सुलेखक आदि सम्मिलित थे। जहाँ कई राजकीय प्रश्नय पर आश्रित थे, कई अन्य संरक्षकों या भीड्भाड़ वाले बाज़ार में आम लोगों की सेवा द्वारा जीवनयापन करते थे।
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मुग़ल सेना के साथ यात्रा
बर्नियर ने कई बार मुगल सेना के साथ यात्राएँ की। यहाँ सेना के कश्मीर कूच के संबंध में दिए गए विवरण से एक अंश दिया जा रहा है: इस देश की प्रथा के अनुसार मुझसे दो अच्छे तुर्कमान घोड़े देखने की अपेक्षा की जाती है और मैं अपने साथ एक शक्तिशाली फ़ार॒सी ऊंट तथा चालक, अपने घोड़ों के लिए एक साईस, एक खानसामा
तथा एक सेवक जो हाथ में पानी का पात्र लेकर मेरे घोड़े के आगे चलता है, भी रखता हूँ। मुझे हर उपयोगी वस्तु दी गई है जैसे औसत आकार का एक तंबू, एक दरी, चार बहुत कठोर पर हलके बेतों से बना एक छोटा बिस्तर, एक तकिया, एक बिछौना, भोजन के समय प्रयुक्त गोलाकार चमडे के मेज़पोश, रंगे हुए कपड़ों के कुछ अंगौछे/नैपकिन, खाना बनाने के सामान से भरे तीन छोटे झोले जो सभी एक बड़े झोले में रखे हुए थे, और यह झोला भी एक लंबे-चौड़े तथा सुदृढ़ दुहरे बोरे अथवा चमड़े के पूट्ों से बने जाल में रखा है। इसी तरह इस दुहरे बोरे में स्वामी और सेवकों कौ खाद्य सामग्री, साप्राज्य कपड़े तथा वस्त्र रखे गए हैं। मैंने ध्यानपूर्वक पाँच या छह दिनों के उपभोग के लिए बढ़िया चावल; सौंफ (एक प्रकार का शाक/पौधा) की सुगंध वाली मीठी रोटी, नींबू तथा चीनी का
भंडार साथ रखा है। साथ ही मैं दही को टाँगने और पानी निकालने के लिए प्रयुक्त छोटे, लोहे के अंकुश वाला झोला लेना भी नहीं भूला हूँ। इस देश में नींबू के शरबत और दही से अधिक ताज़गी भरी वस्तु कोई नहीं मानी जाती।
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गरीब किसान
यहाँ बर्नियर द्वारा ग्रामीण अंचल में कृषकों के विषय में दिए गए विवरण से एक उद्धरण दिया जा रहा है:
हिंदुस्तान के साम्राज्य के विशाल ग्रामीण अंचलों में से कई केवल रेतीली भूमियाँ या बंजर पर्वत ही हैं। यहाँ की खेती अच्छी नहीं है और इन इलाकों की आबादी भी कम है। यहाँ तक कि कृषियोग्य भूमि का एक बड़ा हिस्सा भी श्रमिकों के अभाव में कृषि विहीन रह जाता है; इनमें से कई श्रमिक गवर्नरों द्वारा किए गए बुरे व्यवहार के फलस्वरूप मर जाते हैं। गरीब लोग जब अपने लोभी स्वामियों की माँगों को पूरा करने में असमर्थ हो जाते हैं तो उन्हें न केवल जीवन-निर्वहन के साधनों से वंचित कर दिया जाता है, बल्कि उन्हें अपने बच्चों से भी हाथ धोना पड़ता है, जिन्हें दास बना कर ले जाया जाता है। इस प्रकार ऐसा होता है कि इस अत्यंत निरंकुशता से हताश हो किसान गाँव छोड़कर चले जाते हैं।
इस उद्धरण में बर्नियर राज्य और समाज से संबंधित यूरोप में प्रचलित तत्कालीन विवादों में भाग ले रहा था, और उसका प्रयास था कि मुगल कालीन भारत से संबंधित उसका विवरण यूरोप में उन लोगों के लिए एक चेतावनी का कार्य करेगा जो निजी स्वामित्व की “अच्छाइयों” को स्वीकार नहीं करते थे।
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यूरोप के लिए एक चेतावनी
बर्नियर चेतावनी देता है कि यदि यूरोपीय शासकों ने मुगल ढाँचे का अनुसरण किया तो :
उनके राज्य इस प्रकार अच्छी तरह से जुते और बसे हुए, इतनी अच्छी तरह से निर्मित, इतने सपृद्ध, इतने सुशिष्ट तथा फलते-फूलते नहीं रह जाएँगे जैसा कि हम उन्हें देखते हैं। दूसरी दृष्टि से हमारे शासक अमीर और शक्तिशाली हैं; और हमें यह स्वीकार करना चाहिए कि उनकी और बेहतर और राजसी ढंग से सेवा हो। वे जल्द ही रेगिस्तान तथा निर्जन स्थानों के, भिखारियों तथा क्र लोगों के राजा बनकर रह जाएँगे जैसे कि वे जिनके विषय में मैंने वर्ण किया है। (मुगल शासक हम उन महान शहरों और नगरों को खराब हवा के कारण न रहने योग्य अवस्था में पाएंगे, तथा विनाश की स्थिति में, जिनके जीर्णोद्धार की किसी को चिंता नहीं है, व्यक्त टीले और झादधियों अथवा घातक दलदल से भरे हुए खेत, जैसा कि पहले ही बताया गया है।
