सोमवार, 24 दिसंबर 2018

आज़ादी की लड़ाई (1870 से 1947)

class 8 - history - chapter 11

पिछले अध्यायों में हम निम्नलिखित का अध्ययन कर चुके हैं

७ भारतीय भुक्षेत्र पर अंग्रेज़ों का कब्ज़ा और रियासतों का अधिग्रहण

७ नये कानूनों और प्रशासकीय संस्थाओं की शुरुआत

७ किसानों और आदिवासियों की ज़िंदगी में बदलाव

७ उननीसवीं सदी में आए शैक्षणिक बदलाव

४ महिलाओं की स्थिति से संबंधित वाद-विवाद

७ जाति व्यवस्था को चुनौतियाँ

७ सामाजिक एवं धार्मिक सुधार

४ 1857 का विद्रोह और उसके बाद की स्थिति

४ हस्तकलाओं का पतन और उद्योगों का विकास

इन मुद्दों के बारे में आपने जो कुछ पढ़ा, उसके आधार पर क्‍या आपको ऐसा लगता है कि भारत के लोग ब्रिटिश शासन से असंतुष्ट थे? यदि हाँ तो विभिन्न समूह और वर्ग क्‍यों असंतुष्ट थे?

राष्ट्रवाद का उदय

उपरोक्त बदलावों ने लोगों को एक अहम सवाल के बारे में सोचने के लिए विवश कर दिया : यह देश क्‍या है और किसके लिए है? इसका जवाब धीरे-धीरे इस रूप में सामने आया : भारत का मतलब है यहाँ की जनता भारत, यहाँ रहने वाले किसी भी वर्ग, रंग, जाति, पंथ, भाषा या जेंडर वाले तमाम लोगों का घर है। यह देश और इसके सारे संसाधन और इसकी सारी व्यवस्था उन सभी के लिए है। इस जवाब के साथ ये अहसास भी सामने आया कि अंग्रेज़ भारत के संसाधनों व यहाँ के लोगों की ज़िदगी पर कब्ज़ा जमाए हुए हैं और जब तक यह नियंत्रण खत्म नहीं होता, भारत यहाँ के लोगों का, भारतीयों का नहीं हो सकता।

यह चेतना 1850 के बाद बने राजनीतिक संगठनों में साफ दिखाई देने लगी थी। 1870 और 1880 के दशकों में बने राजनीतिक संगठनों में यह चेतना और गहरी हो चुकी थी। इनमें से ज्यादतर संगठनों की बागडोर वकील आदि अंग्रेज़ी शिक्षित पेशेवरों के हाथों में थी। पूना सार्वजनिक सभा, इंडियन एसोसिएशन, मद्रास महाजन सभा, बॉम्बे रेज़ीडेंसी एसोसिएशन और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस आदि इस तरह के प्रमुख संगठन थे।

“पूना सार्वजनिक सभा” नाम को गौर से देखिए। “सार्वजनिक” का मतलब होता है “सब लोगों का या सबके लिए” (सर्व-सभी , जनिक-लोगों का)। हालांकि इनमें से बहुत सारे संगठन देश के खास हिस्सों में काम कर रहे थे लेकिन वे अपने लक्ष्य को भारत के सभी लोगों का लक्ष्य बताते थे। उनके मुताबिक, उनके लक्ष्य किसी खास इलाके, समुदाय या वर्ग के लक्ष्य नहीं थे। वे इस सोच के साथ काम कर रहे थे कि लोग सम्प्रभु हों। सम्प्रभुता एक आधुनिक विचार और राष्ट्रवाद का बुनियादी तत्व होता है। ये संगठन इस धारणा से चलते थे कि भारतीय जनता को अपने मामलों के बारे में फैसले लेने की आज़ादी होनी चाहिए।

1870 और 1880 के दशकों में ब्रिटिश शासन के प्रति असंतोष और ज़्यादा गहरा हुआ। 1878 में आर्म्स एक्ट पारित किया गया जिसके जरिए भारतीयों द्वारा अपने पास हथियार रखने का अधिकार छीन लिया गया। उसी साल वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट भी पारित किया गया जिससे सरकार की आलोचना करने वालों को चुप कराया जा सके। इस कानून में प्रावधान था कि अगर किसी अखबार में कोई ' आपत्तिजनक” चीज छपती है तो सरकार उसकी प्रिंटिंग प्रेस सहित सारी सम्पत्ति को जब्त कर सकती है। 1883 में सरकार ने इल्बर्ट बिल लागू करने का प्रयास किया। इसको लेकर काफी हंगामा हुआ। इस विधेयक में प्रावधान किया गया था कि भारतीय न्यायाधीश भी ब्रिटिश या यूरोपीय व्यक्तियों पर मुकदमे चला सकते हैं ताकि भारत में काम करने वाले अंग्रेज़ और भारतीय न्यायाधीशों के बीच समानता स्थापित की जा सके। जब अंग्रेजों के विरोध की वजह से सरकार ने यह विधेयक वापस ले लिया तो भारतीयों ने इस बात का काफी विरोध किया। इस घटना से भारत में अंग्रेजों के असली रवैये का पता चलता था।

पढ़े-लिखे भारतीयों के एक अखिल भारतीय संगठन की ज़रूरत 1880 से ही महसूस की जा रही थी परन्तु इल्बर्ट विधेयक ने इस चाह को और गहरा कर दिया था। 1885 में देश भर के 72 प्रतिनिधियों ने बम्बई में सभा करके भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना का फैसला लिया। संगठन के प्रारम्भिक नेता - दादा भाई नौरोजी, फिरोजशाह मेहता, बदरूद्दीन तैयब जी, डब्ल्यू सी. बैनर्जी, सुरेन्द्रनाथ बैनर्जी, रोमेशचन्द्र दत्त, एस. सुब्रमण्यम अयूयर एवं अन्य - प्राय: बम्बई और कलकत्ता के ही थे। नौरोजी व्यवसायी और प्रचारक थे। वे लंदन में रहते थे और कुछ समय के लिए ब्रिटिश संसद के सदस्य भी रहे। उन्होंने युवा राष्ट्रवादियों का मार्गदर्शन किया। सेवानिवृत्त ब्रिटिश अफसर ए,ओ.हयूम ने भी विभिन क्षेत्रों के भारतीयों को निकट लाने में अहम भूमिका अदा की।

उभरता हुआ राष्ट्‌

अकसर कहा जाता है कि अपने पहले बीस सालों में कांग्रेस अपने उद्देश्य और तरीकों के लिहाज़ से “मध्यमार्गी” पार्टी थी। इस दौरान कांग्रेस ने सरकार और शासन में भारतीयों को और ज़्यादा जगह दिए जाने के लिए आवाज्ञ उठाई। कांग्रेस का आग्रह था कि विधान परिषदों में भारतीयों को ज़्यादा जगह दी जाए, परिषदों को ज़्यादा अधिकार दिए जाएँ और जिन प्रांतों में परिषदें नहीं हैं वहाँ उनका गठन किया जाए। कांग्रेस चाहती थी कि सरकार में भारतीयों को भी ऊँचे पद दिए जाएँ। इस काम के लिए उसने माँग की कि सिविल सेवा के लिए लंदन के साथ-साथ भारत में भी परीक्षा आयोजित की जाए।

शासन व्यवस्था के भारतीयकरण की माँग नसलवाद के खिलाफ चल रहे आंदोलन का एक हिस्सा थी क्योंकि तब तक ज़्यादातर महत्वपूर्ण नौकरियों पर गोरे अफसरों का ही कब्जा था। अंग्रेज आमतौर पर यह मानकर चलते थे कि भारतीयों को जिम्मेदारी भरे पद नहीं दिए जा सकते। क्योंकि अंग्रेज अफसर अपने भारी-भरकम वेतन का एक बड़ा हिस्सा ब्रिटेन भेज देते थे इसलिए लोगों को उम्मीद थी कि भारतीयकरण से यहाँ की धन-सम्पत्ति भी कुछ हद तक भारत में रुकने लगेगी। भारतीयों की माँग थी कि न्यायपालिका को कार्यपालिका से अलग किया जाए, आर्म्स एक्ट को निरस्त किया जाए और अभिव्यक्ति व बोलने की स्वतंत्रता दी जाए।

शुरुआती सालों में कांग्रेस ने कई आर्थिक मुद्दे भी उठाए। उसका कहना था कि भारत में ब्रिटिश शासन की वजह से ही गरीबी और अकाल पड़ रहे हैं। बढ़ते लगान के कारण काश्तकार और ज़मींदार विपनन्‍न हो गए थे और अनाजों के भारी निर्यात की वजह से खाद्य पदार्थों का अभाव पैदा हो गया था। कांग्रेस की माँग थी कि लगान कम किया जाए, फौजी खचों में कटौती की जाए और सिंचाई के लिए ज़्यादा अनुदान दिए जाएँ। उसने नमक कर, विदेशों में भारतीय मज़दूरों के साथ होने वाले बर्ताव तथा भारतीयों के कामों में दखलअंदाजी करने वाले वन प्रशासन की वजह से वनवासियों की बढ़ती मुसीबतों के बारे में बहुत सारे प्रस्ताव पारित किए। इससे पता चलता है कि पढ़े लिखे सम्पन्न वर्ग की संस्था होते हुए भी कांग्रेस केवल पेशेवर समूहों, ज़मींदारों और उद्योगपतियों के हक में ही नहीं बोल रही थी।

मध्यमार्गी नेता जनता को ब्रिटिश शासन के 2 र्ण चरित्र से अवगत कराना चाहते थे। उन्होंने अखबार निकाले, लेख लिखे और यह साबित करने का प्रयास किया कि ब्रिटिश शासन देश को आर्थिक तबाही की ओर ले जा रहा है। उन्होंने अपने भाषणों में ब्रिटिश शासन की निंदा की और जनमत निर्माण के लिए देश के विभिन्‍न भागों में अपने प्रतिनिधि भेजे। लेकिन मध्यमार्गियों को ये भी लगता था कि अंग्रेज स्वतंत्रता व न्याय के आदर्शों का सम्मान करते हैं इसलिए वे भारतीयों की न्यायसंगत माँगों को स्वीकार कर लेंगे। लिहाजा, कांग्रेस का मानना था कि सरकार को भारतीयों की भावना से अवगत कराया जाना चाहिए।

“स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है”

1890 के दशक तक बहुत सारे लोग कांग्रेस के राजनीतिक तौर-तरीकों पर सवाल खड़ा करने लगे थे। बंगाल, पंजाब और महाराष्ट्र में बिपिनचंद्र पाल, बाल गंगाधार तिलक और लाला लाजपत राय जैसे नेता ज़्यादा आमूल परिवर्तनवादी उद्देश्य और पद्धतियों के अनुरूप काम करने लगे थे। उन्होंने “निवेदन की राजनीति” के लिए नरमपंथियों की आलोचना की और आत्मनिर्भरता तथा रचनात्मक कामों के महत्त्व पर जोर दिया। उनका कहना था कि लोगों को सरकार के “नेक ” इरादों पर नहीं बल्कि अपनी ताकत पर भरोसा करना चाहिए : लोगों को स्वराज के लिए लड़ना चाहिए। तिलक ने नारा दिया - “स्वतंत्रता मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूँगा!”

1905 में वायसराय कर्जन ने बंगाल का विभाजन कर दिया। उस वक्‍त बंगाल ब्रिटिश भारत का सबसे बड़ा प्रांत था। बिहार और उड़ीसा के कुछ भाग भी उस समय बंगाल का हिस्सा थे। अंग्रेज़ों का कहना था कि प्रशासकीय सुविधा को ध्यान में रखते हुए बंगाल का बँटवारा करना ज़रूरी था। परन्तु इस “प्रशासकीय सुविधा” का मतलब क्या था? इससे किसको “सुविधा” मिलने वाली थी? ज़ाहिर है इसका ताल्लुक अंग्रेज़ अफसरों और व्यापारियों के फायदे से था। लेकिन सरकार ने गैर-बंगाली इलाकों को अलग करने की बजाय उसके पूर्वी भागों को अलग करके असम में मिला दिया। पूर्वी बंगाल को अलग करने के पीछे अंग्रेज़ों का मुख्य उद्देश्य ये रहा होगा कि बंगाली राजनेताओं के प्रभाव पर अंकुश लगाया जाए और बंगाली जनता को बाँट दिया जाए। बंगाल के विभाजन से देश भर में गुस्से की लहर फैल गई। मध्यमार्गी और आमूल परिवर्तनवादी, कांग्रेस के सभी धड़ों ने इसका विरोध किया। विशाल जनसभाओं का आयोजन किया गया और जुलूस निकाले गए। जनप्रतिरोध के नए-नए रास्ते ढूँढे गए। इससे जो संघर्ष उपजा उसे स्वदेशी आंदोलन के नाम से जाना जाता है। यह आंदोलन बंगाल में सबसे ताकतवर था परन्तु अन्य इलाकों में भी इसकी भारी अनुगूँज सुनाई दी। उदाहरण के लिए, आंध्र के डेल्टा इलाकों में इसे बंदेमातरम्‌ आंदोलन के नाम से जाना जाता था।

स्वदेशी आंदोलन ने ब्रिटिश शासन का विरोध किया और स्वयं सहायता, स्वदेशी उद्यमों, राष्ट्रीय शिक्षा और भारतीय भाषा के उपयोग को बढ़ावा दिया। स्वराज के लिए आमूल परिवर्तनवादी ने जनता को लामबंद करने और ब्रिटिश संस्थानों व वस्तुओं के बहिष्कार पर ज़ोर दिया। कुछ लोग ब्रिटिश शासन को उखाड़ फेंकने के लिए “क्रांतिकारी हिंसा” के समर्थक थे।

बीसवीं शताब्दी के प्रारॉभक दशकों में कई दूसरी महत्वपूर्ण घटनाएँ भी घर्टीं। 1906 में मुसलमान ज़मींदारों और नवाबों के एक समूह ने ढाका में ऑल इंडिया मुसलिम लीग का गठन किया। लीग ने बंगाल विभाजन का समर्थन किया। लीग की माँग थी कि मुसलमानों के लिए अलग निर्वाचिका की व्यवस्था की जाए। 1909 में सरकार ने यह माँग मान ली। अब परिषदों में कुछ सीटें मुसलमान उम्मीदवारों के लिए आरक्षित कर दी गईं जिन्हें मुसलिम मतदाताओं द्वारा ही चुनकर भेजा जाना था। इससे राजनेताओं में अपने धार्मिक समुदाय के लोगों को अपना राजनीतिक समर्थक बनाने का लालच पैदा हो गया।

1907 में कांग्रेस टूट गई। मध्यमार्गी धड़ा बहिष्कार की राजनीति के विरुद्ध था। इन लोगों का मानना था कि इसके लिए बल प्रयोग की आवश्यकता होती है जो कि सही नहीं है। संगठन टूटने के बाद कांग्रेस पर मध्यमार्गी का दबदबा बन गया जबकि तिलक के अनुयायी बाहर से काम करने लगे। दिसंबर 1915 में दोनों खेमों में एक बार फिर एकता स्थापित हुई। अगले साल कांग्रेस और मुसलिम लीग के बीच ऐतिहासिक लखनऊ समझौते पर दस्तखत हुए और दोनों संगठनों ने देश में प्रातनिधिक सरकार के गठन के लिए मिलकर काम करने का फैसला लिया।

जनराष्ट्वाद का उदय

1919 के बाद अंग्रेज़ों के खिलाफ चल रहा संघर्ष धीरे-धीरे एक जनांदोलन में तब्दील होने लगा। किसान, आदिवासी, विद्यार्थी और महिलाएँ बड़ी संख्या में इस आंदोलन से जुड़ते गए। कई बार औद्योगिक मज़दुरों ने भी आंदोलन में योगदान दिया। बीस के दशक से कुछ खास व्यावसायिक समूह भी कांग्रेस को सक्रिय समर्थन देने लगे थे। ऐसा क्‍यों हुआ?

पहले विश्व युद्ध ने भारत की आर्थिक और राजनीतिक स्थिति बदल दी थी। इस युद्ध की वजह से ब्रिटिश भारत सरकार के रक्षा व्यय में भारी इज़ाफा हुआ था। इस खर्चे को निकालने के लिए सरकार ने निजी आय और व्यावसायिक मुनाफे पर कर बढ़ा दिया था। सैनिक व्यय में इज़ाफे तथा युद्धक आपूर्ति कौ वजह से ज़रूरी कीमतों की चीज़ों में भारी उछाल आया और आम लोगों की ज़िंदगी मुश्किल होती गई। दूसरी ओर व्यावसायिक समूह युद्ध से बेहिसाब मुनाफा कमा रहे थे। जैसा कि आप अध्याय 7 में देख चुके हैं, इस युद्ध में औद्योगिक वस्तुओं (जूट के बोरे, कपडे, पटरियाँ) की माँग बढ़ा दी और अन्य देशों से भारत आने वाले आयात में कमी ला दी थी। इस तरह, युद्ध के दौरान भारतीय उद्योगों का विस्तार हुआ और भारतीय व्यावसायिक समूह विकास के लिए और अधिक अवसरों की माँग करने लगे।

युद्ध ने अंग्रेजों को अपनी सेना बढ़ाने के लिए विवश किया। एक विदेशी युद्ध की खातिर गाँवों में सिपाहियों की भर्ती के लिए दवाब डाला जाने लगा। बहुत सारे सिपाहियों को दूसरे देशों में युद्ध के मोचों पर भेज दिया गया। इनमें से बहुत सारे सिपाही युद्ध के बाद यह समझदारी लेकर लौटे कि साम्राज्यवादी शक्तियाँ एशिया और अफ्रीका के लोगों का किस तरह शोषण कर रही हैं। फलस्वरूप ये लोग भी भारत में औपनिवेशिक शासन का विरोध करने लगे।

इसके अलावा, 1917 में रूस में क्रांति हुई इस घटना के चलते किसानों और मजदूरों के संघर्षों का समाचार तथा समाजवादी विचार बड़े पैमाने पर फैलने लगे थे जिससे भारतीय राष्ट्रवादियों को नई प्रेरणा मिलने लगी।

महात्मा गांधी का आगमन

इन्हीं हालात में महात्मा गांधी एक जननेता के रूप में सामने आए। गांधीजी 46 वर्ष की उम्र में 1915 में दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटे थे। वे वहाँ पर नस्लभेदी पारबदियों के खिलाफ अहिंसक आंदोलन चला रहे थे और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उनकी अच्छी मान्यता थी और लोग उनका आदर करते थे। दक्षिण अफ्रीकी आंदोलनों की वजह से उन्हें हिंदू, मुसलमान, पारसी और ईसाई; गुजराती, तमिल और उत्तर भारतीय; उच्च वर्गीय व्यापारी, वकील और मजदूर, सब तरह के भारतीयों से मिलने जुलने का मौका मिल चुका था।

महात्मा गांधी ने पहले साल पूरे भारत का दौरा किया। इस दौरान वे यहाँ के लोगों, उनकी ज़रूरतों और हालात को समझने में लगे रहे। उनके शुरुआती प्रयास चंपारण, खेड़ा और अहमदाबाद के स्थानीय आंदोलनों के रूप में सामने आए। इन आंदोलनों के माध्यम से उनका राजेंद्र प्रसाद और वल्‍लभ भाई पटेल से परिचय हुआ। 1918 में अहमदाबाद में उन्होंने मिल मज़दूरों कौ हड़ताल का सफलतापूर्वक नेतृत्व किया।

आइए अब 1919 से 1922 के बीच के आंदोलनों को कुछ गहराई से देखें।

रॉलट सत्याग्रह

1919 में गांधीजी ने अंग्रेज़ों द्वारा हाल ही में पारित किए गए रॉलट कानून के खिलाफ सत्याग्रह का आह्वान किया। यह कानून अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जैसे मूलभूत अधिकारों पर अंकुश लगाने और पुलिस को और ज़्यादा अधिकार देने के लिए लागू किया गया था। महात्मा गांधी, मोहम्मद अली जिन्‍ना तथा अन्य नेताओं का मानना था कि सरकार के पास लोगों की बुनियादी स्वतंत्रताओं पर अंकुश लगाने का कोई अधिकार नहीं है। उन्होंने इस कानून को “शैतान की करतूत” और निरंकुशवादी बताया। गांधीजी ने लोगों से आह्वान किया कि इस कानून का विरोध करने के लिए 6 अप्रैल 1919 को अहिंसक विरोध दिवस के रूप में, “ अपमान व याचना” दिवस के रूप में मत्रया जाए और हड़तालें की जाएँ। आंदोलन शुरू करने के लिए सत्याग्रह सभाओं का गठन किया गया।

रॉलट सत्याग्रह ब्रिटिश सरकार के झििलाफ पहला अखिल भारतीय संघर्ष था हालांकि यह मोटे तौर पर शहरों तक ही सीमित था। अप्रैल 1919 में पूरे देश में जगह-जगह जुलूस निकाले गए और हड़तालों का आयोजन किया गया। सरकार ने इन आंदोलनों को कुचलने के लिए दमनकारी रास्ता अपनाया। बैसाखी (13 अप्रैल) के दिन अमृतसर में जनरल डायर द्वारा जलियाँवाला बाग में किया गया हत्याकांड इसी दमन का हिस्सा था। इस जनसंहार पर रवीन्द्रनाथ टैगोर ने अपनी पीड़ा और गुस्सा जताते हुए नाइटहुड की उपाधि वापस लौटा दी।