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एक भिन्न सामाजिक-आर्थिक परिवृश्य
बर्नियर के वृत्तांत से लिए गए इस उद्धरण को पढ़िए जिसमें कृषि तथा शिल्प-उत्पादन दोनों का विवरण दिया गया हैः
यह ध्यान देना आवश्यक है कि इस देश के विस्तृत भू-भाग का अधिकांश भाग अत्यधिक उपजाऊ है; ठदाहरण के लिए, बंगाल का विशाल राज्य जो मिस्र से न केवल चावल, मकई तथा जीवन की अन्य आवश्यक वस्तुओं के उत्पादन में, बल्कि उन अनगिनत वाणिज्यिक वस्तुओं के संदर्भ में, जो मिस्र में भी नहीं उगाई जारी, जैसे रेशम, कपास तथा नील कहीं आगे हैं। भारत के कई ऐसे भाग भी हैं जहाँ जनसंख्या पर्याप्त है और भूमि पर खेती अच्छी होती है; और जहाँ एक शिल्पकार जो हालाँकि मूल रूप से आलसी होता है, आवश्यकता से या किसी अन्य कारण से अपने आप को गलीचों, ज़री, कसीदाकारी कढ़ाई, सोने और चाँदी के वस्त्रों, तथा विभिन्न प्रकार के रेशम तथा सूती वस्त्रों, जो देश में भी प्रयोग होते हैं और विदेश में निर्यात किए जाते हैं, के निर्माण का कार्य
करने के लिए बाध्य हो जाता है।
यह भी नहीं भूलना चाहिए कि पूरे विश्व के सभी भागों में संचलन के पश्चात सोना और चाँदी भारत में आकर कुछ हद तक खो जाता है।
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राजकीय कारखाने
संभवत: बर्नियर एकमात्र ऐसा इतिहासकार है जो राजकीय कारखानों की कार्यप्रणाली का विस्तृत विवरण प्रदान करता है:
कई स्थानों पर बड़े कक्ष दिखाई देते हैं जिन्हें कारखाना अथवा शिल्पकारों की कार्यशाला कहते हैं। एक कक्ष में कसीदाकार एक मास्टर के निरीक्षण में व्यस्तता से कार्यरत रहते हैं। एक अन्य में आप सुनारों को देखते हैं; तीसरे में, चित्रकार; चौथे में, प्रलाक्षा रस का रोगन लगाने वाले; पाँचवें में बढ़ई, खरादी, दर्जी तथा जूते बनाने वाले; छठे में रेशम, जरी तथा महीन मलमल का काम करने वाले...
शिल्पकार अपने कारखानों में हर रोज़ सुबह आते हैं जहाँ वे पूरे दिन कार्यरत रहते हैं; और शाम को अपने-अपने घर चले जाते हैं। इसी निश्चेष्ट नियमित ढंग से उनका समय बीतता जाता है; कोई भी जीवन की उन स्थितियों में सुधार करने का इच्छुक नहीं है जिनमें वह पैदा हुआ था।
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सती बालिका
यह संभवत: बर्नियर के वृत्तांत के सबसे मार्मिक विवरणों में से एक हैः
लाहौर में मैंने एक बहुत ही सुंदर अल्पवयस्क विधवा जिसकी आयु मेरे विचार में बारह वर्ष से अधिक नहीं थी, की बलि होते हुए देखी। उस भयानक नर्क की ओर जाते हुए वह असहाय छोटी बच्ची जीवित से अधिक मृत
प्रतीत हो रही थी; उसके मस्तिष्क की व्यथा का वर्णन नहीं किया जा सकता; वह काँपते हुए बुरी तरह से रो रही थी; लेकिन तीन या चार ब्राह्मण, एक बूढ़ी औरत, जिसने उसे अपनी आस्तीन के नीचे दबाया हुआ था, की सहायता से उस अनिच्छुक पीड़िता को जबरन घातक स्थल की ओर ले गए, उसे लकडियों पर बैठाया, उसके हाथ और पैर बाँध दिए ताकि वह भाग न जाए और इस स्थिति में उस मासूम प्राणी को जिन्दा जला दिया गया। मैं
अपनी भावनाओं को दबाने में और उनके कोलाहलपूर्ण तथा व्यर्थ के क्रोध को बाहर आने से रोकने में असमर्थ था...
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