रॉलट सत्याग्रह के दौरान लोगों ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ हिंदुओं और मुसलमानों के बीच गहरी एकता बनाए रखने के लिए प्रयास किए। महात्मा गांधी भी यही चाहते थे। उनकी राय में भारत यहाँ रहने वाले सभी लोगों, यानी सभी हिंदुओं, मुसलमानों और अन्य धर्मों के लोगों का देश है। उनकी गहरी आकांक्षा थी कि हिंदू और मुसलमान किसी भी न्यायपूर्ण उद्देश्य के लिए एक दूसरे का समर्थन करें।

खिलाफ्त आंदोलन और अहसयोग आंदोलन

ख़िलाफृत का मुद्य इसी तरह का एक ज्वलंत मुद्दा था। 1920 में अंग्रेज़ों ने तुर्की के सुल्तान (खलीफा) पर बहुत सख्त संधि थोप दी थी। जलियाँवाला बाग हत्याकांड की तरह इस घटना पर भी भारत के लोगों में भारी गुस्सा था। भारतीय मुसलमान यह भी चाहते थे कि पुराने ऑटोमन साम्राज्य में स्थित पवित्र मुसलिम स्थानों पर ख़लीफा का नियंत्रण बना रहना चाहिए। ख्िलाफृत आंदोलन के नेता मोहम्मद अली और शौकत अली अब एक सर्वव्यापी असहयोग आंदोलन शुरू करना चाहते थे। गांधीजी ने उनके आह्वान का समर्थन किया और कांग्रेस से आग्रह किया कि वह पंजाब में हुए अत्याचारों (जलियाँवाला हत्याकांड) और ख़िलाफृत के मामले में हुए अत्याचार के विरुद्ध मिल कर अभियान चलाएँ और स्वराज की माँग करें।

1921-22 के दौरान अहसयोग आंदोलन को और गति मिली। हज़ारों विद्यार्थियों ने सरकारी स्कूल-कॉलेज छोड़ दिए। मोतीलाल नेहरू, सी.आर. दास, सी. राजगोपालाचारी और आसफ़ अली जैसे बहुत सारे वकीलों ने वकालत छोड़ दी। अंग्रेज़ों द्वारा दी गई उपाधियों को वापस लौय दिया गया और विधान मंडलों का बहिष्कार किया गया। जगह-जगह लोगों ने विदेशी कपड़ों की होली जलाई। 1920 से 1922 के बीच विदेशी कपड़ों के आयात में भारी गिरावट आ गई। परंतु यह तो आने वाले तूफान की सिर्फ एक झलक थी। देश के ज़्यादातर हिस्से एक भारी विद्रोह के मुहाने पर खड़े थे।

लोगों की पहलकदमी

कई जगहों पर लोगों ने ब्रिटिश शासन का अहिंसक विरोध किया। लेकिन कई स्थानों पर विभिन्‍न वर्गों और समूहों ने गांधीजी के आह्वान के अपने हिसाब से अर्थ निकाले और इस तरह के रास्ते अपनाए जो गांधीजी के विचारों से मेल नहीं खाते थे। सभी जगह लोगों ने अपने आंदोलनों को स्थानीय मुददों के साथ जोड़कर आगे बढ़ाया। आइए ऐसे कुछ उदाहरणों पर विचार करें।

खेड़ा, गुजरात में पाटीदार किसानों ने अंग्रेज्ञों द्वारा थोप दिए गए भारी लगान के खिलाफ अहिंसक अभियान चलाया। तटीय आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु के भीतरी भागों में शराब की दुकानों की घेरेबंदी की गई। आंध्र प्रदेश के गुंटूर जिले में आदिवासी और गरीब किसानों ने बहुत सारे “वन सत्याग्रह” किए। इन सत्याग्रहों में कई बार वे चरायी शुल्क अदा किए बिना भी अपने जानवरों को जंगल में छोड़ देते थे। उनका विरोध इसलिए था

क्योंकि औपनिवेशिक सरकार ने वन संसाधनों पर उनके अधिकारों को बहुत सीमित कर दिया था। उन्हें यकीन था कि गांधीजी उन पर लगे कर कम करा देंगे और वन कानूनों को खत्म करा देंगे। बहुत सारे वन गाँवों में किसानों ने स्वराज का ऐलान कर दिया क्योंकि उन्हें उम्मीद थी कि “गांधी राज” जल्दी ही स्थापित होने वाला है।

सिंध (मौजूदा पाकिस्तान) में मुसलिम व्यापारी और किसान ख़िलाफ़त के आह्वान पर बहुत उत्साहित थे। बंगाल में भी ख़िलाफ़त-अहसयोग के गठबंधन ने जबर्दस्त साम्प्रदायिक एकता को जन्म दिया और राष्ट्रीय आंदोलन को नई ताकत प्रदान की।

पंजाब में सिखों के अकाली आंदोलन ने अंग्रेज़ों की सहायता से गुरुद्वारों में जमे बैठे भ्रष्ट महंतों को हयने के लिए आंदोलन चलाया। यह आंदोलन अहसयोग आंदोलन से काफी घनिष्ठ रूप से जुड़ा हुआ दिखाई देता था। असम में “गांधी महाराज की जय” के नारे लगाते हुए चाय बागान मजदूरों ने अपनी तनख्व्ाह में इज्ञाफे की माँग शुरू कर दी। उन्होंने अंग्रेज़ी स्वामित्व वाले बागानों की नौकरी छोड़ दी। उनका कहना था कि गांधीजी भी यही चाहते हैं। उस दौर के बहुत सारे असमिया वैष्णव गीतों में कृष्ण की जगह “गांधी राज” का यशगान किया जाने लगा था।

जनता के महात्मा

इन उदाहरणों के आधार पर हम देख सकते हैं कि कई जगह के लोग गांधीजी को एक तरह का मसीहा, एक ऐसा व्यक्त मानने लगे थे जो उन्हें मुसीबतों और गरीबी से छुटकारा दिला सकता है। गांधीजी वर्गीय टकरावों की बजाय वर्गीय एकता के समर्थक थे। परंतु किसानों को लगता था कि गांधीजी जमींदारों के ख़लाफ उनके संघर्ष में मदद देंगे। खेतिहर मज़दूरों को यकीन था कि गांधीजी उन्हें ज़मीन दिला देंगे। कई बार आम लोगों ने खुद अपनी उपलब्धियों के लिए भी गांधीजी को श्रेय दिया। उदाहरण के लिए, एक शक्तिशाली आंदोलन के बाद संयुक्‍त प्रांत (वर्तमान उत्तर प्रदेश) स्थित प्रतापगढ़ के किसानों ने पट्टेदारों की गैर-कानूनी बेदखली को रुकवाने में सफलता पा ली थी परंतु उन्हें लगता था कि यह सफलता उन्हें गांधीजी की वजह से मिली है। कई बार गांधीजी का नाम लेकर आदिवासियों और किसानों ने ऐसी कार्रवाइयाँ भी की जो गांधीवादी आदशों के अनुरूप नहीं थीं।

1922-1929 की घटनाएँ

महात्मा गांधी हिंसक आंदोलनों के विरुद्ध थे। इसी कारण फरवरी 1922 में जब किसानों की एक भीड़ ने चौरी-चौरा पुलिस थाने पर हमला कर उसे जला दिया तो गांधीजी ने अचानक अहसयोग आंदोलन वापस ले लिया। उस दिन 22 पुलिस वाले मारे गये। किसान इसलिए बेकाबू हो गए थे क्योंकि पुलिस ने उनके शांतिपूर्ण जुलूस पर गोली चला दी थी।

असहयोग आंदोलन खत्म होने के बाद गांधीजी के अनुयायी ग्रामीण इलाकों में रचनात्मक कार्य शुरू करने पर ज़ोर देने लगे। चितरंजन दास और मोतीलाल नेहरू जैसे अन्य नेताओं कौ दलील थी कि पार्टी को परिषद चुनावों में हिस्सा लेना चाहिए और परिषदों के माध्यम से सरकारी नीतियों को प्रभावित करना चाहिए। बीस के दशक के मध्य में गाँवों में किए गए व्यापक सामाजिक कार्यों की बदौलत गांधीवादियों को अपना जनाधार फैलाने में काफी मदद मिली। 1930 में शुरू किए गए सविनय अवज्ञा आंदोलन के लिए यह जनाधार काफी उपयोगी साबित हुआ।

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और हिंदुओं के संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की स्थापना बीस के दशक के मध्य की दो महत्वपूर्ण घटनाएँ थीं। भारत के भविष्य को लेकर इन पार्टियों की सोच में गहरा फ़र्क रहा है। अपने अध्यापकों की सहायता से उनके विचारों के बारे में पता लगाएँ। उसी दौरान क्रांतिकारी राष्ट्रवादी भगत सिंह भी सक्रिय थे। इस दशक के आखिर में कांग्रेस ने पूर्ण स्वराज का प्रस्ताव पारित किया। जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में 1929 में पारित किए गए इस प्रस्ताव के आधार पर 26 जनवरी 1930 को पूरे देश में “स्वतंत्रता दिवस” मनाया गया।

दांडी मार्च

पूर्ण स्वराज अपने आप आने वाला नहीं था। इसके लिए लोगों को लड़ाई में उतरना था। 1930 में गांधीजी ने ऐलान किया कि वह नमक कानून तोड़ने के लिए यात्रा निकालेंगे। उस समय नमक के उत्पादन और बिक्री पर सरकार का एकाधिकार होता था। महात्मा गांधी और अन्य राष्ट्रवादियों का कहना था कि नमक पर टैक्स वसूलना पाप है क्योंकि यह हमारे भोजन का एक बुनियादी हिस्सा होता है। नमक सत्याग्रह ने स्वतंत्रता की व्यापक चाह को लोगों की एक खास शिकायत सभी से जोड़ दिया था और इस तरह अमीरों और गरीबों के बीच मतभेद पैदा नहीं होने दिया।

गांधीजी और उनके अनुयायी साबरमती से 240 किलोमीटर दूर स्थित दांडी तट पैदल चलकर गए और वहाँ उन्होंने तट पर बिखरा नमक इकटूठा करते हुए नमक कानून का सार्वजनिक रूप से उल्लंघन किया।

उन्होंने पानी उबालकर भी नमक बनाया। इस आंदोलन में किसानों, आदिवासियों और महिलाओं ने बड़ी संख्या में हिस्सा लिया। नमक के मुद्दे पर एक व्यावसायिक संघ ने पर्चा प्रकाशित किया। सरकार ने शांतिपूर्ण सत्याग्रहियों के निर्मम दमन के ज़रिए आंदोलन को कुचलने का प्रयास किया। हज़ारों आंदोलनकारियों को जेल में डाल दिया गया।

भारतीय जनता के साझा संघर्षों के चलते आखिरकार 1935 के गवर्मेंट ऑफ इंडिया एबट में प्रांतीय स्वायत्तता का प्रावधान किया गया। सरकार ने ऐलान किया कि 1937 में प्रांतीय विधायिकाओं के लिए चुनाव कराए जाएँगे। इन चुनावों के परिणाम आने पर ॥1 में से 7 प्रांतों में कांग्रेस की सरकार बनी।

प्रांतीय स्तर पर 2 साल के कांग्रेसी शासन के बाद सितंबर 1939 में दूसरा विश्व युद्ध छिड़ गया। हिटलर के प्रति आलोचनात्मक रवैये के कारण कांग्रेस के नेता ब्रिटेन के युद्ध प्रयासों में मदद देने को तैयार थे। इसके बदले में वे चाहते थे कि युद्ध के बाद भारत को स्वतंत्र कर दिया जाए। अंग्रेज़ों ने यह बात नहीं मानी। कांग्रेसी सरकारों ने विरोध में इस्तीफा दे दिया।

भारत छोड़ो और उसके बाद

महात्मा गांधी ने दूसरे विश्व युद्ध के बाद अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन का एक नया चरण शुरू किया। उन्होंने अंग्रेज़ों को चेतावनी दी कि वे फौरन भारत छोड दें। गांधीजी ने भारतीय जनता से आह्वान किया कि वे “करो या मरो” के सिद्धांत पर चलते हुए अंग्रेज़ों के विरुद्ध अहिंसक ढंग से संघर्ष करें। गांधीजी और अन्य नेताओं को फौरन जेल में डाल दिया गया। इसके बावजूद यह आंदोलन फैलता गया। किसान और युवा इस आंदोलन में बड़ी संख्या में शामिल हुए। विद्यार्थी अपनी पढ़ाई-लिखाई छोड़ कर आंदोलन में कूद पडे। देश भर में संचार तथा राजसत्ता के प्रतीकों पर हमले हुए। बहुत सारे इलाकों में लोगों ने अपनी सरकार का गठन कर लिया।

सबसे पहले अंग्रेज़ों ने बर्बर दमन का रास्ता अपनाया। 1943 के अंत तक 90,000 से ज़्यादा लोग गिरफ्तार कर लिए गए थे और लगभग 1 000 लोग पुलिस की गोली से मारे गए थे। बहुत सारे इलाकों में हवाई जहाज्ञों से भी भीड़ पर गोलियाँ बरसाने के आदेश दिए गए। परंतु आखिरकार इस विद्रोह ने ब्रिटिश राज को घुटने टेकने के लिए मजबूर कर दिया। स्वतंत्रता और विभाजन की ओर 1940 में मुसलिम लीग ने देश के पश्चिमोत्तर तथा पूर्वी क्षेत्रों में मुसलमानों के लिए “स्वतंत्र राज्यों” की माँग करते हुए एक प्रस्ताव पारित किया। इस प्रस्ताव में विभाजन या पाकिस्तान का ज़िक्र नहीं था। मुसलिम लीग ने उपमहाद्वीप के मुसलमानों के लिए स्वायत्त व्यवस्था की माँग क्‍यों की थी?

1930 के दशक के आखिरी सालों से लीग मुसलमानों और हिंदुओं को अलग-अलग “राष्ट्र” मानने लगी थी। इस विचार तक पहुँचने में बीस और तीस के दशकों में हिंदुओं और मुसलमानों के कुछ संगठनों के बीच हुए तनावों का भी हाथ रहा होगा। 1937 के प्रांतीय चुनाव संभवत: इससे भी ज़्यादा बड़ा कारण रहे। इन चुनावों ने मुसलिम लीग को इस बात का यकौन दिला दिया था कि यहाँ मुसलमान अल्पसंख्यक हैं और किसी भी लोकतांत्रिक संरचना में उन्हें हमेशा गौण भूमिका निभानी पड़ेगी। लीग को यह भी भय था कि संभव है कि मुसलमानों को प्रतिनिधित्व ही न मिल पाए। 1937 में मुसलिम लीग संयुक्त प्रांत में कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार बनना चाहती थी परंतु कांग्रेस ने इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया जिससे फासला और बढ़ गया।

तीस के दशक में मुसलिम जनता को अपने साथ लामबंद करने में कांग्रेस कौ विफलता ने भी लीग को अपना सामाजिक जनाधार फैलाने में मदद दी। चालीस के दशक के शुरुआती सालों में जिस समय कांग्रेस के ज़्यादातर नेता जेल में थे, उस समय लीग ने अपना प्रभाव फैलाने के लिए तेज़ी से प्रयास किए। 1945 में विश्व युद्ध खत्म होने के बाद अंग्रेजों ने भारतीय स्वतंत्रता के लिए कांग्रेस और लीग से बातचीत शुरू कर दी। यह वार्ता असफल रही क्‍योंकि लीग का कहना था कि उसे भारतीय मुसलमानों का एकमात्र प्रतिनिधि माना जाए। कांग्रेस इस दावे को मंजूर नहीं कर सकती थी क्‍योंकि बहुत सारे मुसलमान अभी भी उसके साथ थे।

1946 में दोबारा प्रांतीय चुनाव हुए। “सामान्य ” निर्वाचन क्षेत्रों में कांग्रेस का प्रदर्शन तो अच्छा रहा परंतु मुसलमानों के लिए आरक्षित सीटों पर लीग को बेजोड़ सफलता मिली। लीग “पाकिस्तान” की माँग पर चलती रही। मार्च 1946 में ब्रिटिश सरकार ने इस माँग का अध्ययन करने और स्वतंत्र भारत के लिए एक सही राजनीतिक बंदोबस्त सुझाने के लिए तीन सदस्यीय परिसंघ भारत भेजा। इस परिसंघ ने सुझाव दिया कि भारत अविभाजित रहे और उसे मुसलिम बहुल क्षेत्रों को कुछ स्वायतता देते हुए एक ढीले-ढाले महासंघ के रूप में संगठित किया जाए। कांग्रेस और मुसलिम लीग, दोनों ही इस प्रस्ताव के कुछ खास प्रावधानों पर सहमत नहीं थे। अब देश का विभाजन अवश्यंभावी था।

कैबिनेट मिशन की इस विफलता के बाद मुसलिम लीग ने पाकिस्तान की अपनी माँग मनवाने के लिए जनांदोलन शुरू करने का फैसला लिया। उसने 16 अगस्त 1946 को “ प्रत्यक्ष कार्रवाई दिवस मनाने का आह्वान किया। इसी दिन कलककत्ता में दंगे भड़क उठे जो कई दिन चलते रहे। इन दंगों में हज़ारों लोग मारे गए। मार्च 1947 तक उत्तर भारत के विभिन्‍न भागों में भी हिंसा फैल गई थी। कई लाख लोग मारे गए। असंख्य महिलाओं को विभाजन की इस हिंसा में अकथनीय अत्याचारों का सामना करना पड़ा। करोड़ों लोगों को अपने घर-बार छोड़कर भागना पड़ा। अपने मूल स्थानों से बिछड़कर ये लोग रातोंरात अजनबी ज़मीन पर शरणार्थी बनकर रह गए। विभाजन का नतीजा यह भी हुआ कि भारत की शक्‍्ल-सूरत बदल गई, उसके शहरों का माहौल बदल गया और एक नए देश - पाकिस्तान - का जन्म हुआ। इस तरह ब्रिटिश शासन से स्वतंत्रता का यह आनंद विभाजन की पीड़ा और हिंसा के साथ हमारे सामने आया।

रविवार, 23 दिसंबर 2018

भारत में अंग्रेजी शासन का आरम्भ

मुगल बादशाहों मेंऔरंगज़ेब आखिरी शक्तिशाली बादशाह थे। उन्होंने वर्तमान भारत के एक बहुत बड़े हिस्से पर नियंत्रण स्थापित कर लिया था। 1707 में उनकी मृत्यु के बाद बहुत सारे मुगल सूबेदार और बड़े-बड़े ज़्मींदार अपनी ताकत दिखाने लगे थे। उन्होंने अपनी क्षेत्रीय रियासतें कायम कर ली थीं। जैसे-जैसे विभिन्न भागों में ताकतवर क्षेत्रीय रियासतें सामने आने लगीं, दिल्ली अधिक दिनों तक प्रभावी केन्द्र के रूप में नहीं रह सकी।

अठारहवीं सदी के उत्तरार्ध तक राजनीतिक क्षितिज पर अंग्रेज़ों के रूप में एक नयी ताकत उभरने लगी थी। क्या अंग्रेज पहले-पहल एक छोटी-सी व्यापारिक कंपनी के रूप में भारत आए थे और यहाँ के इलाकों पर कब्जे में उनकी ज़्यादा दिलचस्पी नहीं थी? तो फिर ऐसा कैसे हुआ कि एक दिन वे इस विशाल साम्राज्य के स्वामी बन बैठे? इस अध्याय में आप देखेंगे कि यह कैसे हुआ?

पूर्व में ईस्ट इंडिया कंपनी का आना

सन्‌ 1600 में ईस्ट इंडिया कंपनी ने इंग्लैंड की महारानी एलिज़ाबेथ प्रथम से चार्टर अर्थात इजाजतनामा हासिल कर लिया जिससे कंपनी को पूरब से व्यापार करने का एकाधिकार मिल गया। इस इज़ाज़तनामे का मतलब यह था कि इंग्लैंड की कोई और व्यापारिक कंपनी इस इलाके में ईस्ट इंडिया कंपनी से होड़ नहीं कर सकती थी। इस चार्टर के सहारे कंपनी समुद्र पार जाकर नए इलाकों को खँगाल सकती थी, वहाँ से सस्ती कीमत पर चीज़ें ख़रीद कर उन्हें यूरोप में ऊँची कीमत पर बेच सकती थी। कंपनी को दूसरी अंग्रेज व्यापारिक कंपनियों से प्रतिस्पर्धा का कोई भय नहीं था। उस ज़माने में वाणिज्यिक कंपनियाँ मोटे तौर पर प्रतिस्पर्धा से बचकर ही मुनाफा कमा सकती थीं। अगर कोई प्रतिस्पर्धी न हो तभी वे सस्ती चीज़ें ख़रीदकर उन्हें ज़्यादा कीमत पर बेच सकती थीं।

लेकिन यह शाही दस्तावेज़ दूसरी यूरोपीय ताकतों को पूरब के बाज़ारों में आने से नहीं रोक सकता था। जब तक इंग्लैंड के जहाज़ अफ्रीका के पश्चिम तट को छूते हुए केप ऑफ़ गुड होप का चक्कर लगाकर हिंद महासागर पार
करते तब तक पुर्तगालियों ने भारत के पश्चिमी तट पर अपनी उपस्थिति दर्ज करा दी थी। वे गोवा में अपना ठिकाना बना चुके थे। पुर्तगाल के खोजी यात्री वास्को द गामा ने ही 1498 में पहली बार भारत तक पहुँचने के इस समुद्री मार्ग का पता लगाया था। सत्रहवीं शताब्दी कौ शुरुआत तक डच भी हिंद महासागर में व्यापार की संभावनाएँ तलाशने लगे थे। कुछ ही समय बाद फ़ांसीसी व्यापारी भी सामने आ गए।

समस्या यह थी कि सारी कंपनियाँ एक जेसी चीज़ें ही ख़रीदना चाहती थीं। यूरोप के बाज़ारों में भारत के बने बारीक सूती कपड़े और रेशम की जबरदस्त माँग थी। इनके अलावा काली मिर्च, लौंग, इलायची और दालचीनी
की भी जबरदस्त माँग रहती थी। यूरोपीय कंपनियों के बीच इस बढ़ती प्रतिस्पर्धा से भारतीय बाज़ारों में इन चीज़ों की कीमतें बढ़ने लगीं और उनसे मिलने वाला मुनाफा गिरने लगा। अब इन व्यापारिक कंपनियों के फलने-फूलने का यही एक रास्ता था कि वे अपनी प्रतिस्पर्धी कंपनियों को खत्म कर दे। लिहाजा, बाज़ारों पर कब्जे की इस होड़ ने व्यापारिक कंपनियों के बीच लड़ाइयों की शुरुआत कर दी।

सत्रहवीं और अठारहवीं सदी में जब भी मौका मिलता कोई-सी एक कंपनी किसी दूसरी कंपनी के जहाज़ डूबो
देती, रास्ते में रुकावटें खड़ी कर देती और माल से लदे जहाज़ों को आगे बढ़ने से रोक देती। यह व्यापार हथियारों की मदद से चल रहा था और व्यापारिक चौकियों को किलेबंदी के ज़रिए सुरक्षित रखा जाता था।

अपनी बस्तियों को किलेबंद करने और व्यापार में मुनाफा कमाने की इन कोशिशों के कारण स्थानीय शासकों से भी टकराव होने लगे। इस प्रकार, व्यापार और राजनीति को एक-दूसरे से अलग रखना कंपनी के लिए मुश्किल होता जा रहा था।

आइए देखें कि यह कैसे हुआ।

ईस्ट इंडिया कंपनी बंगाल में व्यापार शुरू करती है पहली इंग्लिश फैक्टरी 1651 में हुगली नदी के किनारे शुरू हुई। कंपनी के व्यापारी यहीं से अपना काम चलाते थे। इन व्यापारियों को उस जमाने में “फैक्टर” कहा जाता था। इस फैक्टरी में वेयरहाउस था जहाँ निर्यात होने वाली चीज़ों को जमा किया जाता था। यहीं पर उसके दफ्तर थे जिनमें कंपनी के अफसर बैठते थे। जैसे-जैसे व्यापार फैला कंपनी ने सौदागरों और व्यापारियों को फैक्टरी के आस-पास आकर बसने के लिए प्रेरित किया। 1696 तक कंपनी ने इस आबादी के चारों तरफ एक क़िला बनाना शुरू कर दिया था। दो साल बाद उसने मुगल अफ़सरों को रिश्वत देकर तीन गाँवों की ज़मींदारी भी ख़रीद ली। इनमें से एक गाँव कालीकाता था जो बाद में कलकत्ता बना। अब इसे कोलकाता कहा जाता है। कंपनी ने मुगल सम्राट औरंगज़ेब को इस बात के लिए भी तैयार कर लिया कि वह कंपनी को बिना शुल्क चुकाए व्यापार करने का फ़रमान जारी कर दे।

कंपनी ज़्यादा से ज़्यादा रियायतें हासिल करने और पहले से मौजूद अधिकारों का ज़्यादा से ज़्यादा फायदा उठाने में लगी हुई थी। उदाहरण के लिए, औरंगज़ेब के फरमान से केवल कंपनी को ही शुल्क मुक्त व्यापार का अधिकार मिला था। कंपनी के जो अफसर निजी तौर पर व्यापार चलाते उन्हें यह छूट नहीं थी। लेकिन उन्होंने भी शुल्क चुकाने से इनकार कर दिया। इससे बंगाल में राजस्व वसूली बहुत कम हो गई। ऐसे में भला बंगाल के
नवाब मुर्शिद कुली खान विरोध क्‍यों न करते?

व्यापार से युद्धों तक

अठारहवीं सदी कौ शुरुआत में कंपनी और बंगाल के नवाबों का टकराव काफी बढ़ गया था। औरंगज़ेब की मृत्यु के बाद बंगाल के नवाब अपनी ताकत दिखाने लगे थे। उस समय दूसरी क्षेत्रीय ताकतों कौ स्थिति भी ऐसी ही थी। मुर्शिद कुली खान के बाद अली वर्दी ख़ान और उसके बाद सिराजुद्देला बंगाल के नवाब बने। ये सभी शक्तिशाली शासक थे। उन्होंने कंपनी को रियायतें देने से मना कर दिया। व्यापार काअधिकार देने के बदले कंपनी से नज़राने माँगे, उसे सिक्के ढालने का अधिकार नहीं दिया, और उसकी किलेबंदी को बढ़ाने से रोक दिया। कंपनी पर धोखाधड़ी का आरोप लगाते हुए उन्होंने दलील दी कि उसकी वजह से बंगाल सरकार की राजस्व वसूली कम होती जा रही है और नवाबों की ताकत कमज़ोर पड़ रही है। कंपनी टैक्स चुकाने को तैयार नहीं थी, उसके अफ़सरों ने अपमानजनक चिटिठयाँ लिखीं और नवाबों व उनके अधिकारियों को अपमानित करने का प्रयास किया।

कंपनी का कहना था कि स्थानीय अधिकारियों की बेतुकी माँगों से कंपनी का व्यापार तबाह हो रहा है। व्यापार तभी फल-फूल सकता है जब सरकार शुल्क हटा ले। कंपनी को इस बात का भीयकीन था कि अपना व्यापार
फैलाने के लिए उसे अपनी आबादी बढ़ानी होगी। गाँव ख़रीदने होंगे और किलों का पुनर्निर्माण करना होगा।

ये टकराव दिनोदिन गंभीर होते गए अन्ततः इन टकरावों की परिणति प्लासी के प्रसिद्ध युद्ध के रूप में हुई।

प्लासी का युद्ध

175 में अली वर्दी खान की मृत्यु के बाद सिराज़ुद्दौला बंगाल के नवाब बने। कंपनी को सिराज़ुद्दौला की ताकत से काफी भय था। सिराज़ुद्दौला की जगह कंपनी एक ऐसा कठपुतली नवाब चाहती थी जो उसे व्यापारिक रियायतें और अन्य सुविधाएँ आसानी से देने में आनाकानी न करे। कंपनी ने प्रयास किया कि सिराजुद्देला के प्रतिद्वंदियों में से किसी को नवाब बना दिया जाए। कंपनी को कामयाबी नहीं मिली। जवाब में सिराज़ुद्दौला ने हुक्म दिया कि कंपनी उनके राज्य के राजनीतिक मामलों मेंटांग अड़ाना बंद कर दे, किलेबंदी रोके और बाकायदा राजस्व चुकाए।

जब दोनों पक्ष पीछे हटने को तैयार नहीं हुए तो अपने 30,000 सिपाहियों के साथ नवाब ने कासिम बाज़ार में स्थितइंग्लिश फैक्टरी पर हमला बोल दिया। नवाब की फौजों ने कंपनी के अफसरों को गिरफ्तार कर लिया, गोदाम पर ताला डाल दिया, अंग्रेजों के हथियार छीन लिए और अंग्रेज जहाज़ों को घेरे में ले लिया। इसके बाद नवाब ने कंपनी के कलकत्ता स्थित किले पर कब्जे के लिए उधर का रुख किया।

कलकत्ता के हाथ से निकल जाने की ख़बर सुनने पर मद्रास में तैनात कंपनी के अफसरों ने भी रॉबर्ट क्लाइव के नेतृत्व में सेनाओं को रवाना कर दिया। इस सेना को नौसैनिक बेड़े कौ मदद भी मिल रही थी। इसके बाद  नवाब के साथ लंबे समय तक सौदेबाजी चली। आखिरकार 1757 में रॉबर्ट लाइव ने प्लासी के मैदान में सिराजुद्देला के खिलाफ कंपनी की सेना का नेतृत्व किया। नवाब सिराजुद्देला की हार का एक बड़ा कारण उसके सेनापतियों में से एक सेनापति मीर जाफ़र की कारगुजारियाँ भी थीं। मीर जाफर की टुकडियों ने इस युद्ध में हिस्सा नहीं लिया। रॉबर्ट क्लाइव ने यह कहकर उसे अपने साथ मिला लिया था कि सिराजुद्देला को हटा कर मीर जाफ़र को नवाब बना दिया जाएगा।

प्लासी की जंग इसलिए महत्वपूर्ण मानी जाती है क्योंकि भारत में यह कंपनी की पहली बड़ी जीत थी।

प्लासी की जंग के बाद सिराज़ुद्दौला को मार दिया गया और मीर जाफर नवाब बना। कंपनी अभी भी शासन की ज़िम्मेदारी सँभालने को तैयार नहीं थी। उसका मूल उद्देश्य तो व्यापार को फैलाना था। अगर यह काम स्थानीय
शासकों की मदद से बिना लड़ाई लड़े ही किया जा सकता था तो किसी राज्य को सीधे अपने कब्जे में लेने की क्‍या ज़रूरत थी।

जल्‍दी ही कंपनी को एहसास होने लगा कि यह रास्ता भी आसान नहीं है। कठपुतली नवाब भी हमेशा कंपनी के इशारों पर नहीं चलते थे। आखिरकार उन्हें भी तो अपनी प्रजा की नज़र में सम्मान और संप्रभुता का दिखावा करना पड़ता था।

तो फिर कंपनी क्‍या करती? जब मीर जाफ़र ने कंपनी का विरोध किया तो कंपनी ने उसे हटाकर मीर कासिम को नवाब बना दिया। जब मीर कासिम परेशान करने लगा तो बक्सर की लड़ाई (1764) में उसको भी हराना पड़ा।
उसे बंगाल से बाहर कर दिया गया और मीर जाफर को दोबारा नवाब बनाया गया। अब नवाब को हर महीने पाँच लाख रुपए कंपनी को चुकाने थे। कंपनी अपने सैनिक खर्चों से निपटने, व्यापारिक ज़रूरतों तथा अन्य खर्चों को
करने के लिए और पैसा चाहती थी। कंपनी और ज़्यादा इलाके तथा और ज़्यादा कमाई चाहती थी। 1765 में जब मीर जाफ़र की मृत्यु हुई तब तक कंपनी के इरादे बदल चुके थे। कठपुतली नवाबों के साथ अपने खराब अनुभवों को देखते हुए क्लाइव ने ऐलान किया कि अब “हमें खुद ही नवाब बनना पड़ेगा।”

आख़िरकार 1765 में मुगल सम्राट ने कंपनी को ही बंगाल प्रांत का दीवान नियुक्त कर दिया। दीवानी मिलने के कारण कंपनी को बंगाल के विशाल राजस्व संसाधनों पर नियंत्रण मिल गया था। इस तरह कंपनी की एक पुरानी समस्या हल हो गयी थी। अठारहवीं सदी की शुरुआत से ही भारत के साथ उसका व्यापार बढ़ता जा रहा था। लेकिन उसे भारत में ज़्यादातर चीज़ें ब्रिटेन से लाए गए सोने और चाँदी के बदले में ख़रीदनी पड़ती थीं। इसकी
वजह ये थी कि उस समय ब्रिटेन के पास भारत में बेचने के लिए कोई चीज़ नहीं थी। प्लासी की जंग के बाद ब्रिटेन से सोने की निकासी कम होने लगी और बंगाल की दीवानी मिलने के बाद तो ब्रिटेन से सोना लाने की ज़रूरत
ही नहीं रही। अब भारत से होने वाली आमदनी के सहारे ही कंपनी अपने खर्चे चला सकती थी। इस कमाई से कंपनी भारत में सूती और रेशमी कपड़ा ख़रीद सकती थी, अपनी फौजों को सँभाल सकती थी और कलकत्ते में
किलों और दफ़्तरों के निर्माण की लागत उठा सकती थी। कंपनी के अफसर “नबॉब' बन बैठे नवाब बनने का क्‍या मतलब था? इसका एक मतलब तो यही था कि कंपनी के पास अब सत्ता और ताकत थी। लेकिन इसके कुछ और फायदे भी थे। कंपनी का हर कर्मचारी नवाबों की तरह जीने के ख्वाब देखने लगा था।

प्लासी के युद्ध के बाद बंगाल के असली नवाबों को इस बात के लिए बाध्य कर दिया गया कि वे कंपनी के अफसरों को निजी तोहफे के तौर पर ज़मीन और बहुत सारा पैसा दें। खुद रॉबर्ट क्लाइव ने ही भारत में बेहिसाब
दौलत जमा कर ली थी। 1743 में जब वह इंग्लैंड से मद्रास (अब चैन्नई) आया था तो उसकी उम्र 18 साल थी। 1767 में जब वह दो बार गवर्नर बनने के बाद हमेशा के लिए भारत से रवाना हुआ तो यहाँ उसकी दौलत 401 ॥02 पौंड के बराबर थी। दिलचस्प बात यह है कि गवर्नर के अपने दूसरे कार्यकाल में उसे कंपनी के भीतर फैले भ्रष्टाचार को खत्म करने का काम सौंपा गया था। लेकिन 1772 में ब्रिटिश संसद में उसे खुद भ्रष्टाचार के आरोपों पर अपनी सफ़ाई देनी पड़ी। सरकार को उसकी अकूत संपत्ति के स्रोत संदेहास्पद लग रहे थे। उसे भ्रष्टाचार आरोपों से बरी तो कर दिया गया लेकिन 1774 में उसने आत्महत्या कर ली।

कंपनी के सभी अफसर क्लाइब की तरह दौलत इकट्ठा नहीं कर पाए। बहुत सारी बीमारियों और लड़ाई के कारण कम उम्र में ही मौत का निवाला बन गए। इसके अलावा उन सभी को भ्रष्ट और बेईमान मानना भी सही नहीं होगा। उनमें से बहुत सारे अफ़सर साधारण परिवारों से आए थे। उनकी सबसे बड़ी इच्छा बस यही थी कि वे भारत में ठीक-ठाक पैसा कमाएँ और ब्रिटेन लौटकर आराम की ज़िंदगी बसर करें। जो जीते जी धन-दौलत लेकर वापस लौट गए उन्होंने वहाँ आलीशान जीवन जिया। उन्हें वहाँ के लोग “नबॉब” कहते थे। यह भारतीय शब्द 'नवाब' का ही अंग्रेज़ी संस्करण बन गया था। उन्हें लोग अकसर नए अमीरों और सामाजिक हैसियत में रातों-रात ऊपर आने वाले लोगों के रूप में देखते थे। नाटकों और कार्टूनों में उनका मज़ाक उड़ाया जाता था।

कंपनी का फैलता शासन 

यदि हम 1757 से 1857 के बीच ईस्ट इंडिया कंपनी के द्वारा भारतीय राज्यों पर कब्जे की प्रक्रिया को देखें तो कुछ महत्वपूर्ण बातें सामने आती हैं। किसी अनजान इलाके में कंपनी ने सीधे सैनिक हमला प्राय: नहीं किया।
उसने किसी भी भारतीय रियासत का अधिग्रहण करने से पहले विभिन्‍न राजनीतिक, आर्थिक और कूटनीतिक साधनों का इस्तेमाल किया।

बक्सर की लड़ाई (1764) के बाद कंपनी ने भारतीय रियासतों में रेज़िडेंट तैनात कर दिये। ये कंपनी के राजनीतिक या व्यावसायिक प्रतिनिधि होते थे। उनका काम कंपनी के हितों की रक्षा करना और उन्हें आगे बढ़ाना
था। रज़िडेंट के माध्यम से कंपनी केअधिकारी भारतीय राज्यों के भीतरी मामलों में भी दखल देने लगे थे। अगला राजा कौन होगा, किस पद पर किसको बिठाया जाएगा, इस तरह की चीज़ें भी कंपनी के अफसर ही तय करना चाहते थे। कई बार कंपनी ने रियासतों पर “सहायक संधि” भी थोप दी। जो रियासत इस बंदोबस्त को मान लेती थी उसे अपनी स्वतंत्र सेनाएँ रखने का अधिकार नहीं रहता था। उसे कंपनी की तरफ से सुरक्षा मिलती थी और “सहायक सेना” के रखरखाव के लिए वह कंपनी को पैसा देती थी। अगर भारतीय शासक रकम अदा करने में चूक जाते थे तो जुर्माने के तौर पर उनका इलाका कंपनी अपनेकब्ज़े में ले लेती थी। उदाहरण के लिए, जब रिचर्ड वेलेज्ली गवर्नर-जनरल (1798-1805) था, उस समय अवध के नवाब को 1801 में अपना आधा इलाका कंपनी को सौंपने के लिए मजबूर किया गया क्योंकि नवाब “सहायक सेना” के लिए पैसा अदा करने में चूक गए थे। इसी आधार पर हैदराबाद के भी कई इलाके छीन लिए गए।

टीपू सुल्तान - “शेर-ए-मैसूर"

जब कंपनी को अपने राजनीतिक और आर्थिक हितों पर खतरा दिखाई दिया तो कंपनी ने प्रत्यक्ष सैनिक टकराव का रास्ता भी अपनाया। दक्षिण भारतीय राज्य मैसूर के उदाहरण से यह बात समझी जा सकती है।

हैदर अली (शासन काल 1761 से 1782) और उनके विख्यात पुत्र टीपू सुल्तान (शासन काल 1782 से 1799) जैसे शक्तिशाली शासकों के नेतृत्व में मैसूर काफी ताकतवर हो चुका था। मालाबार तट पर होने वाला व्यापार मैसूर
रियासत के नियंत्रण में था जहाँ से कंपनी काली मिर्च और इलायची ख़रीदती थी। 1785 में टीपू सुल्तान ने अपनी रियासत में पड़ने वाले बंदरगाहों से चंदन की लकड़ी, काली मिर्च और इलायची का निर्यात रोक दिया। सुल्तान ने
स्थानीय सौदागरों को भी कंपनी के साथ कारोबार करने से रोक दिया था। टीपू सुल्तान ने भारत में रहने वाले फ्रांसीसी व्यापारियों से घनिष्ठ संबंध विकसित किए और उनकी मदद से अपनी सेना का आधुनिकीकरण किया।

सुल्तान के इन कदमों से अंग्रेज़ आग-बबूला हो गए। उन्हें हैदर अली और टीपू सुल्तान बहुत महत्वाकांक्षी , घमण्डी और ख़तरनाक दिखाई देते थे। अंग्रेज़ों को लगता था कि ऐसे राजाओं को नियंत्रित करना और कुचलना
ज़रूरी है। फलस्वरूप, मैसूर के साथ अंग्रेज़ों की चार बार जंग हुई (1767-69, 1780-84, 1790-92 और 1799)। श्रीरंगपटम की आखिरी जंग में कंपनी को सफलता मिली। अपनी राजधानी की रक्षा करते हुए टीपू सुल्तान मारे गए और मैसूर का राजकाज पुराने वोडियार राजवंश के हाथों में सौंप दिया गया। इसके साथ ही मैसूर पर भी सहायक साँध थोप दी गई।

मराठों से लड़ाई

अठारहवीं शताब्दी के आखिर से कंपनी मराठों कौ ताकत को भी क़ाबू और खत्म करने के बारे में सोचने लगी थी। 1761 में पानीपत की तीसरी लड़ाई में हार के बाद दिल्ली से देश का शासन चलाने का मराठों का सपना
चूर-चूर हो गया। उन्हें कई राज्यों में बाँट दिया गया। इन राज्यों की बागडोर सिंधिया, होलकर, गायकवाड और भोंसले जैसे अलग-अलग राजवंशों के हाथों में थी। ये सारे सरदार एक पेशवा (सर्वोच्च मंत्री) के अंतर्गत एक
कन्फेडरेसी( राज्यमण्डल) के सदस्य थे। पेशवा इस राज्यमण्डल का सैनिक और प्रशासकीय प्रमुख होता था और पुणे में रहता था। महादूजी सिंधिया और नाना फड़नीस अठारहवीं सदी के आखिर के दो प्रसिद्ध मराठा योद्धा और राजनीतिज्ञ थे।

एक के बाद एक कई युद्धों में कंपनी ने मराठों को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया। पहला युद्ध 1782 में सालबाई सँध के साथ खत्म हुआ जिसमें कोई पक्ष नहीं जीत पाया। दूसरा अंग्रेज़-मराठा युद्ध (1803-05) कई
मोर्चों पर लड़ा गया। इसका नतीजा यह हुआ कि उड़ीसा और यमुना के उत्तर में स्थित आगरा व दिल्‍ली सहित कई भूभाग अंग्रेज्ञों के कब्जे में आ गए। अंततः, 1817-19 के तीसरे अंग्रेज़-मराठा युद्ध में मराठों की ताकत को
पूरी तरह कुचल दिया गया। पेशवा को पुणे से हटकर कानपुर के पास बिदूर में पेंशन पर भेज दिया गया। अब विंध्य के दक्षिण में स्थित पूरे भुभाग पर कंपनी का नियंत्रण हो चुका था।

सर्वोच्चता का दावा

उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि उनन्‍नीसवीं सदी की शुरुआत से कंपनी क्षेत्रीय विस्तार की आक्रामक नीति पर चल रही थी। लॉर्ड हेस्टिंग्स (1813 से 1823 तक गवर्नर-जनरल) के नेतृत्व में “ सर्वोच्चता ” की एक नयी नीति
शुरू की गईं कंपनी का दावा था कि उसकी सत्ता सर्वोच्च है इसलिए वह भारतीय राज्यों से ऊपर है। अपने हितों की रक्षा के लिए वह भारतीय रियासतों का अधिग्रहण करने या उनको अधिग्रहण की धमकी देने का अधिकार अपने पास मानती थी। यह सोच बाद में भी अंग्रेज़ों की नीतियों में दिखाई देती रही।

लेकिन यह प्रक्रिया बेरोकटोक नहीं चली। उदाहरण के लिए, जब अंग्रेजों ने कित्तूर (फिलहाल कर्नाटक में) के छोटे से राज्य को कब्जे में लेने का प्रयास किया तो रानी चेन्नम्मा ने हथियार उठा लिए और अंग्रेजों के ख़िलाफ
आंदोलन छेड़ दिया। 1824 में उन्हें गिरफ्तार किया गया और 1829 में जेल में ही उनकी मृत्यु हो गई। चेन्नम्मा के बाद कित्तूर स्थित संगोली के एक गरीब चौकीदार रायन्ना ने यह प्रतिरोध जारी रखा। चौतरफा समर्थन और सहायता से उन्होंने बहुत सारे ब्रिटिश शिविरों और दस्तावेजों को नष्ट कर दिया था। आखिरकार उन्हें भी अंग्रेजों ने पफड़कर 1830 में फाँसी पर लटका दिया। प्रतिरोध के ऐसे कई दसरे उदाहरण आप इस किताब में आगे पढेंगे।

1830 के दशक के अंत में ईस्ट इंडिया कंपनी रूस के प्रभाव से बहुत डरी हुई थी। कंपनी को भय था कि कहीं रूस का प्रभाव पूरे एशिया में फैलकर उत्तर-पश्चिम से भारत को भी अपनी चपेट में न ले ले। इसी डर के चलते अंग्रेज़ अब उत्तर-पश्चिमी भारत पर भी अपना नियंत्रण स्थापित करना चाहते थे। उन्होंने 1838 से 1842 के बीच अफगानिस्तान के साथ एक लंबी लड़ाई लड़ी और वहाँ अप्रत्यक्ष कंपनी शासन स्थापित कर लिया। 1843 में सिंध भी कब्जे में आ गया। इसके बाद पंजाब की बारी थी। यहाँ महाराजा रणजीत सिंह ने कंपनी की दाल नहीं गलने दी। 1839 में उनकी मृत्यु के बाद इस रियासत के साथ दो लंबी लड़ाइयाँ हुईं और आखिरकार 1849 में अंग्रेजों ने
पंजाब का भी अधिग्रहण कर लिया।

विलय नीति

अधिग्रहण को आखिरी लहर 1848 से 1856 के बीच गवर्नर-जनरल बने लॉर्ड डलहौज़ी के शासन काल में चली। लॉर्ड डलहौज़ी ने एक नयी नीति अपनाई जिसे विलय नीति का नाम दिया गया। यह सिद्धांत इस तर्क पर आधारित था कि अगर किसी शासक कौ मृत्यु हो जाती है और उसका कोई पुरुष वारिस नहीं है तो उसकी रियासत हड़प कर ली जाएगी यानी कंपनी के भूभाग का हिस्सा बन जाएगी। इस सिद्धांत के आधार पर एक के बाद एक कई रियासतें - सतारा (1848) संबलपुर (1850) , उदयपुर (1852) , नागपुर (1853 और झाँसी (1854) - अंग्रेजों के हाथ में चली गईं। आखिरकार 1856 में कंपनी ने अवध को भी अपने नियंत्रण में ले लिया। इस बार अंग्रेज्ञों ने एक नया तर्क दिया। उन्होंने कहा कि वे अवध की जनता को नवाब के “कुशासन” से आज़ाद कराने के लिए “कर्तव्य से बँधे” हुए हैं इसलिए वे अवध पर कब्ज्ञा करने को मजबूर हैं! अपने प्रिय नवाब को जिस तरह से गद्दी से हटाया गया, उसे देखकर लोगों में गुस्सा भड़क उठा और अवध के लोग भी 1857 के महान विद्रोह में शामिल हो गए।

नए शासन की स्थापना

गवर्नर-जनरल वॉरेन हेस्टिंग्स (1773-1785) उन बहुत सारे महत्वपूर्ण व्यक्तियों में से था जिन्होंने कंपनी की ताकत फैलाने में अहम भूमिका अदा की थी। वॉरेन हेस्टिंस्स के समय तक आते-आते कंपनी न केवल बंगाल
बल्कि बम्बई और मद्रास में भी सत्ता हासिल कर चुकी थी। ब्रिटिश इलाके मोटे तौर पर प्रशासकीय इकाइयों में बँटे हुए थे जिन्हें प्रेज़डेंसी कहा जाता था। उस समय तीन प्रेज़िडेंसी थीं - बंगाल, मद्रास और बम्बई। हरेक का
शासन गवर्नर के पास होता था। सबसे ऊपर गवर्नर-जनरल होता था। वॉरेन हेस्टिंग्स ने कई प्रशासकीय सुधार किए। न्याय के क्षेत्र में उसके सुधार खासतौर से उल्लेखनीय थे।

1772 से एक नयी न्याय व्यवस्था स्थापित की गई। इस व्यवस्था में प्रावधान किया गया कि हर जिले में दो अदालतें होंगी - फ़ौजदारी अदालत और दीवानी अदालत। दीवानी अदालतों के मुखिया यूरोपीय ज़िला कलेक्टर होते थे। मौलवी और हिंदू पंडित उनके लिए भारतीय कानूनों की व्याख्या करते थे। फ़ौजदारी अदालतें अभी भी काज़ी और मुफ्ती के ही अंतर्गत थीं लेकिन वे भी कलेक्टर की निगरानी में काम करते थे।

एक बड़ी समस्या यह थी कि ब्राह्मण पंडित धर्मशासत्र की अलग-अलग शाखाओं के हिसाब से स्थानीय कानूनों की अलग-अलग व्याख्या कर देते थे। इस भिन्‍नता को खत्म करके समरूपता लाने के लिए 1775 में 11 पंडितों
को भारतीय कानूनों का एक संकलन तैयार करने का काम सौंपा गया। एन. बी. हालहेड ने इस संकलन का अंग्रेज़ी में अनुवाद किया। 1778 तक यूरोपीय न्यायाधीशों के लिए मुसलिम कानूनों की भी एक संहिता तैयार कर
ली गई थी। 1773 के रेग्युलेटिंग ऐक्ट के तहत एक नए सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना की गई। इसके अलावा कलकत्ता में अपीलीय अदालत - सदर निजञ्ञामत अदालत - की भी स्थापना की गई।

भारतीय जिले में कलेक्टर सबसे बड़ा ओहदा होता था। जैसा कि नाम से ही पता चलता है, उसका मुख्य काम लगान और कर इकट्ठा करना तथा न्यायाधीशों, पुलिस अधिकारियों व दारोगा की सहायता से जिले में पा -व्यवस्था बनाए रखना होता था। उसका कार्यालय - कलेक्टरेट - सत्ता और संरक्षण का नया केंद्र बन गया था जिसने पुराने सत्ता केंद्रों को हाशिये पर ढकेल दिया।

कंपनी की फौज

कंपनी के साथ भारत में शासन और सुधार के नए विचार तो आए लेकिन उसकी असली सत्ता सैनिक ताकत में थी। मुगल फ़ौज मुख्य रूप से घुड़्सवार (सवार : घोड़े पर चलने वाले प्रशिक्षित) और पैदल सेना थी। उन्हें तीरंदाजी और तलवारबाज़ी का प्रशिक्षण दिया जाता था। सेना में सवारों का दबदबा रहता था और मुगल साम्राज्य को एक विशाल पेशेवर प्रशिक्षण वाली पैदल सेना की ज़रूरत महसूस नहीं होती थी। ग्रामीण इलाकों में सशस्त्र
किसानों की बडी संख्या थी। स्थानीय ज़मींदार मुगलों को ज़रूरत पड़ने पर पैदल सिपाही मुहैया कराते थे।

अठारहवीं सदी में जब अवध और बनारस जैसी रियासतों में किसानों को भर्ती करके उन्हें पेशेवर सैनिक प्रशिक्षण दिया जाने लगा तो यह सूरत बदलने लगी। ईस्ट इंडिया कंपनी ने जब अपनी सेना के लिए भर्ती शुरू की तो उसने भी यही तरीका अपनाया। अंग्रेज़ अपनी सेना को सिपॉय (जो भारतीय शब्द “सिपाही' से ही बना है) आर्मी कहते थे।

1820 के दशक से जैसे जैसे युद्ध तकनीक बदलने लगी कंपनी की सेना में घुड़सवार टुकडियों की ज़रूरत कम होती गई। इसकी वजह यह थी कि ब्रिटिश साम्राज्य बर्मा, अफगानिस्तान और मित्र में भी लड़ रहा था जहाँ
सिपाही मस्केट (तोड़ेदार बंदूक) और मैचलॉक से लैस होते थे। कंपनी की सेना के सिपाहियों को बदलती सैनिक आवश्यकताओं का ध्यान रखना पड़ता था और अब उसकी पैदल टुकड़ी ज़्यादा महत्वपूर्ण होती जा रही थी।

उन्‍नीसवीं सदी की शुरुआत में अंग्रेज एक समरूप सैनिक संस्कृति विकसित करने लगे थे। सिपाहियों को यूरोपीय ढंग का प्रशिक्षण, अभ्यास और अनुशासन सिखाया जाने लगा। अब उनका जीवन पहले से भी ज़्यादा
नियंत्रित था। इस कोशिश में कभी-कभी समस्याएँ भी आ जाती थीं क्योंकि पेशेवर सिपाहियों की सेना खड़ा करने के चक्कर में अंग्रेज कई बार जाति और समुदाय की भावनाओं को नज़रअंदाज़ कर देते थे। भला लोग अपनी
जातीय और धार्मिक भावनाओं को इतनी आसानी से कैसे छोड़ सकते थे? क्या वे खुद को अपने समुदाय का सदस्य मानने की बजाय सिर्फ सिपाही मान सकते थे?

सिपाही क्‍या महसूस करते थे? अपने जीवन और अपनी पहचान, यानी वे कौन हैं, इस बात के अहसास में जो बदलाव आ रहे थे उनको सिपाहियों ने किस तरह देखा? 1857 का विद्रोह हमें सिपाहियों की इस दुनिया की
झलक दिखाता है।

निष्कर्ष

ईस्ट इंडिया कंपनी एक व्यापारिक कंपनी से बढ़ते-बढ़ते एक भौगोलिक औपनिवेशिक शक्ति बन गईं उन्‍्नीसवीं सदी की शुरुआत में नयी तकनीक के आने से यह प्रक्रिया और तेज हुई। तब तक समुद्र मार्ग से भारत पहुँचने में 6-8 माह का समय लग जाता था। भाप से चलने वाले जहाज्ों ने यह यात्रा तीन हफ्तों में समेट दी। इसके बाद तो ज़्यादा से ज़्यादा अंग्रेज और उनके परिवार भारत जैसे दूर देश में आने लगे।

1857 तक भारतीय उपमहाद्वीप के 63 प्रतिशत भूभाग और 78 प्रतिशत आबादी पर कंपनी का सीधा शासन स्थापित हो चुका था। देश के शेष भूभाग और आबादी पर कंपनी का अप्रत्यक्ष प्रभाव था। इस प्रकार, व्यावहारिक स्तर पर ईस्ट इंडिया कंपनी पूरे भारत को अपने नियंत्रण में ले चुकी थी।

शनिवार, 22 दिसंबर 2018

1857 की क्रान्ति की असफलता के कारण

1857 की क्रान्ति अंग्रेजों को भारत से बाहर निकालने का सशस्त्र प्रयास था। भारतीय सेना संख्या में अंग्रेजों से सात गुना अधिक थी और जनता का सहयोग भी प्राप्त था। इतने पर भी अंग्रेज विद्रोह का दमन करने में सफल रहे और भारतीयों को हार का सामना करना पड़ा।

कुशल एवं योग्य नेतृत्व का अभाव

इस संग्राम को सही से संचालित करने वाले कुशल एवं योग्य नेतृत्व का अभाव था। बहादुर शाह, वृद्ध और कमजोर शासक था। नाना साहब, रानी लक्ष्मी बाई, वाजिद अली शाह, हजरत महल, कुँवर सिंह, बख्त खां, अजीमुल्ला आदि के हाथ में विद्रोहियों की बागडोर थी, लेकिन वे अपने उद्देश्य पर दृढ़ थे. इनमें आपसी समन्वय व नेतृत्व क्षमता का अभाव था.

क्रान्ति का समय से पूर्व होना

क्रान्ति की पूर्व योजनानुसार 31 मई 1857 का दिन एक साथ विद्रोह करने हेतु तय किया गया था लेकिन मेरठ में विद्रोह 10 मई 1857 को तय समय से पूर्व आरम्भ हो था. ऐसे में अलग-अलग समय और स्थानों पर हुई क्रान्ति का दमन करने में अंग्रेज सफल हो गये. मेलिसन ने लिखा है - “यदि पूर्व योजना के अनुसार 31 मई 1857 को एक साथ सभी स्थानों पर स्वाधीनता का संग्राम आरम्भ होता तो अंग्रेजों के लिए भारत को पुनः विजय करना किसी भी प्रकार सम्भव न होता।

भारतीय नरेशों का असहयोग

अधिकांश रियासतों के राजाओं ने अपने स्वार्थवश इस विद्रोह का दमन करने में अंग्रेजों का साथ दिया। लार्ड केनिंग ने इन राजाओं को “तूफान रोकने में बांध" की तरह बताया है।अपनी वीरता के लिए प्रसिद्द राजपूताने, मराठे, मैसूर, पँजाब, पूर्वी बंगाल आदि के शासक शान्त रहे. डब्ल्यू एच रसेल ने लिखा है “यदि भारतीय और साहस के साथ अंग्रेजों का विरोध करते तो वे (अंग्रेज) शीघ्र ही समाप्त हो जाते। यदि पटियाला या जींद के राजा हमारे मित्र न होते, यदि पंजाब में शान्ति न बनी रहती तो दिल्‍ली पर हमारा अधिकार करना सम्भव न होता।"

जमींदारों, व्यापारियों व शिक्षित वर्ग की तटस्थता

बड़े जमींदारों, साहूकारों और व्यापारियों ने अंग्रेजों को सहयोग किया। शिक्षित वर्ग का समर्थन भी क्रान्तिकारियों को न मिल सका।

सीमित साधन

अंग्रेजों के पास यूरोपीय देश के प्रशिक्षित और आधुनिक हथियारों से सुसज्जित अनुशासित सेना थी, समुद्र अपने नियन्त्रण का लाभ भी उन्हें मिला। भारतीय सैनिकों में अनुशासन, सैनिक संगठन व योग्य नेतृत्व का अभाव था. साथ ही इन्हें धन, रसद और हथियारों की कमी का सामना भी पड़ा.

निश्चित लक्ष्य एवं आर्दश का अभाव

क्रान्तिकारियों द्वारा अंग्रेजों को भारत से बाहर निकालने के लिए किया गया यह संग्राम यद्यपि व्यापक था और अंग्रेजों को भारत से बाहर निकालने के लिए किया गया था लेकिन अंग्रेजों के यहाँ से जाने के बाद भावी प्रशासनिक स्वरूप के संबंध में कोई आदर्श या योजना क्रान्तिकारियों के सामने नहीं थी। वी.डी. सावरकर ने
लिखा है- “लोगों के सामने यदि कोई स्पष्ट आदर्श रखा होता, जो उनको हृदय से आकृष्ट कर सकता, तो क्रान्ति का अन्त भी उतना ही अच्छा होता जितना कि प्रारम्भ।

अंग्रेजों की अनुकूल परिस्थितियाँ

1857 का वर्ष अंग्रेजों के लिए हितकारी रहा. क्रीमिया व चीन से युद्ध में विजय के पश्चात अंग्रेज सैनिक भारत पहुँच गए। अंग्रेजों ने 3,10,000 की एक अतिरिक्त सेना का गठन भी कर लिया था. यातायात और संचार में डलहौजी द्वारा रेल, डाकतार की व्यवस्था भी अंग्रेज़ों के लिए अनुकूल रही.

केनिंग और अंग्रेजों की कूटनीति

अंग्रेज अपनी कूटनीति से पंजाब, पश्चिमत्तोर सीमा प्रान्त के पठानों, अफगानों, सिन्धिया व निजाम का सहयोग प्राप्त करने में सफल रहे. क्रान्तिकारियों को शान्त करने में केनिंग की उदार नीति का भी प्रभाव पड़ा। आर. सी. मजूमदार ने अंग्रेजों की कूटनीति को उनकी सफलता की चाबी बताया है।

संक्षेप में कहा जा सकता है कि राष्ट्रीय भावनाओं की कमी, पारस्परिक समन्वय और सर्वमान्य नेतृत्व का अभाव 1857 की क्रांति की असफलता का प्रमुख कारण था.

शुक्रवार, 21 दिसंबर 2018

मुग़ल दरबार व उनकी प्रशासनिक व्यवस्था

मुगल शासक और उनका साप्राज्य

मुग़ल नाम मंगोल से व्युत्पनन हुआ है। यद्यपि आज यह नाम एक साम्राज्य की भव्यता का अहसास कराता हे लेकिन राजवंश के शासकों ने स्वयं के लिए यह नाम नहीं चुना था। उन्होंने अपने को तैमूरी कहा क्योंकि पितृपक्ष से वे तुर्की शासक तिमूर के वंशज थे। पहला मुग़ल शासक बाबर मातृपक्ष से चंगेज़ खाँ का संबधी था। वह तुर्की बोलता था और उसने मंगोलों का उपहास करते हुए उन्हें बर्बर गिरोह के रूप में उल्लिखित किया है।

सोलहवीं शताब्दी के दौरान यूरोपियों ने परिवार की इस शाखा के भारतीय शासकों का वर्णन करने के लिए मुगल शब्द का प्रयोग किया। सोलहवीं शताब्दी से ही इस शब्द का निरंतर प्रयोग होता रहा है। यहाँ तक कि रडयार्ड किपलिंग की ज्यल बुक के युवा नायक मोगली का नाम भी इससे व्युत्पन्न हुआ है।

मुग़लों व स्थानीय सरदारों के बीच राजनीतिक -मैत्रियों के ज़रिए तथा विजयों के ज़रिए भारत के विविध क्षेत्रीय राज्यों को मिलाकर साम्राज्य की रचना की गई। साम्राज्य के संस्थापक जहीरुद्दीन बाबर को उसके मध्य एशियाई स्वदेश फरगाना से प्रतिद्वंद्वी उज्ञबेकों ने भगा दिया था। उसने सबसे पहले स्वयं को काबुल में स्थापित किया और फिर 1526 में अपने दल के सदस्यों की आवश्यकताएँ पूरी करने के लिए क्षेत्रों और संसाधनों की खोज में वह भारतीय उपमहाद्वीप में और आगे की ओर बढ़ा।

इसके उत्तराधिकारी नसीरुद्दीन हुमायूँ (1530-40, 1555-56) ने साम्राज्य की सीमाओं में विस्तार किया किंतु वह अफ़गान नेता शेरशाह सूर से पराजित हो गया जिसने उसे ईरान के सफ़ावी शासक के दरबार में निर्वासित होने को बाध्य कर दिया। 1555 में हुमायूँ ने सूरों को पराजित कर दिया किंतु एक वर्ष बाद ही उसकी मृत्यु हो गई।

कई लोग जलालुद्दीन अकबर (1556-1605) को मुग़ल बादशाहों में महानतम मानते हैं क्योंकि उसने न केवल अपने साम्राज्य का विस्तार ही किया बल्कि इसे अपने समय का विशालतम, दुढ़ुतम और सबसे समृद्ध राज्य बनाकर सुदृढ़ भी किया। अकबर हिंदुकुश पर्वत तक अपने साम्राज्य की सीमाओं के विस्तार में सफल हुआ और उसने ईरान के सफ़ावियों और तूरान (मध्य एशिया) के उज़बेकों की विस्तारवादी योजनाओं पर लगाम लगाए रखी। अकबर के बाद जहांगीर (1605-27) , शाहजहाँ (1628-58) और औरंगज्ञेब (1658-1707) के रूप में भिन्‍न-भिन्‍न व्यक्तित्वों वाले तीन बहुत योग्य उत्तराधिकारी हुए। इनके अधीन क्षेत्रीय विस्तार जारी रहा यद्यपि इसकी गति काफ़ी धीमी रही। तीनों शासकों ने शासन के विविध यंत्रों को बनाए रखा ओर उन्हें सुदृढ़ किया।

सोलहवीं और सत्रहरवी शताब्दियों के दौरान शाही संस्थाओं के ढाँचे का निर्माण हुआ। इनके अंतर्गत प्रशासन और कराधान के प्रभावशाली तरीके शामिल थे। मुग़ल शक्ति का सुस्पष्ट केंद्र दरबार था। यहाँ राजनीतिक संबंध गढ़े जाते थे, साथ ही श्रेणियाँ और हैसियतें परिभाषित की जाती थीं। मुग़लों द्वारा शुरू की गई राजनीतिक व्यवस्था सैन्य शक्ति और उपमहाद्वीप की भिन्‍न-भिन्‍न परंपराओं को समायोजित करने की चेतन नीति के संयोजन पर आधारित थी।

1707 के बाद औरंगज़ेब की मृत्योपरांत राजवंश की शक्ति घट गई। दिल्‍ली, आगरा अथवा लाहौर जैसे भिन्‍न राजधानी नगरों से नियंत्रित एक विशाल साम्राज्य तंत्र की जगह क्षेत्रीय शक्तियों ने अधिक स्वायत्तता अर्जित कर ली। फिर भी सांकेतिक रूप में ही सही पर मुग़ल शासक की प्रतिष्ठा ने अभी अपनी आभा नहीं खोई थी। 1857 में इस वंश के अंतिम वंशज बहादुरशाह ज़फर द्वितीय को अंग्रेज्ञों ने उखाड़ फेंका।

2. इतिवृत्तों की रचना

मुग़ल बादशाहों द्वारा तैयार करवाए गए इतिवृत्त साम्राज्य और उसके दरबार के अध्ययन के महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं। ये इतिवृत्त इस साम्राज्य के अंतर्गत आने वाले सभी लोगों के सामने एक प्रबुद्ध राज्य के दर्शन की प्रायोजना के उद्देश्य से लिखे गए थे। इसी तरह इनका उद्देश्य उन लोगों को, जिन्होंने मुगल शासन का विरोध किया था, यह बताना भी था कि उनके सारे विरोधों का असफल होना नियत है। शासक यह भी सुनिश्चित कर लेना चाहते थे कि भावी पीढ़ियों के लिए उनके शासन का विवरण उपलब्ध रहे।

मुग़ल इतिवृत्तों के लेखक निरपवाद रूप से दरबारी ही रहे। उन्होंने जो इतिहास लिखे उनके केंद्रबिंदु में थीं शासक पर केंद्रित घटनाएं, शासक का परिवार, दरबार व अभिजात, युद्ध और प्रशासनिक व्यवस्थाएं। अकबर, शाहजहाँ और आलमगीर (मुगल शासक औरंगजेब की एक पदवी) की कहानियों पर आधारित इतिवृत्तों के शीर्षक अकबरनामा, शाहजहानामा, आलमगीरनामा यह संकेत करते हैं कि इनके लेखकों की निगाह में साम्राज्य व दरबार का इतिहास और बादशाह का इतिहास एक ही था।

2.1 तुर्की से फ़ारसी की ओर

मुगल दरबारी इतिहास फ़ारसी भाषा में लिखे गए थे। दिल्ली के सुल्तानों के काल में उत्तर भारतीय भाषाओं विशेषकर हिंदवी व इसकी क्षेत्रीय भिन्‍नताओं के साथ फ़ारसी, दरबार और साहित्यिक रचनाओं की भाषा के रूप में, खूब पुष्पित-पल्लवित हुई। चूँकि मुगल चग्रताई मूल के थे अतः तुर्की उनकी मातृभाषा थी। इनके पहले शासक बाबर ने कविताएँ और अपने संस्मरण इसी भाषा में लिखे थे।

अकबर ने सोच-समझकर फ़ारसी को दरबार की मुख्य भाषा बनाया। संभवतया ईरान के साथ सांस्कृतिक और बौद्धिक संपक्कों के साथ-साथ मुग़ल दरबार में पद पाने को इच्छुक ईरानी और मध्य एशियाई प्रवासियों ने बादशाह को इस भाषा को अपनाए जाने के लिए प्रेरित किया होगा। फ़ारसी को दरबार की भाषा का ऊंचा स्थान दिया गया तथा उन लोगों को शक्ति व प्रतिष्ठा प्रदान की गई जिनकी इस भाषा पर अच्छी फ्कड़ थी। राजा, शाही परिवार के लोग और दरबार के विशिष्ट सदस्य यह भाषा बोलते थे। कुछ और आगे यह सभी स्तरों के प्रशासन की भाषा बन गई जिससे लेखाकारों, लिपिकों तथा अन्य अधिकारियों ने भी इसे सीख लिया।

जहाँ जहाँ फ़ारसी प्रत्यक्ष प्रयोग में नहीं थी, वहाँ भी राजस्थानी, मराठी और यहाँ तक कि तमिल में शासकीय लेखों की भाषा को इसकी शब्दावली और मुहावरों ने व्यापक रूप से प्रभावित किया था। चूंकि सोलहवीं और सत्रहवीं शताब्दियों के दौरान फ़ारसी का प्रयोग करने वाले लोग उपमहाद्वीप के कई अलग-अलग क्षेत्रों से आए थे और वे अन्य भारतीय भाषाएं भी बोलते थे अतः स्थानीय मुहावरों को समाविष्ट करने से फ़ारसी का भी भारतीयकरण हो गया था। फ़ारसी के हिंदवी के साथ पारस्परिक संपर्क से उर्दू के रूप में एक नयी भाषा निकल कर आई।

अकबरनामा जैसे मुगल इतिहास फ़ारसी में लिखे गए थे जबकि अन्य जैसे बाबर के संस्मरणों का बाबरनामा के नाम से तुर्की से फ़ारसी में अनुवाद किया गया था। मुगल बादशाहों ने महाभारत और रामायण जैसे संस्कृत ग्रंथों को फ़ारसी में अनुवादित किए जाने का आदेश दिया। महाभारत का अनुवाद रज़्मनामा (युद्धों की पुस्तक) के रूप में हुआ।

2.2 पांडुलिपियों की रचना

मुगल भारत की सभी पुस्तकें पांडुलिफियों के रूप में थीं अर्थात्‌ वे हाथ से लिखी होती थीं। पांडुलिपि रचना का मुख्य केंद्र शाही किताबखाना था। हालाँकि किताबसख़ाना शब्द पुस्तकालय के रूप में अनुवादित किया जा सकता है, यह दरअसल एक लिपिघर था अर्थात ऐसी जगह जहाँ बादशाह की पांद्ुलिपियों का संग्रह रखा जाता तथा नयी पांडुलिपियों की रचना की जाती थी।

पांडुलिपियों की रचना में विविध प्रकार के कार्य करने वाले बहुत लोग शामिल होते थे। कागज बनाने वालों की पांडुलिपि के पन्‍ने तैयार करने, सुलेखकों की पाठ की नकल तैयार करने, कोफ़्तगरों की पृष्ठों को चमकाने के लिए, चित्रकारों की पाठ से दृश्यों को चित्रित करने के लिए और जिल्दसाज़ों की प्रत्येक पन्‍ने को इकट्ठा कर उसे अलंकृत आवरण में बैठने के लिए. आवश्यकता होती थी। तैयार पांडुलिपि को एक बहुमूल्य वस्तु, बोद्धिक संपदा और सौंदर्य के कार्य के रूप में देखा जाता था। इस तरह के सौंदर्य को अस्तित्व में लाकर इन पांडुलिपियों के संरक्षक मुग़ल बादशाह अपनी शक्ति को दर्शा रहे थे।

इसी तरह इन पांडुलिपियों की वास्तविक रचना में शामिल कुछ लोगों को भी पदवियों ओर पुरस्कारों के रूप में पहचान मिली। इनमें सुलेखकों और चित्रकारों को तो उच्च सामाजिक प्रतिष्ठा मिली जबकि अन्य, जैसे कागज़ बनाने वाले अथवा जिल्दसाज़ गुमनाम कारीगर ही रह गए।

सुलेखन अर्थात्‌ हाथ से लिखने की कला अत्यंत महत्त्वपूर्ण कौशल मानी जाती थी। इसका प्रयोग भिन्न-भिन्न शैलियों में होता था। नस्तलिक अकबर की पसंदीदा शैली थी। यह एक ऐसी तरल शैली थी जिसे लंबे सपाट प्रवाही ढंग से लिखा जाता था। इसे 5 से 10 मिलीमीटर की नोक वाले छंटे हुए सरकंडे, जिसे कलम कहा जाता है, के टुकड़े से स्याही में डुबोकर लिखा जाता है। सामान्यतया कलम की नोक में बीच में छोटा सा चीरा लगा दिया जाता था ताकि वह स्याहदी आसानी से सोख ले।

3. रंगीन चित्र

जैसा कि हमने पिछले अनुभाग में पढ़ा, मुग़ल पांडुलिपियों की रचना में चित्रकार भी शामिल थे। एक मुग़ल बादशाह के शासन की घटनाओं का विवरण देने वाले इतिहासों में लिखित पाठ के साथ ही उन घटनाओं को
चित्रों के माध्यम से दृश्य रूप में भी वर्णित किया जाता था। जब किसी पुस्तक में घटनाओं अथवा विषयों को दृश्य रूप में व्यक्त किया जाना होता था तो सुलेखक उसके आसपास के पृष्ठों को खाली छोड़ देते थे। चित्रकार शब्दों में वर्णित विषय को अलग से चित्र रूप में उतारकर वहाँ संलग्न कर देते थे। ये लघुचित्र होते थे जिन्हें पांडुलिपि के पृष्ठों पर आसानी से लगाया और देखा जा सकता था।

चित्रों को न केवल किसी पुस्तक के सौंदर्य को बढ़ावा देने वाला बल्कि उन्हें तो, लिखित माध्यम से राजा और राजा की शक्ति के विषय में जो बात कही न जा सकी हों, ऐसे विचारों के संप्रेषण का भी एक सशक्त माध्यम माना जाता था। इतिहासकार अबुल फज्ल ने चित्रकारी का एक “जादुई कला' के रूप में वर्णन किया है। उसकी राय में यह कला किसी निर्जीव वस्तु को भी इस रूप में प्रस्तुत कर सकती है कि जैसे उसमें जीवन हो।

बादशाह, उसके दरबार तथा उसमें हिस्सा लेने वाले लोगों का चित्रण करने वाले चित्रों की रचना को लेकर शासकों और मुसलमान रूढ़्वादी वर्ग के प्रतिनिधियों अर्थात उलमा के बीच निरंतर तनाव बना रहा। उलमा
ने कुरान के साथ-साथ हदीस, जिसमें पैगम्बर मुहम्मद के जीवन से एक ऐसा ही प्रसंग वर्णित है, में प्रतिष्ठापित मानव रूपों के चित्रण पर इस्लामी प्रतिबंध का आह्वान किया। इस प्रसंग में पैगम्बर साहब को प्राकृतिक तरीके से जीवित रूपों के चित्रण की मनाही करते हुए उल्लिखित किया गया है क्‍योंकि ऐसा करने से यह लगता था कि
कलाकार रचना की शक्ति को अपने हाथ में लेने की कोशिश कर रहा है। यह एक ऐसा कार्य था जो केवल ईश्वर का ही था।

किंतु समय के साथ शरिया की व्याख्याओं में भी बदलाव आया। विभिन्‍न सामाजिक समूहों ने इस्लामी परंपरा के ढाँचे की अलग-अलग तरीकों से व्याख्या की। प्राय: प्रत्येक समूह ने इस परंपरा की ऐसी व्याख्या प्रतिपादित की जो उनकी राजनीतिक आवश्यकताओं से सबसे ज़्यादा मेल खाती थी। जिन शतान्दियों के दौरान साम्राज्य निर्माण हो रहा था उस समय कई एशियाई क्षेत्रों के शासकों ने नियमित रूप से कलाकारों को उनके चित्र तथा उनके राज्य के जीवन के दृश्य चित्रित करने के लिए नियुक्त किया। उदाहरण के लिए, ईरान के सफ़ावी राजाओं ने दरबार में स्थापित कार्यशालाओं में प्रशिक्षित उत्कृष्ट कलाकारों को संरक्षण प्रदान किया। बिहज़ाद जैसे चित्रकारों के नाम ने सफ़ावी दरबार की सांस्कृतिक प्रसिद्धि को चारों ओर फैलाने में बहुत योगदान दिया।

ईरान से भी कलाकार मुग़लकालीन भारत आने में सफल हुए। कुछ को मुग़ल दरबार में लाया गया जैसे मीर सैय्यद अली और अब्दुस समद को बादशाह हुमायूं को दिल्‍ली तक साथ देने के लिए कहा गया। अन्य ने संरक्षण ओर प्रतिष्ठा के अक्सरों की तलाश में प्रवास किया। बादशाह और रूढ़िवादी मुसलमान विचाराधारा के प्रवक्‍ताओं के बीच जीवधारियों के दृश्य निरूपण पर मुगल दरबार में तनाव बना हुआ था। अकबर का दरबारी इतिहासकार अबुल फज्ल बादशाह को यह कहते हुए उद्धृत करता है, “कई लोग ऐसे हैं जो चित्रकला से घृणा करते हैं पर मैं ऐसे व्यक्तियों को नापसंद करता हूँ। मुझे ऐसा लगता है कि कलाकार के पास खुदा को पहचानने का बेजोड़ तरीका है। चौके कहीं न कहीं उसे यह महसूस होता है कि खुदा की रचना को वह जीवन नहीं दे सकता...

4. अकबरनामा और बादशाहनामा

महत्त्वपूर्ण चित्रित मुगल इतिहासों में सर्वाधिक ज्ञात अकबरनामा और बादशाहनामा (राजा का इतिहास) है। प्रत्येक पांडुलिपि में औसतन 150 पूरे अथवा दोहरे पृष्ठों पर लड़ाई, घेराबंदी, शिकार, इमारत-निर्माण, दरबारी दृश्य आदि के चित्र हैं।

अकबरनामा के लेखक अबुल फज्ल का पालन-पोषण मुग़ल राजधानी आगरा में हुआ। वह अरबी, फारसी, यूनानी दर्शन और सूफ़ीवाद में पर्याप्त निष्णात था। इससे भी अधिक वह एक प्रभावशाली विवादी तथा स्वतंत्र चिंतक था जिसने लगातार दकियानूसी उलमा के विचारों का विरोध किया। इन गुणों से अकबर बयहुत प्रभावित हुआ। उसने अबुल फल को अपने सलाहकार और अपनी नीतियों के प्रवक्ता के रूप में बहुत उपर्युक्त पाया। बादशाह का एक मुख्य उद्देश्य राज्य को धार्मिक रूढ़्िवादियों के नियंत्रण से मुक्त करना था। दरबारी इतिहासकार के रूप में अबुल फज्ल ने अकबर के शासन से जुड़े विचारों को न केवल आकार दिया बल्कि उनको स्पष्ट रूप से व्यक्त भी किया।

1589 में शुरू कर अबुल फज्ल ने अकबरनामा पर तेरह वर्षों तक कार्य किया और इस दौरान कई बार उसने प्रारूप में सुधार किए। यह इतिहास घटनाओं के यास्तविक वियरणों ( वाक़ई), शासकीय दस्तावेजों तथा जानकार व्यक्तियों के मौखिक प्रमाणों जैसे विभिन्‍न प्रकार के साक्ष्यों पर आधारित है।

अकबरनामा को तीन जिल्दों में विभाजित किया गया है जिनमें से प्रथम दो इतिहास हैं। तीसरी जिल्द आइन-ए-अकबरी है। पहली जिल्द में आदम से लेकर अकबर के जीवन के एक खगोलीय कालचक्र तक (30 वर्ष) का मानव-जाति का इतिहास है। दूसरी जिल्द अकबर के 46वें शासन वर्ष (1601) पर ख़त्म होती है। अगले ही वर्ष अबुल फ़ज्ल राजकुमार सलीम द्वारा तैयार किए गए षड्यंत्र का शिकार हुआ और सलीम के सहापराधी बीर सिंह बुंदेला द्वारा उसकी हत्या कर दी गई।

अकबरनामा का लेखन राजनीतिक रूप से महत्त्वपूर्ण घटनाओं के समय के साथ विवरण देने के पारंपरिक ऐतिहासिक दृष्टिकोण से किया गया। इसके साथ ही तिथियों और समय के साथ होने वाले बदलावों के उल्लेख के बिना ही अकबर के साम्राज्य के भौगोलिक, सामाजिक, प्रशासनिक और सांस्कृतिक सभी पक्षों का विवरण प्रस्तुत करने के अभिनव तरीके से भी इसका लेखन हुआ। आइन-ए-अकबरी में मुगल साम्राज्य को हिंदुओं, जैनों, बौद्धों और मुसलमानों की भिन्‍न-भिन्‍न आबादी वाले तथा एक मिश्रित संस्कृति वाले साम्राज्य के रूप में प्रस्तुत
किया गया है।

अबुल फ़्ल की भाषा बहुत अलंकृत थी और चूंकि इस भाषा के पाठों को ऊंची आवाज़ में पढ़ा जाता था अतः इस भाषा में लय तथा कथन-शैली को यहुत महत्त्व दिया जाता था। इस भारतीय-फ़ारसी शैली को दरबार में संरक्षण मिला।

अबुल फजल का एक शिष्य अब्दुल हमीद लाहौरी बादशाहनामा के लेखक के रूप में जाना जाता है। इसकी योग्यताओं के बारे में सुनकर बादशाह शाहजहाँ ने उसे अकबरनामा के नमूने पर अपने शासन का इतिहास लिखने के लिए नियुक्त किया। बादशाहनामा भी सरकारी इतिहास है। इसकी तीन जिल्दें ( दफ़्तर) हैं और प्रत्येक जिल्द दस चंद्र वर्षों का ब्योरा देती है। लाहौरी ने बादशाह के शासन (1627-47) के पहले दो दशकों पर पहला य दूसरा दफ़्तः लिखा। इन जिलों में बाद में शाहजहाँ के वज़ीर सादुल्‍लाह खाँ ने सुधार किया। बुढ़ापे की अशक्तताओं की वजह से लाहौरी तीसरे दशक के बारे में न लिख सका जिसे बाद में इतिहासकार वारिस ने लिखा।

औपनिवेशिक काल के दौरान अंग्रेज प्रशासकों ने अपने साम्राज्य के लोगों ओर संस्कृतियों (जिन पर वे लंबा शासन करना चाहते थे), को बेहतर ढंग से समझने के लिए भारतीय इतिहास का अध्ययन तथा उपमहाद्वीप के बारे में ज्ञान का अभिलेखागार स्थापित करना शुरू किया। 1784 में सर विलियम जोन्स द्वारा स्थापित एशियाटिक सोसाइटी ऑफ़ बंगाल ने कई भारतीय पांडुलिपियों के संपादन, प्रकाशन और अनुवाद का ज़िम्मा अपने ऊपर ले लिया।

अकबरनामा और बादशाहनामा के संपादित पाठान्तर सबसे पहले एशियाटिक सोसाइटी द्वारा उन्‍नीसवी शताब्दी में प्रकाशित किए गए। वर्षों की कड़ी मेहनत के बाद बीसवीं शताब्दी के आरंभ में हेनरी बेवरिज द्वारा अकबरनामा का अंग्रेज़ी अनुवाद किया गया। बादशाहनामा के केवल कुछ ही अंशों का अभी तक अंग्रेज़ी में अनुवाद हुआ है, इसका मूल पाठ अपने संपूर्ण रूप में आज भी अनुवाद किए जाने की प्रतीक्षा में हे।

5. आदर्श राज्य

5.1 एक दैवीय प्रकाश

दरबारी इतिहासकारों ने कई साक्ष्यों का हवाला देते हुए यह दिखाया कि मुगल राजाओं को सीधे ईश्वर से शक्ति मिली थी। उनके द्वारा वर्णित दंतकथाओं में से एक मंगोल रानी अलानकुआ की कहानी है जो अपने शिविर में आराम करते समय सूर्य की एक किरण द्वारा गर्भवती हुई थी। उसके द्वारा जन्म लेने वाली संतान पर इस दैवीय प्रकाश का प्रभाव था। इस प्रकार पीढ़ी-दर-पीढ़ी यह प्रकाश हस्तांतरित होता रहा।

ईश्वर ( फर-ए-इज्ादी) से निःसृत प्रकाश को ग्रहण करने वाली चीज्ञों के पदानुक्रम में मुगल राजत्व को अबुल फज्ल ने सबसे ऊँचे स्थान पर रखा। इस विषय में वह प्रसिद्ध ईरानी सूफी शिहाबुद्दीन सुहरावर्दी (1191 में मृत) के विचारों से प्रभावित था जिसने सर्वप्रथम इस प्रकार का विचार प्रस्तुत किया था। इस विचार के अनुसार एक पदानुक्रम के तहत यह देवीय प्रकाश राजा में संप्रेषित होता था जिसके बाद राजा अपनी प्रजा के लिए आध्यात्मिक मार्गदर्शन का स्रोत बन जाता था।

इतिवृत्तों के विवरणों का साथ देने वाले चित्रों ने इन विचारों को इस तरीके से संप्रेषित किया कि उन्होंने देखने वालों के मन-मस्तिष्क पर स्थायी प्रभाव डाला। सत्रहवी शताब्दी से मुगल कलाकारों ने बादशाहों को प्रभामंडल के साथ चित्रित करना शुरू किया। ईश्वर के प्रकाश के प्रतीक रूप इन प्रभामंडलों को उन्होंने ईसा और वर्जिन मेरी के यूरोपीय चित्रों में देखा था।

5.2 सुलह-ए-कुल : एकीकरण का एक स्रोत

मुगल इतिवृत्त साम्राज्य को हिंदुओं, जैनों, ज़रतुश्तियों और मुसलमानों जैसे अनेक भिन्‍न-भिन्‍न नृजातीय और धार्मिक समुदायों को समाविष्ट किए हुए साम्राज्य के रूप में प्रस्तुत करते हैं। सभी तरह की शांति और स्थायित्व के स्रोत रूप में बादशाह सभी धार्मिक और नृजातीय समूहों से ऊपर होता था, इनके बीच मध्यस्थता करता था, तथा यह सुनिश्चित करता था कि न्याय और शांति बनी रहे। अबुल फज्ल सुलह-ए-कुल (पूर्ण शांति) के आदर्श को प्रबुद्ध शासन की आधारशिला बताता है। सुलह-ए-कुल में यूँ तो सभी धर्मों और मतों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता थी किंतु उसकी एक शर्त थी कि वे राज्य-सत्ता को क्षति नहीं पहुंचाएंगे अथवा आपस में नहीं लड़ेंगे।

सुलह-ए-कुल का आदर्श राज्य नीतियों के ज़रिए लागू किया गया। मुगलों के अधीन अभिजात-वर्ग मिश्रित किस्म का था-अर्थात उसमें ईरानी, तूरानी, अफ़गानी, राजपूत, दक्खनी सभी शामिल थे। इन सबको दिए गए पद और पुरस्कार पूरी तरह से राजा के प्रति उनकी सेवा और निष्ठा पर आधारित थे। इसके अलावा, अकबर ने 1563 में तीर्थयात्रा कर तथा 1564 में जज़िया को समाप्त कर दिया क्योंकि यह दोनों कर धार्मिक पक्षपात पर आधारित थे। साम्राज्य के अधिकारियों को प्रशासन में सुलह-ए-कुल के नियम का अनुपालन करने के लिए निर्देश दे दिए गए।

सभी मुग़ल बादशाहों ने उपासना-स्थलों के निर्माण व रख-रखाव के लिए अनुदान दिए। यहाँ तक कि युद्ध के दौरान जब मंदिरों को नष्ट कर दिया जाता था तो बाद में उनकी मरम्मत के लिए अनुदान जारी किए जाते थे। ऐसा हमें शाहजहाँ और औरंगज्ञेब के शासन में पता चलता है, हालांकि औरंगजेब के शासनकाल में गैर-मुसलमान प्रजा पर जज़िया फिर से लगा दिया गया।

5.3 सामाजिक अनुबंध के रूप में

न्यायपूर्ण प्रभुसत्ता

अबुल फल ने प्रभुसत्ता को एक सामाजिक अनुबंध के रूप में परिभाषित किया है। वह कहता है कि बादशाह
अपनी प्रजा के चार सन्तों की रक्षा करता है- जीवन (जन), धन (माल), सम्मान ( नामस) ओर विश्वास ( दीन) और इसके बदले में वह आज्ञापालन तथा संसाधनों में हिस्से की माँग करता है। केवल न्यायपूर्ण संप्रभु ही शक्ति और दैवीय मार्गदर्शन के साथ इस अनुबंध का सम्मान कर पाते थे।

6 राजधानियाँ और दरबार

6.1 राजधानी गगर

मुगल साम्राज्य का हृदय-स्थल उसका राजधानी नगर था, जहाँ दरबार लगता था। सोलहवीं और सत्रहवीं शताब्दियों के दौरान मुग़लों की राजधानियाँ बड़ी तेज़ी से स्थानांतरित होने लगीं। हालाँकि बाबर ने लोदियों की राजधानी आगरा पर अधिकार कर लिया था तथापि उसके शासन के चार वर्षों के दौरान राजसी दरबार भिन्‍न-भिन्‍न स्थान पर लगाए जाते रहे। 1560 के दशक में अकबर ने आगरा के किले का निर्माण करवाया। इसे आसपास के क्षेत्रों की खदानों से लाए गए लाल बलुआ पत्थर से बनाया गया था। 1570 के दशक में उसने फतेहपुर सीकरी में एक नयी राजधानी बनाने का निर्णय लिया। इस निर्णय का एक कारण यह हो सकता हे कि
सीकरी अजमेर को जाने वाली सीधी सड़क पर स्थित था, जहाँ शेख मुइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह उस समय तक एक महत्त्वपूर्ण तीर्थ्थल बन चुकी थी। मुग़ल बादशाहों के चिश्ती सिलसिले के सूफ़ियों के साथ घनिष्ठ संबंध बने। अकबर ने सीकरी में जुम्मा मस्जिद के बगल में ही शेख सलीम चिश्ती के लिए सफेद संगमरमर का एक मकबरा बनाने का आदेश दिया। विशाल मेहराबी प्रवेशद्वार (बुलंद दरवाज़ा) के निर्माण का उद्देश्य वहाँ आने वाले लोगों को गुजरात में मुग़ल विजय की याद दिलाना था। 1585 में उत्तर-पश्चिम को और अधिक नियंत्रण में लाने के लिए राजधानी को लाहोर स्थानांतरित कर दिया गया और इस तरह तेरह वर्षो तक अकबर ने इस सीमा पर गहरी चोकसी बनाए रखी। शाहजहाँ ने विवेकपूर्ण राजकोषीय नीतियों को आगे बढ़ाया तथा इमारत निर्माण के अपने शौक को पूरा करने के लिए पर्याप्त धन इकट्ठा कर लिया। जैसाकि आपने पहले के शासकों के संदर्भ में देखा,
राजतंत्रीय संस्कृतियों में इमारत निर्माण-कार्य राजबंशीय सत्ता, धन तथा प्रतिष्ठा का सर्वाधिक स्पष्ट और ठोस
प्रतीक था। मुसलमान शासकों के संदर्भ में इसे धर्मनिष्ठा के एक कार्य के रूप में भी देखा जाता था। 1648 में दरबार, सेना व राजसी खानदान आगरा से नयी निर्मित शाही राजधानी शाहजहाँनाबाद चले गए। दिल्‍ली के प्राचीन रिहायशी नगर में शाहजहाँनाबाद एक नयी और शाही आबादी थी। यहाँ लाल किला, जामा मस्जिद, चाँदनी चोक के बाज़ार की वृक्ष वीधि और अभिजात वर्ग के बड़े-बड़े घर थे। शाहजहाँ का यह नया शहर विशाल एवं भव्य राजतंत्र की ज्यादा औपचारिक कल्पना को व्यक्त करता था।

6.2 मुग़ल दरबार

शासक पर केंद्रित दरबार की भौतिक व्यवस्था ने शासक के अस्तित्व को समाज के हृदय के रूप में प्रदर्शित किया। इसका केंद्रबिंदु इस प्रकार राजसिंहासन अथवा तख्त था जिसने संप्रभु के कार्यों को भौतिक स्वरूप
प्रदान किया था। इसे एक ऐसे स्तंभ के रूप में देखा जाता था जिस पर धरती टिकी हुई थी। सहस्लाब्दियों से भारत में राजतंत्र का प्रतीक रही छतरी, शासक की कांति को सूर्य की कांति से पृथक करने वाली मानी जाती थी।
इतिवृत्तों ने मुग़ल संभ्रांत वर्गों के बीच हैसियत को निर्धारित करने वाले नियमों को बड़ी सुस्पष्टता से सामने रखा है। दरबार में किसी की हेसियत इस बात से निर्धारित होती थी कि वह शासक के कितना पास और दूर
बैठा है। किसी भी दरबारी को शासक द्वारा दिया गया स्थान बादशाह की नज़र में उसकी महत्ता का प्रतीक था। एक बार जब बादशाह सिंहासन पर बैठ जाता था तो किसी को भी अपनी जगह से कहीं और जाने की अनुमति नहीं थी और न ही कोई अनुमति के बिना दरबार से बाहर जा सकता था। दरबारी समाज में सामाजिक नियंत्रण का व्यवहार दरबार में मान्य संबोधन, शिष्यचार तथा बोलने के ध्यानपूर्वक निर्धारित किए गए नियमों द्वारा होता था। शिष्टाचार का ज़रा सा भी उल्लंघन होने पर ध्यान दिया जाता था और उस व्यक्ति को तुरंत ही दंडित किया जाता था।

शासक को किए गए अभिवादन के तरीके से पदानुक्रम में उस व्यक्ति की हेसियत का पता चलता था जैसे जिस व्यक्ति के सामने ज़्यादा झुककर अभिवादन किया जाता था, उस व्यक्ति की हैसियत ज़्यादा ऊंची मानी जाती थी। आत्मनिवेदन का उच्चतम रूप सिजदा या दंडबत लेटना था। शाहजहाँ के शासनकाल में इन तरीकों के स्थान पर चार तसलीम तथा जर्मीबोसी (ज़मीन चूमना) के तरीके अपनाए गए।

मुगल दरबार में राजनयिक दूतों संबंधी नयाचारों में भी ऐसी ही सुस्पष्टता थी। मुग़ल बादशाह के समक्ष प्रस्तुत होने वाले राजदूत से यह अपेक्षा की जाती थी कि वह अभिवादन के मान्य रूपों में से एक-या तो बहुत झुककर अथवा ज़मीन को चूमकर अथवा फ़ारसी रिवाज के मुताबिक छाती के सामने हाथ बाँधकर-तरीके से अभिवादन करेगा। जेम्स- के अंग्रेज दूत टॉमस रो ने यूरोपीय रिवाज के अनुसार जहांगीर के सामने केवल झुककर अभिवादन किया और इसके बाद बैठने के लिए कुर्सी का आग्रह कर पुनः दरबार को अचंभित कर दिया।

बादशाह अपने दिन की शुरुआत सूर्योदय के समय कुछ व्यक्तिगत धार्मिक प्रार्थाओं से करता था और इसके बाद वह पूर्व की ओर मुंह किए एक छोटे छज्जे अर्थात झरोखे में आता था। इसके नीचे लोगों की भीड़ (सैनिक, व्यापारी, शिल्पकार, किसान, बीमार बच्चों के साथ औरतें) बादशाह की एक झलक पाने के लिए इंतज़ार करती थी। अकबर द्वारा शुरू की गई झरोखा दर्शन की प्रथा का उद्देश्य जन विश्वास के रूप में शाही सत्ता की स्वीकृति को और विस्तार देना था।

झरोखे में एक घंटा बिताने के बाद बादशाह अपनी सरकार के प्राथमिक कार्यों के संचालन हेतु सार्वजनिक सभा भवन (दीवान-ए आम) में आता था। वहाँ राज्य के अधिकारी रिपोर्ट प्रस्तुत करते तथा निवेदन करते थे। दो घंटे बाद बादशाह दीवान-ए-ख़ास में निजी सभाएं और गोपनीय मुद्दों पर चर्चा करता था। राज्य के वरिष्ठ मंत्री उसके सामने अपनी याचिकाएं प्रस्तुत करते थे और कर अधिकारी हिसाब का ब्योरा देते थे। कभी-कभी बादशाह उच्च प्रतिष्ठित कलाकारों के कार्यों अथवा वास्तुकारों ( मिमार) के द्वारा बनाए गए इमारतों के नक्शों को देखता था।

सिंहासनारोहण की वर्षगाँठ, ईद, शब-ए-बारात तथा होली जैसे कुछ विशिष्ट अवसरों पर दरबार का माहौल जीवंत हो उठता था। सजे हुए डिब्बों में रखी सुगंधित मोमबत्तियाँ और महल की दीवारों पर लटक रहे रंग-बिरंगे बंदनवार आने वालों पर आश्चर्यजनक प्रभाव छोड़ते थे। मुगल शासक वर्ष में तीन मुख्य त्योहार मनाया करते थे : सूर्यवर्ष ओर चंद्रवर्ष के अनुसार शासक का जन्मदिन और वसंतागमन पर फ़ारसी नववर्ष शाही परिवारों में विवाहों का आयोजन काफी खर्चीला होता था। 1633 में दाराशिकोह और नादिरा (राजकुमार परवेज्ञ की पुत्री) के विवाह की व्यवस्था राजकुमारी जहाँआरा और दिवंगत महारानी मुपताज्ञ महल की प्रमुख नौकरानी सती उन निसाखानुम द्वारा की गई। शादी के उपहारों के प्रदर्शन की व्यवस्था दीवान-ए-आम में की गई थी। बादशाह तथा हरम की स्त्रियाँ दोपहर में इसे देखने के लिए आईं तथा शाम के समय अभिजात यहाँ आए। दुलहन की माँ ने भी इसी तरह उसी विशाल कक्ष में उपहारों को सजाया था। शाहजहाँ इन्हें देखने के लिए वहाँ गया। हिनाबंदी (मेंहदी लगाना) की रस्म दीवान-ए-खास में अदा की गई। दरबार में उपस्थित व्यक्तियों के बीच पान, इलायची तथा मेवे बाँटे गए। विवाह पर कुल 32 लाख रुपए खर्च हुए थे जिसमें 6 लाख रुपए शाही खज़ाने से, 16 लाख रुपए जहाँआरा (मुमताज़ महल द्वारा आरंभ में अलग से रखे गए रुपयों को मिलाते हुए) और शेष दुलहन की माँ द्वारा दिए गए थे।

“*नौरोश" जन्मदिन पर शासक को विभिन्‍न वस्तुओं से तौला जाता था तथा बाद में ये वस्तुएं दान में बाँट दी जाती थीं।

6.3 पदवियाँ, उपहार और भेंट

राज्याभिषेक के समय अथवा किसी शत्रु पर विजय के बाद मुगल बादशाह विशाल पदवियाँ ग्रहण करते थे। उद्घोषकों ( नक़ीब) द्वारा जब इन गुंजायमान और लयबद्ध पदवियों की घोषणा की जाती थी तो वे सभा में विस्मय का माहौल बना देती थीं। मुगल सिक्‍कों पर राजसी नयाचार के साथ शासनरत बादशाह की पूरी पदवी होती थी।

योग्य व्यक्तियों को पदवियाँ देना मुगल राज्यतंत्र का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष था। दरबारी पदानुक्रम में किसी व्यक्ति की उन्नति को उसके द्वारा धारण की जानेवाली पदवियों से जाना जा सकता था। उच्चतम मंत्रियों में से एक को दी जाने वाली आसफ खाँ की पदवी का उद्भव पैगम्बर शासक सुलेमान के कल्पित मंत्री से हुआ था। औरगज्ञेब ने अपने दो उच्च पदस्थ अभिजातों जयसिंह और जसवंत सिंह को मिर्जा राजा की पदवी प्रदान की। पदवियाँ या तो अर्जिव की जा सकती थीं अथवा इन्हें पाने के लिए पैसे दिए जा सकते थे। मीर खान ने अपने नाम में अलिफ़ अर्थात 'अ' अक्षर लगाकर उसे अमीर ख़ान करने के लिए औरंगजेब को एक लाख रुपए देने का प्रस्ताव किया।

अन्य पुरस्कारों में सम्मान का जामा (ख्िल्लत) भी शामिल था जिसे पहले कभी न कभी बादशाह द्वारा पहना गया हुआ होता था। इसलिए यह समझा जाता था कि वह बादशाह के आशीर्वाद का प्रतीक है। सरप्पा (सर से पाँव तक') एक अन्य उपहार था। इस उपहार के तीन हिस्से हुआ करते थे : जामा, पगड़ी और पटका। बादशाह द्वारा अकसर रत्नजड्ित आधूषण भी उपहार के रूप में दिए जाते थे। बहुत खास परिस्थितियों में बादशाह कमल की मंजरियों वाला रत्नजड्ित गहनों का सेट ( पद्म मुरस्सा) भी उपहार में प्रदान करता था।

एक दरबारी बादशाह के पास कभी खाली हाथ नहीं जाता था। वह या तो नज़र के रूप में थोड़ा धन या पेशकश के रूप में मोटी रकम बादशाह को पेश करता था। राजनयिक संबंधों में उपहारों को सम्मान और आदर का प्रतीक माना जाता था। राजदूत प्रतिद्वंद्वी राजनीतिक शक्तियों के बीच संधि और संबंधों के ज़रिए समझौता करवाने के महत्त्वपूर्ण कार्य का संपादन करते थे। ऐसी परिस्थितियों में उपहारों की महत्त्वपूर्ण प्रतीकात्मक भूमिका होती थी। टॉमस रो को इस बात से बहुत निराशा हुई थी कि उसने आसफ खाँ को जो अंगूठी भेंट की थी, वह उसे केवल इसलिए वापस कर दी गई कि वह क्‍यों मात्र चार सौ रुपए मूल्य की थी।

7. शाही परिवार

हरम' शब्द का प्रयोग प्राय: मुगलों की घरेलू दुनिया की ओर संकेत करने के लिए होता हे। यह शब्द फारसी से निकला है जिसका तात्पर्य है “पवित्र स्थान'। मुगल परिवार में बादशाह की पत्नियाँ और उपपत्तियाँ, उसके नज़दीकी और दूर के रिश्तेदार (माता, सौतेली व उपमाताएँ, बहन, पुत्री, बहू, चाची-मौसी, बच्चे आदि) व महिला परिचारिकाएं तथा गुलाम होते थे। बहुविवाह प्रथा भारतीय उपमहाद्वीप में विशेषकर शासक वर्गों में व्यापक रूप से प्रचलित थी।

राजपूत कुलों एवं मुग़लों, दोनों के लिए विवाह राजनीतिक संबंध बनाने व मैत्री-संबंध स्थापित करने का एक तरीका थे। विवाह में पुत्री को भेंटस्वरूप दिए जाने के साथ प्राय: एक क्षेत्र भी उपहार में दे दिया जाता था। इससे विभिन्‍न शासक वर्गों के बीच पदानुक्रमिक संबंधों की निरंतरता सुनिश्चित हो जाती थी। इस तरह के विवाह और उनके फलस्वरूप विकसित संबंधों के कारण ही मुगल बंधुता के एक व्यापक तंत्र का निर्माण कर सके। इससे वे महत्त्वपूर्ण वर्गों से जुड़े और उन्हें एक बुहद साम्राज्य को इकट्ठा रखने में मदद मिली।

मुगल परिवार में शाही परिवारों से आने वाली स्त्रियों ( बेगमों) और अन्य स्त्रियों (अयहा), जिनका जन्म कुलीन परिवार में नहीं हुआ था, में अंतर रखा जाता था। दहेज ( मेहर) के रूप में अच्छा-ख़ासा नकद और बहुमूल्य वस्तुएं लेने के बाद विवाह करके आई बेगमों को अपने पतियों से स्वाभाविक रूप से अगहाओं की तुलना में अधिक ऊँचा दर्जा और सम्मान मिलता था। राजतंत्र से जुड़े महिलाओं के पदानुक्रम में उपत्नियों अगाचा) की स्थिति सबसे निम्न थी। इन सभी को नकद मासिक भत्ता तथा अपने-अपने दर्ज के हिसाब से उपहार मिलते थे। वंश आधारित पारिवारिक ढाँचा पूरी तरह स्थायी नहीं था। यदि पति की इच्छा हो और उसके पास पहले से ही चार पत्नियाँ न हों तो अगहा और अगाचा भी बेगम की स्थिति पा सकती थीं। प्रेम तथा मातृत्व ऐसी स्त्रियों को
विधिसम्मत विवाहित पत्नियों के दर्ज तक पहुँचाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते थे।

पत्नियों के अतिरिक्त मुगल परिवार में अनेक महिला तथा पुरुष गुलाम होते थे। वे साधारण से साधारण कार्य से लेकर कौशल, निपुणता तथा बुद्धिमता के अलग-अलग कार्यों का संपादन करते थे। गुलाम हिजडे (ख्याजासर) परिवार के अंदर और बाहर के जीवन में रक्षक, नौकर और व्यापार में दिलचस्पी लेने वाली महिलाओं के एजेंट होते थे।

नूरजहाँ के बाद मुग़ल रानियों और राजकुमारियों ने महत्त्वपूर्ण वित्तीय स्नोतों पर नियंत्रण रखना शुरू कर दिया। शाहजहाँ की पुत्रियों, जहाँआरा और रोशनआरा, को ऊँचे शाही मनसबदारों के समान वार्षिक आय होती थी। इसके अतिरिक्त जहाँआरा को सूरत के बंदरगाह नगर जो कि विदेशी व्यापार का एक लाभप्रद केंद्र था, से राजस्व प्राप्त होता था। संसाधनों पर नियंत्रण ने मुग़ल परिवार की महत्त्वपूर्ण स्त्रियों को इमारतों व बागों के निर्माण का अधिकार दे दिया। जहाँआरा ने शाहजहाँ की नयी राजधानी शाहजहाँनाबाद (दिल्ली) की कई वास्तुकलात्मक परियोजनाओं में हिस्सा लिया। इनमें से आँगन व बाग के साथ एक दोमेजिली भव्य कारवाँसराय थी। शाहजहानाबाद के हृदय स्थल चाँदनी चौक की रूपरेखा जहाँआरा द्वारा बनाई गई थी। गुलबदन बेगम द्वारा लिखी गई एक रोचक पुस्तक हुमायुनामा से हमें मुग़लों की घरेलू दुनिया की एक झलक मिलती है। गुलबदन बेगम बाबर की पुत्री, हमायूं की बहन तथा अकबर की चाची थी। गुलबदन स्वयं तुर्की तथा फ़ारसी में धाराप्रवाह
लिख सकती थी। जब अकबर ने अबुल फज्ल को अपने शासन का इतिहास लिखने के लिए नियुक्त किया तो उसने अपनी चाची से बाबर और हुमायूँ के समय के अपने पहले संस्मरणों को लिपिबद्ध करने का आग्रह किया ताकि अबुल फज्ल उनका लाभ उठाकर अपनी कृति को पूरा कर सके। गुलबदन ने जो लिखा वह मुगल बादशाहों की प्रशस्ति नहीं थी बल्कि उसने राजाओं और राजकुमारों के बीच चलने वाले संघर्षो और तनावों के साथ ही इनमें से कुछ संघर्षों को सुलझाने में परिवार की उम्रदराज्ञ स्त्रियों की महत्त्वपूर्ण भूमिकाओं के बारे
में विस्तार से लिखा।

8. शाही नौकरशाही

8.1 भर्ती की प्रक्रिया तथा पद

मुगल इतिहास विशेषकर अकबरनामा ने साम्राज्य की ऐसी कल्पना दी जिसमें क्रिया और सत्ता लगभग पूरी तरह से एकमात्र बादशाह में निहित होती है जबकि शेष राज्य को बादशाह के आदेशों का अनुपालन करते हुए प्रदर्शित किया गया है। किंतु मुगल राज्य-तंत्र के बारे में इन इतिहासों से प्राप्त समृद्ध जानकारी को हम ध्यान से देखें तो हम उन तरीकों को समझ सकते हैं जिनसे कई भिन्‍न-भिन्‍न प्रकार की संस्थाओं पर आधारित शाही संगठन प्रभावशाली ढंग से कार्य करने में सक्षम हुआ। मुग़ल राज्य का एक महत्त्वपूर्ण स्तंभ इसके अधिकारियों का दल था जिसे इतिहासकार सामूहिक रूप से अभिजात-वर्ग भी कहते हैं।

अभिजात-वर्ग में भर्ती विभिन्‍न नृ-जातीय तथा धार्मिक समूहों से होती थी। इससे यह सुनिश्चित हो जाता था कि कोई भी दल इतना बड़ा न हो कि वह राज्य की सत्ता को चुनौती दे सके। मुग़लों के अधिकारी-वर्ग को गुलदस्ते के रूप में वर्णित किया जाता था जो वफ़ादारी से बादशाह के साथ जुड़े हुए थे। साम्राज्य के निर्माण के आरंभिक चरण से ही तूरानी और ईरानी अभिजात अकबर की शाही सेवा में उपस्थित थे। इनमें से कुछ हुमायूं के साथ भारत चले आए थे। कुछ अन्य बाद में मुगल दरबार में आए थे।

1560 से आगे भारतीय मूल के दो शासकीय समूहों-राजपूतों व भारतीय मुसलमानों (शेखज़्ादाओं) ने शाही सेवा में प्रवेश किया। इनमें नियुक्त होने वाला प्रथम व्यक्ति एक राजपृत मुखिया अंबेर का राजा भारमल कछतवाहा था जिसकी पुत्री से अकबर का विवाह हुआ था। शिक्षा और लेखाशास्त्र की ओर झुकाव वाले हिंदू जातियों के सदस्यों को भी पदोन्‍नत किया जाता था। इसका एक प्रसिद्ध उदाहरण अकबर के वित्तमंत्री टोडरमल का है जो खत्री जाति का था।

जहाँगीर के शासन में ईरानियों को उच्च पद प्राप्त हुए। जहाँगीर की राजनीतिक रूप से प्रभावशाली रानी नूरजहाँ (1645) ईरानी थी। औरगज़ोब ने राजपूतों को उच्च पदों पर नियुक्त किया। फिर भी शासन में अधिकारियों के समूह में मराठे अच्छी खासी संख्या में थे।

सभी सरकारी अधिकारियों के दर्ज और पदों में दो तरह के संख्या-विषयक ओहदे होते थे : “ज्ञात” शाही पदानुक्रम में अधिकारी मनसबदार) के पद और वेतन का सूचक था और “सवार' यह सूचित करता था कि उससे सेवा में कितने घुड्सवार रखना अपेक्षित था। सत्रहवीं शताब्दी में 1,000 या उससे ऊपर जात वाले मनसबदार
अभिजात (उमरा जो कि अमीर का बहुवचन हे) कहे गए।

सैन्य अभियानों में ये अभिजात अपनी सेनाओं के साथ भाग लेते थे तथा प्रांतों में वे साम्राज्य के अधिकारियों के रूप में भी कार्य करते थे। प्रत्येक सैन्य कमांडर घुड्सवारों को भर्ती करता था, उन्हें हथियारों आदि से लैस करता था ओर उन्हें प्रशिक्षण देता था। घुड्सवारी फ़ौज मुगल फ़ौज का अपरिहार्य अंग थी। घुड्सवार सिपाही शाही निशान से पार्श्वभाग में दागे गए उत्कृष्ट श्रेणी के घोड़े रखते थे। निम्नततम ओहदों के अधिकारियों को छोड़कर बादशाह स्वयं सभी अधिकारियों के ओहदों, पदवियों और अधिकारिक नियुक्तियों के बदलाव का पुनरीक्षण करता था। मनसब प्रथा की शुरुआत करने याले अकबर ने अपने अभिजात-वर्ग के कुछ लोगों को शिष्य (मुरीद) की तरह मानते हुए उनके साथ आध्यात्मिक रिश्ते भी कायम किए।

अभिजात-वर्ग के सदस्यों के लिए शाही सेवा शक्ति, धन तथा उच्चतम प्रतिष्ठा प्राप्त करने का एक जरिया थी। सेवा में आने का इच्छुक व्यक्ति एक अभिजात के ज्ञरिए याचिका देता था जो बादशाह के सामने तजवीज प्रस्तुत करता था। अगर याचिकाकर्ता को सुयोग्य माना जाता था तो उसे मनसब प्रदान किया जाता था। मीरबख्शी (उच्चतम वेतनदाता) खुले दरबार में बादशाह के दाएं ओर खड़ा होता था तथा नियुक्ति और पदोन्‍नति के सभी उम्मीदवारों को प्रस्तुत करता था जबकि उसका कार्यालय उसकी मुहर व हस्ताक्षर के साथ-साथ बादशाह की
मुहर व हस्ताक्षर वाले आदेश तैयार करता था। केंद्र में दो अन्य महत्त्वपूर्ण मंत्री थे : दीवान-ए-आला (वित्तमंत्री) और संद्र-उस-सुदुर मदद-ए-माश अथवा अनुदान का मंत्री और स्थानीय न्यायाधीशों अथवा काजियों की नियुक्ति का प्रभारी)। ये तीनों मंत्री कभी-कभी इकट्ठे एक सलाहकार निकाय के रूप में काम करते थे लेकिन ये एक दूसरे से स्वतंत्र होते थे। अकबर ने इन तथा अन्य सलाहकारों के साथ मिलकर साम्राज्य की प्रशासनिक, राजकोषीय व मौद्रिक संस्थाओं को आकार प्रदान किया।

दरबार में नियुक्त ( तैनात-ए-रकाब) अभिजातों का एक ऐसा सुरक्षित दल था जिसे किसी भी प्रांत या सैन्य अभियान में प्रतिनियुक्त किया जा सकता था। वे प्रतिदिन दो बार सुबह व शाम को सार्वजनिक सभा-भवन
में बादशाह के प्रति आत्मनिवेदन करने के कर्तव्य से बंधे थे। दिन-रात बादशाह और उसके घराने की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी भी वे उठाते थे।

8.2 सुचना तथा साप्राज्य

सटीक और विस्तृत आलेख तैयार करना मुग़ल प्रशासन के लिए मुख्य रूप से महत्त्वपूर्ण था। मीर बख्शी दरबारी लेखकों (वाकिया नवीस) के समूह का निरीक्षण करता था। ये लेखक ही दरबार में प्रस्तुत किए जाने वाले सभी अर्जियों व दस्तावेज्ञों तथा सभी शासकीय आदेशों ( फरमान) का आलेख तैयार करते थे। इसके अतिरिक्त अभिजातों और क्षेत्रीय शासकों के प्रतिनिधि (वकील) दरबार की बेठकों ( पहर) की तिथि और समय के साथ “उच्च दरबार से समाचार” ( अख़बारात-ए-दरबार- ए-मुअल्ला) शीर्षक के अंतर्गत दरबार की सभी कार्यवाहियों का विवरण तैयार करते थे। अख़बारात में हर तरह की सूचनाएं होती हैं जैसे दरबार में उपस्थिति, पदों और पदवियों का दान, राजनयिक शिष्टमंडलों, ग्रहण किए गए उपहारों अथवा किसी अधिकारी के स्वास्थ्य के विषय
में बादशाह द्वारा की गई पूछताछ। राजाओं और अभिजातों के सार्वजनिक और व्यक्तिगत जीवन का इतिहास लिखने के लिए यह सूचनाएं बहुत उपयोगी होती हें।

समाचार वृत्तांत और महत्त्वपूर्ण शासकीय दस्तावेज़ शाही डाक के ज़रिए मुगल शासन के अधीन क्षेत्रों में एक छोर से दूसरे छोर तक जाते थे। बांस के डिब्बों में लपेटकर रखे कागज़ों को लेकर हरकारों ( कसीद अथवा पफ्थमार) के दल दिन-रात दौड़ते रहते थे। काफ़ी दूर स्थित प्रांतीय राजधानियों से भी वृत्तांत बादशाह को कुछ ही दिनों में मिल जाया करते थे। राजधानी से बाहर तेनात अभिजातों के प्रतिनिधि अथवा राजपूत राजकुमार तथा अधीनस्थ शासक बड़े मनोयोग से इन उद्घोषणाओं की नकल तेयार करते थे व संदेशवाहकों के जरिए अपनी टिप्पणियाँ अपने स्वामियों के पास भेज देते थे। सार्वजनिक समाचार के लिए पूरा साम्राज्य आश्चर्यजनक रूप से तीव्र सूचना तंत्र से जुड़ा हुआ था।

8.3 केंद्र से परे : प्रांतीय प्रशासन

केंद्र में स्थापित कार्यों के विभाजन को प्रांतों ( सूबों) में दुहराया गया था। यहाँ भी केंद्र के समान मंत्रियों के अनुरूप अधीनस्थ ( दीवान, बख्शी और सद्र) होते थे। प्रांतीय शासन का प्रमुख गवर्नर ( सूबेदार) होता था जो सीधा बादशाह को प्रतिवेदन प्रस्तुत करता था।

प्रत्येक सूबा कई सरकारों में बंग हुआ था। अकसर सरकार की सीमाएँ फ़ौजदारों के नीचे आने वाले क्षेत्रों की सीमाओं से मेल खाती थीं। इन इलाकों में फ़ोजदारों को विशाल घुड्सवार फ़ोज और तोपचियों के साथ रखा जाता था। परगना (उप-जिला) स्तर पर स्थानीय प्रशासन की देख-रेख तीन अर्ध-वंशानुगत अधिकारियों, कानूनगो (राजस्व आलेख का रखवाला), चौधरी (राजस्व संग्रह का प्रभारी) और काजी द्वारा की जाती थी।

शासन के प्रत्येक विभाग के पास लिपिकों का एक बड़ा सहायक समूह, लेखाकार, लेखा-परीक्षक, संदेशवाहक और अन्य कर्मचारी होते थे जो तकनीकी रूप से दक्ष अधिकारी थे। ये मानकीकृत नियमों और प्रक्रियाओं के अनुसार कार्य करते तथा प्रचुर संख्या में लिखित आदेश व वृत्तांत तैयार करते थे। सर्वत्र फ़ारसी को शासन की भाषा बना दिया गया लेकिन ग्राम-लेखा के लिए स्थानीय भाषाओं का प्रयोग होता था।

मुगल इतिहासकारों ने प्राय: बादशाह और उसके दरबार को ग्राम स्तर तक के संपूर्ण प्रशासनिक तंत्र का नियंत्रण करते हुए प्रदर्शित किया है। पर जैसा कि आपने देखा (अध्याय 8), इस प्रक्रिया का तनावमुक्त रहना
असंभव सा ही था। स्थानीय ज़मींदारों और मुग़ल साम्राज्य के प्रतिनिधियों के बीच के संबंध कई बार संसाधनों और सत्ता के बंटवारों को लेकर संघर्ष का रूप ले लेते थे। ज़मींदार प्राय: राज्य के खिलाफ़ किसानों का समर्थन संघटित करने में सफल हो जाते थे।

9, सीमाओं के परे

इतिवृत्तों के लेखकों ने मुग़ल बादशाहों द्वारा धारण की गई कई गुंजायमान पदवियों को सूचीबद्ध किया है। इनके अंतर्गत शहंशाह (राजाओं का राजा) जैसी सामान्य पदवियाँ अथवा जहाँगीर (विश्व पर कब्ज्ञा करने वाला), अथवा शाहजहाँ (विश्व का राजा) जैसे अलग-अलग राजाओं द्वारा अपनाई गई ख़ास उपाधियाँ शामिल थीं। मुग़ल  दशाहों के अविजित क्षेत्रीय व राजनीतिक नियंत्रण के दावों को दुहराने के लिए इतिहासकार प्राय: इन पदवियों और उनके अर्थों का हवाला देते थे। लेकिन यही समसामयिक इतिहास पड़ोसी राजनीतिक शक्तियों के साथ राजनयिक रिश्तों और संघर्ष का विवरण देते हैं जिसमें प्रतिस्पर्धी क्षेत्रीय हितों की वजह से कुछ तनाव और राजनीतिक प्रतिद्वंद्धाता का पता चलता हे।

9.1 सफ़ाबी और कंधार

मुग़ल राजाओं तथा ईरान व तूरान के पड़ोसी देशों के राजनीतिक व राजनयिक रिश्ते अफ़गानिस्तान को ईरान व मध्य एशिया के क्षेत्रों से पृथक करने वाले हिंदूकुश पर्वतों द्वारा निर्धारित सीमा के नियंत्रण पर निर्भर करते थे। भारतीय उपमहाद्वीप में आने को इच्छुक सभी विजेताओं को उत्तर भारत तक पहुँचने के लिए हिंदुकुश को पार करना होता था। मुगल नीति का यह निरंतर प्रयास रहा कि सामरिक महत्त्व की चोकियों विशेषकर काबुल व कंधार पर नियंत्रण के द्वारा इस संभावित खतरे से बचाव किया जा सके। कंधार सफ़ाबियों और मुग़लों के
बीच झगड़े की जड़ था। यह किला-नगर आरंभ में हुमायूं के अधिकार में था जिसे 1595 में अकबर द्वारा पुन: जीत
लिया गया। यद्यपि सफ़ाबी दरबार ने मुग़लों के साथ अपने राजनयिक संबंध बनाए रखे तथापि कंधार पर यह दावा करता रहा। 1613 में जहाँगीर ने शाह अब्बास के दरबार में कंधार को मुग़ल अधिकार में रहने देने की
वकालत करने के लिए एक राजनयिक दूत भेजा लेकिन यह शिष्टमंडल अपने उद्देश्य में सफल नहीं हुआ। 1622 की शीत ऋतु में एक फ़ारसी सेना ने कंधार पर घेरा डाल दिया। मुग़ल रक्षक सेना पूरी तरह से तैयार नहीं थी। अत: यह पराजित हुई और उसे किला तथा नगर सफ़ावियों को सौंपने पड़े।

9,2 ऑटोमन साम्राज्य : तीर्थयात्रा और व्यापार

ऑटोमन साम्राज्य के साथ मुग़लों ने अपने संबंध इस हिसाब से बनाए कि वे ऑोमन नियंत्रण वाले क्षेत्रों में व्यापारियों व तीर्थयात्रियों के स्वतंत्र आवागमन को बरकरार रखवा सकें। यह हिजाज़ अर्थात ऑयोमन अरब
के उस हिस्से के लिए विशेष रूप से सत्य था जहाँ मक्का और मदीना के महत्त्वपूर्ण तीर्थस्थल स्थित थे। इस क्षेत्र के साथ अपने संबंधों में मुगल बादशाह आमतौर पर धर्म एवं वाणिज्य के मुद्दों को मिलाने की कोशिश करता था। यह लाल सागर के बंदरगाह अदन और मोखा को बहुमूल्य वस्तुओं के निर्यात को प्रोत्साहन देता था और इनकी बिक्री से अर्जित आय को उस इलाके के धर्मस्थलों व फ़कीरों में दान में बाँट देता था। हालाँकि औरंगज्ेब को जब अरब भेजे जाने वाले धन के दुरुपयोग का पता चला तो उसने भारत में उसके वितरण का समर्थन किया क्योंकि उसका मानना था कि “यह भी वैसा ही ईश्वर का घर है जैसा कि मक्‍का।

9.3 मुगल दरबार में जेसुइट धर्म प्रचारक

यूरोप को भारत के बारे में जानकारी जेसुइट धर्म प्रचारकों, यात्रियों, व्यापारियों और राजनयिकों के विवरणों से हुई। मुग़ल दरबार के यूरोपीय विवरणों में जेसुइट वृत्तात सबसे पुराने वृत्तांत हैं। पंद्रहवीं शताब्दी के अंत में भारत तक एक सीधे समुद्री मार्ग की खोज का अनुसरण करते हुए पुर्तगाली व्यापारियों ने तटीय नगरों में व्यापारिक केंद्रों का जाल स्थापित किया। पुर्तगाली राजा भी सोसाइटी ऑफ़ जीसस (जेसुइट) के थधर्मप्रचारकों की मदद से ईसाई धर्म के प्रचार-प्रसार में रुचि रखता था। सोलहवीं शताब्दी के दौरान भारत आने वाले जेसुइट शिष्टमंडल व्यापार और साम्राज्य निर्माण की इस प्रक्रिया का हिस्सा थे।

अकबर ईसाई धर्म के विषय में जानने को बहुत उत्सुक था। उसने जेसुइट पादरियों को आमंत्रित करने के लिए एक दृतमंडल गोवा भेजा। पहला जेसुइट शिष्टमंडल फतेहपुर सीकरी के मुग़ल दरबार में 1580 में पहुँचा और वह वहाँ लगभग दो वर्ष रहा। इन जेसुइट लोगों ने ईसाई धर्म के विषय में अकबर से बात की और इसके सदगुणों के विषय में उलमा से उनका वाद-विवाद हुआ। लाहौर के मुग़ल दरबार में दो और शिष्टमंडल 1591 और 1595 में भेजे गए।

जेसुइट विवरण व्यक्तिगत प्रेक्षणों पर आधारित हैं और वे बादशाह के चरित्र और सोच पर गहरा प्रकाश डालते हैं। सार्वजनिक सभाओं में जेसुइट लोगों को अकबर के सिंहासन के काफ़ी नज़दीक स्थान दिया जाता था। वे उसके साथ अभियानों में जाते, उसके बच्चों को शिक्षा देते तथा उसके फुरसत के समय में वे अकसर उसके साथ होते थे। जेसुइट विवरण मुगलकाल के राज्य अधिकारियों और सामान्य जन-जीवन के बारे में फारसी इतिहासों में दी गई सूचना की पुष्टि करते हैं।

10, औपचारिक धर्म पर प्रश्न उठाना

जेसुइट शिष्टमंडल के सदस्यों के प्रति अकबर ने जो उच्च आदर प्रदर्शित किया उससे वे बहुत प्रभावित हुए।
ईसाई धर्म सिद्धांतों में बादशाह की स्पष्ट दिलचस्पी की व्याख्या उन्होंने अपने मत में बादशाह के धर्म-परिवर्तन
के संकेत रूप में की। इसे पश्चिमी यूरोप में हावी धार्मिक असहिष्णुता के माहौल के प्रकाश में समझा जा सकता है। मान्सेरेट ने टिप्पणी की कि, “राजा ने इस बात की बहुत कम परवाह की कि सभी को उसके धर्म के अनुपालन की अनुमति देकर उसने वास्तव में सबका तिरस्कार किया।”

धार्मिक ज्ञान के लिए अकबर की तलाश ने फतेहपुर सीकरी के इबादतखाने में विद्वान मुसलमानों, हिंदुओं,
जैनों, पारसियों और ईसाइयों के बीच अंतर-धर्माय वाद-विवादों को जन्म दिया। अकबर के धार्मिक विचार,
विभिन्‍न धर्मों व संप्रदायों के विद्वानों से प्रश्न पूछने और उनके धर्म-सिद्धांतों के बारे में जानकारी इकट्ठा करने से,
परिपक्व हुए। धीरे-धीरे वह धर्मों को समझने के रूढ़्िवादी तरीकों से दूर प्रकाश और सूर्य पर केंद्रित दैवीय उपासना के स्व-कल्पित विभिन्‍नदर्शन ग्राही रूप की ओर बढ़ा। हमने देखा कि अकबर और अबुल फज्ल ने प्रकाश के दर्शन का सृजन किया और राजा की छवि तथा राज्य की विचारधारा को आकार देने में इसका प्रयोग किया। इसमें दैवीय रूप से प्रेरित व्यक्ति का अपने लोगों पर सर्वोच्च प्रभुत्व तथा अपने शत्रुओं पर पूर्ण नियंत्रण होता है।

फ्रांस्वा बर्नियर वर्णित मुगलकाल

फ्रांस्वा बर्नियर

फ्रांस का रहने वाला फ्रांस्वा बर्नियर एक चिकित्सक, राजनीतिक दार्शनिक तथा एक इतिहासकार था। कई और लोगों की तरह ही वह मुगल साम्राज्य में अवसरों की तलाश में आया था। वह 1656 से 1668 तक भारत में बारह वर्ष तक रहा और मुगल दरबार से नज़दीकी रूप से जुड़ा रहा-पहले सम्राट शाहजहाँ के ज्येष्ठ पुत्र दारा
शिकोह के चिकित्सक के रूप में, और बाद में मुगल दरबार के एक आर्मीनियाई अमीर दानिशमंद ख़ान के साथ एक बुद्धिजीवी तथा वैज्ञानिक के रूप में।

3.1 “पूर्व” और “पश्चिम” को तुलना

बर्नियर ने देश के कई भागों की यात्रा की और जो देखा उसके विषय में विवरण लिखे। वह सामान्यतः भारत में जो देखता था उसकी तुलना यूरोपीय स्थिति से करता था। उसने अपनी प्रमुख कृति को फ्रांस के शासक लुई जाए को समर्पित किया था और उसके कई अन्य कार्य प्रभावशाली आधिकारियों और मंत्रियों को पत्रों के रूप में लिखे गए थे। लगभग प्रत्येक दुष्टांत में बर्नियर ने भारत की स्थिति को यूरोप में हुए विकास की तुलना में दयनीय बताया। जैसाकि हम देखेंगे उसका आकलन हमेशा सटीक नहीं था फिर भी जब उसके कार्य प्रकाशित हुए
तो बर्नियर के वृत्तांत अत्यधिक प्रसिद्ध हुए।

बर्नियर के कार्य फ्रांस में 1670-71 में प्रकाशित हुए थे, और अगले पाँच वर्षों के भीतर ही अंग्रेजी, डच, जर्मन तथा इतालवी भाषाओं में इनका अनुवाद हो गया। 1670 और 1725 के बीच उसका चवृत्तांत फ्रांसीसी में आठ बार पुनर्मुद्रित हो चुका था और 1684 तक यह तीन बार अंग्रेज़ी में पुनर्मुद्रित हुआ था। यह अरबी और फ़ारसी वृत्तांतों
जिनका प्रसार हस्तलिपियों के रूप में होता था और जो 1800 से पहले सामान्यत: प्रकाशित नहीं होते थे, के पूरी तरह विपरीत था।

6. बर्नियर तथा “अपविकसित ” पूर्व

जहाँ इब्न बतूता ने हर उस चीज़ का वर्णन करने का निश्चय किया जिसने उसे अपने अनूठेपन के कारण प्रभावित और उत्सुक किया, वहीं बर्नियर एक भिन्‍न बुद्धिजीवी परंपरा से संबंधित था। उसने भारत में जो भी देखा, वह उसकी सामान्य रूप से यूरोप और विशेष रूप से फ्रांस में व्याप्त स्थितियों से तुलना तथा भिन्‍नता को उजागर करने के प्रति अधिक चिंतित था, विशेष रूप से वे स्थितियाँ जिन्हें उसने अवसादकारी पाया। उसका विचार नीति-निर्माताओं तथा बुद्धिजीवी वर्ग को प्रभावित करने का था ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि ये ऐसे निर्णय ले
सकें जिन्हें वह “सही” मानता था।

बर्नियर के ग्रंथ ट्रैवल्स इन द मुगल एस्पायर अपने गहन प्रेक्षण, आलोचनात्मक अंतर्दृष्टि तथा गहन चिंतन के लिए उल्लेखनीय है। उसके वृत्तांत में की गई चर्चाओं में मुगलों के इतिहास को एक प्रकार के वैश्विक ढाँचे में स्थापित करने का प्रयास किया गया है। वह निरंतर मुग़लकालीन भारत की तुलना तत्कालीन यूरोप से करता रहा, सामान्यतया यूरोप की श्रेष्ठता को रेखांकित करते हुए। उसका भारत का चित्रण द्वि विपरीतता के नमूने पर आधारित है, जहाँ भारत को यूरोप के प्रतिलोम के रूप में दिखाया गया है, या फिर यूरोप का “विपरीत ”' जैसा
कि कुछ इतिहासकार परिभाषित करते हैं। उसने जो भिन्‍नताएँ महसूस कीं उन्हें भी पदानुक्रम के अनुसार क़मबद्ध किया, जिससे भारत, पश्चिमी दुनिया को निम्न कोटि का प्रतीत हो।

6.1 भूमि स्वामित्व का प्रश्न

बर्नियर के अनुसार भारत और यूरोप के बीच मूल भिन्‍नताओं में से एक भारत में निजी भूस्वामित्व का अभाव था। उसका निजी स्वामित्व के गुणों में दृढ़ विश्वास था और उसने भूमि पर राजकीय स्वामित्व को राज्य तथा उसके निवासियों, दोनों के लिए हानिकारक माना। उसे यह लगा कि मुग़ल साम्राज्य में सम्राट सारी भूमि का स्वामी था जो इसे अपने अमीरों के बीच बाँटता था, और इसके अर्थव्यवस्था और समाज के लिए अनर्थकारी परिणाम होते थे। इस प्रकार का अवबोधन बर्नियर तक ही सीमित नहीं था बल्कि सोलहवीं तथा सत्रहवीं शताब्दी के अधिकांश यात्रियों के बृत्तांतों में मिलता है।

राजकीय भृस्वामित्व के कारण, बर्नियर तर्क देता है, भूधारक अपने बच्चों को भूमि नहीं दे सकते थे। इसलिए वे उत्पादन के स्तर को बनाए रखने ओर उसमें बढ़ोत्तरी के लिए दूरगामी निवेश के प्रति उदासीन थे।

इस प्रकार, निजी भूस्वामित्व के अभाव ने “बेहतर'' भूधारकों के वर्ग के उदय (जैसा कि पश्चिमी यूरोप में) को रोका जो भूमि के रखरखाव व बेहतरी के प्रति सजग रहते। इसी के चलते कृषि का समान रूप से विनाश, किसानों का असीम उत्पीड़न तथा समाज के सभी वर्गों के जीवन स्तर में अनवस्त पतन की स्थिति उत्पन्न हुई है, सिवाय शासक वर्ग के।

इसी के विस्तार के रूप में बर्नियर भारतीय समाज को दरिद्र लोगों के समरूप जनसमूह से बना वर्णित करता है, जो एक बहुत अमीर तथा शक्तिशाली शासक वर्ग, जो अल्पसंख्यक होते हैं, के द्वारा अधीन बनाया जाता है। गरीबों में सबसे गरीब तथा अपीरों में सबसे अमीर व्यक्ति के बीच नाममात्र को भी कोई सामाजिक समूह या वर्ग नहीं था। बर्नियर बहुत विश्वास से कहता है, “ भारत में मध्य की स्थिति के लोग नहीं है।”

तो बर्नियर ने मुग़ल साम्राज्य को इस रूप में देखा-इसका राजा “भिखारियों और क़ूर लोगों" का राजा था; इसके शहर और नगर विनष्ट तथा “खराब हवा” से दूषित थे; और इसके खेत “झाड़ीदार” तथा “घातक दलदल” से भरे हुए थे और इसका मात्र एक ही कारण था- राजकीय भुस्वामित्व।

आश्चर्य की बात यह है कि एक भी सरकारी मुग़ल दस्तावेज़ यह इंगित नहीं करता कि राज्य ही भूमि का एकमात्र स्वामी था। उदाहरण के लिए, सोलहवीं शताब्दी में अकबर के काल का सरकारी इतिहासकार अबुल फ़ज्ल भूमि राजस्व को 'राजत्व का पारिश्रमिक' बताता है जो राजा द्वारा अपनी प्रजा को सुरक्षा प्रदान करने के बदले की गई माँग प्रतीत होती है न कि अपने स्वामित्व वाली भूमि पर लगान। ऐसा संभव है कि यूरोपीय यात्री ऐसी माँगों को लगान मानते थे क्योंकि भूमि राजस्व की माँग अकसर बहुत अधिक होती थी। लेकिन असल में यह न तो लगान था, न ही भूमिकर, बल्कि उपज पर लगने वाला कर था (अधिक जानकारी के लिए अध्याय 8 देखिए)।

बर्नियर के विवरणों ने अठारहवीं शताब्दी से पश्चिमी विचारकों को प्रभावित किया। उदाहरण के लिए, फ्रांसीसी दार्शनिक मॉन्‍्टेस्क्यू ने उसके वृत्तांत का प्रयोग प्राच्य निरंकुशवाद के सिद्धांत को विकसित करने में किया, जिसके अनुसार एशिया (प्राच्य अथवा पूर्व) में शासक अपनी प्रजा के ऊपर निर्बाध प्रभुत्तव का उपभोग करते थे, जिसे दासता और गरीबी की स्थितियों में रखा जाता था। इस तर्क का आधार यह था कि सारी भूमि पर राजा का स्वामित्व होता था तथा निजी संपत्ति अस्तित्व में नहीं थी। इस दृष्टिकोण के अनुसार राजा और उसके अमीर वर्ग को छोड़ प्रत्येक व्यक्ति मुश्किल से गुजर-बसर कर पाता था।

उनन्‍नीसवीं शताब्दी में कार्ल मार्क्स ने इस विचार को एशियाई उत्पादन शैली के सिद्धांत के रूप में और आगे बढ़ाया। उसने यह तर्क दिया कि भारत (तथा अन्य एशियाई देशों) में उपनिवेशवाद से पहले अधिशेष का अधिग्रहण राज्य द्वारा होता था। इससे एक ऐसे समाज का उद्भव हुआ जो बड़ी संख्या में स्वायत्त तथा (आंतरिक रूप से) समतावादी ग्रामीण समुदायों से बना था। इन ग्रामीण समुदायों पर राजकीय दरबार का नियंत्रण होता था और जब तक अधिशेष की आपूर्ति निर्विष्न रूप से जारी रहती थी, इनकी स्वायत्तता का सम्मान किया जाता था। यह एक निष्क्रिय प्रणाली मानी जाती थी।

परंतु, जैसा कि हम देखेंगे (अध्याय 8) ग्रामीण समाज का यह चित्रण सच्चाई से बहुत दूर था। बल्कि सोलहवीं और सत्रहवीं शताब्दी में ग्रामीण समाज में चारित्रिक रूप से बड़े पैमाने पर सामाजिक और आर्थिक विभेद था। एक ओर बड़े ज़मींदार थे जो भूमि पर उच्चाधिकारों का उपभोग करते थे और दूसरी ओर “अस्पृश्य” भूमिविहीन श्रमिक (बलाहार)। इन दोनों के बीच में बड़ा किसान था जो किराए के श्रम का प्रयोग करता था और माल उत्पादन में संलग्न रहता था; साथ ही अपेक्षाकृत छोटे किसान भी थे जो मुश्किल से ही निर्वहन लायक उत्पादन कर पाते थे।

एक अधिक जटिल सामाजिक सच्चाई

हालाँकि मुगल राज्य को निरंकुश रूप देने की तन्मयता स्पष्ट है, लेकिन उसके विवरण कभी-कभी एक अधिक जटिल सामाजिक सच्चाई की ओर इशारा करते हैं। उदाहरण के लिए वह कहता है कि शिल्पकारों के पास अपने उत्पादों को बेहतर बनाने का कोई प्रोत्साहन नहीं था क्योंकि मुनाफ़े का अधिग्रहण राज्य द्वारा कर लिया जाता था। इसलिए उत्पादन हर जगह पतनोन्मुख था। साथ ही वह यह भी मानता है कि पूरे विश्व से बड़ी मात्रा में बहुमूल्य धातुएँ भारत में आती थीं क्योंकि उत्पादों का सोने और चाँदी के बदले निर्यात होता था। वह एक समृद्ध व्यापारिक समुदाय जो लंबी दुरी के विनिमय से संलग्न था, के अस्तित्व को भी रेखांकित करता है।

सत्रहवीं शताब्दी में जनसंख्या का लगभग पंद्रह प्रतिशत भाग नगरों में रहता था। यह औसतन उसी समय पश्चिमी यूरोप की नगरीय जनसंख्या के अनुपात से अधिक था। इतने पर भी, बर्नियर मुगलकालीन शहरों को “शिविर नगर” कहता हे, जिससे उसका आशय उन नगरों से था जो अपने अस्तित्व और बने रहने के लिए राजकीय शिविर पर निर्भर थे। उसका विश्वास था कि ये राजकीय दरबार के आगमन के साथ अस्तित्व में आते थे और इसके कहीं और चले जाने के बाद तेज्ञी से पतनोन्मुख हो जाते थे। उसने यह भी सुझाया कि इनकी सामाजिक और आर्थिक नीव व्यवहार्य नहीं होती थी और ये राजकीय प्रश्नय पर आश्रित रहते थे।

भूस्वामित्व के प्रश्न की तरह ही बर्नियर एक अतिसरलीकृत चित्रण प्रस्तुत कर रहा था। वास्तव में सभी प्रकार के नगर अस्तित्व में थे: उत्पादन केंद्र, व्यापारिक नगर, बंदरगाह नगर, धार्मिक केंद्र, तीर्थ स्थान आदि। इनका अस्तित्व समृद्ध व्यापारिक समुदायों तथा व्यावसायिक वर्गों के अस्तित्व का सूचक हेै।

व्यापारी अक्सर मजबूत सामुदायिक अथवा बंधुत्व के संबंधों से जुडे होते थे और अपनी जाति तथा व्यावसायिक संस्थाओं के माध्यम से संगठित रहते थे। पश्चिमी भारत में ऐसे समूहों को महाजन कहा जाता था और उनके मुखिया को सेठ। अहमदाबाद जैसे शहरी केंद्रों में सभी महाजनों का सामूहिक प्रतिनिधित्व व्यापारिक समुदाय के मुखिया द्वारा होता था जिसे नगर सेठ कहा जाता था।

अन्य शहरी समूहों में व्यावसायिक वर्ग जैसे चिकित्सक (हकीम अथवा वैद्य), अध्यापक (पंडित या मुल्ला), अधिवक्ता (वकील), चित्रकार, वास्तुविद, संगीतकार, सुलेखक आदि सम्मिलित थे। जहाँ कई राजकीय प्रश्नय पर आश्रित थे, कई अन्य संरक्षकों या भीड्भाड़ वाले बाज़ार में आम लोगों की सेवा द्वारा जीवनयापन करते थे।

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मुग़ल सेना के साथ यात्रा

बर्नियर ने कई बार मुगल सेना के साथ यात्राएँ की। यहाँ सेना के कश्मीर कूच के संबंध में दिए गए विवरण से एक अंश दिया जा रहा है: इस देश की प्रथा के अनुसार मुझसे दो अच्छे तुर्कमान घोड़े देखने की अपेक्षा की जाती है और मैं अपने साथ एक शक्तिशाली फ़ार॒सी ऊंट तथा चालक, अपने घोड़ों के लिए एक साईस, एक खानसामा
तथा एक सेवक जो हाथ में पानी का पात्र लेकर मेरे घोड़े के आगे चलता है, भी रखता हूँ। मुझे हर उपयोगी वस्तु दी गई है जैसे औसत आकार का एक तंबू, एक दरी, चार बहुत कठोर पर हलके बेतों से बना एक छोटा बिस्तर, एक तकिया, एक बिछौना, भोजन के समय प्रयुक्त गोलाकार चमडे के मेज़पोश, रंगे हुए कपड़ों के कुछ अंगौछे/नैपकिन, खाना बनाने के सामान से भरे तीन छोटे झोले जो सभी एक बड़े झोले में रखे हुए थे, और यह झोला भी एक लंबे-चौड़े तथा सुदृढ़ दुहरे बोरे अथवा चमड़े के पूट्ों से बने जाल में रखा है। इसी तरह इस दुहरे बोरे में स्वामी और सेवकों कौ खाद्य सामग्री, साप्राज्य कपड़े तथा वस्त्र रखे गए हैं। मैंने ध्यानपूर्वक पाँच या छह दिनों के उपभोग के लिए बढ़िया चावल; सौंफ (एक प्रकार का शाक/पौधा) की सुगंध वाली मीठी रोटी, नींबू तथा चीनी का
भंडार साथ रखा है। साथ ही मैं दही को टाँगने और पानी निकालने के लिए प्रयुक्त छोटे, लोहे के अंकुश वाला झोला लेना भी नहीं भूला हूँ। इस देश में नींबू के शरबत और दही से अधिक ताज़गी भरी वस्तु कोई नहीं मानी जाती।

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गरीब किसान

यहाँ बर्नियर द्वारा ग्रामीण अंचल में कृषकों के विषय में दिए गए विवरण से एक उद्धरण दिया जा रहा है:

हिंदुस्तान के साम्राज्य के विशाल ग्रामीण अंचलों में से कई केवल रेतीली भूमियाँ या बंजर पर्वत ही हैं। यहाँ की खेती अच्छी नहीं है और इन इलाकों की आबादी भी कम है। यहाँ तक कि कृषियोग्य भूमि का एक बड़ा हिस्सा भी श्रमिकों के अभाव में कृषि विहीन रह जाता है; इनमें से कई श्रमिक गवर्नरों द्वारा किए गए बुरे व्यवहार के फलस्वरूप मर जाते हैं। गरीब लोग जब अपने लोभी स्वामियों की माँगों को पूरा करने में असमर्थ हो जाते हैं तो उन्हें न केवल जीवन-निर्वहन के साधनों से वंचित कर दिया जाता है, बल्कि उन्हें अपने बच्चों से भी हाथ धोना पड़ता है, जिन्हें दास बना कर ले जाया जाता है। इस प्रकार ऐसा होता है कि इस अत्यंत निरंकुशता से हताश हो किसान गाँव छोड़कर चले जाते हैं।

इस उद्धरण में बर्नियर राज्य और समाज से संबंधित यूरोप में प्रचलित तत्कालीन विवादों में भाग ले रहा था, और उसका प्रयास था कि मुगल कालीन भारत से संबंधित उसका विवरण यूरोप में उन लोगों के लिए एक चेतावनी का कार्य करेगा जो निजी स्वामित्व की “अच्छाइयों” को स्वीकार नहीं करते थे।

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यूरोप के लिए एक चेतावनी

बर्नियर चेतावनी देता है कि यदि यूरोपीय शासकों ने मुगल ढाँचे का अनुसरण किया तो :

उनके राज्य इस प्रकार अच्छी तरह से जुते और बसे हुए, इतनी अच्छी तरह से निर्मित, इतने सपृद्ध, इतने सुशिष्ट तथा फलते-फूलते नहीं रह जाएँगे जैसा कि हम उन्हें देखते हैं। दूसरी दृष्टि से हमारे शासक अमीर और शक्तिशाली हैं; और हमें यह स्वीकार करना चाहिए कि उनकी और बेहतर और राजसी ढंग से सेवा हो। वे जल्द ही रेगिस्तान तथा निर्जन स्थानों के, भिखारियों तथा क्र लोगों के राजा बनकर रह जाएँगे जैसे कि वे जिनके विषय में मैंने वर्ण किया है। (मुगल शासक हम उन महान शहरों और नगरों को खराब हवा के कारण न रहने योग्य अवस्था में पाएंगे, तथा विनाश की स्थिति में, जिनके जीर्णोद्धार की किसी को चिंता नहीं है, व्यक्त टीले और झादधियों अथवा घातक दलदल से भरे हुए खेत, जैसा कि पहले ही बताया गया है।

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एक भिन्‍न सामाजिक-आर्थिक परिवृश्य

बर्नियर के वृत्तांत से लिए गए इस उद्धरण को पढ़िए जिसमें कृषि तथा शिल्प-उत्पादन दोनों का विवरण दिया गया हैः

यह ध्यान देना आवश्यक है कि इस देश के विस्तृत भू-भाग का अधिकांश भाग अत्यधिक उपजाऊ है; ठदाहरण के लिए, बंगाल का विशाल राज्य जो मिस्र से न केवल चावल, मकई तथा जीवन की अन्य आवश्यक वस्तुओं के उत्पादन में, बल्कि उन अनगिनत वाणिज्यिक वस्तुओं के संदर्भ में, जो मिस्र में भी नहीं उगाई जारी, जैसे रेशम, कपास तथा नील कहीं आगे हैं। भारत के कई ऐसे भाग भी हैं जहाँ जनसंख्या पर्याप्त है और भूमि पर खेती अच्छी होती है; और जहाँ एक शिल्पकार जो हालाँकि मूल रूप से आलसी होता है, आवश्यकता से या किसी अन्य कारण से अपने आप को गलीचों, ज़री, कसीदाकारी कढ़ाई, सोने और चाँदी के वस्त्रों, तथा विभिन्‍न प्रकार के रेशम तथा सूती वस्त्रों, जो देश में भी प्रयोग होते हैं और विदेश में निर्यात किए जाते हैं, के निर्माण का कार्य
करने के लिए बाध्य हो जाता है।

यह भी नहीं भूलना चाहिए कि पूरे विश्व के सभी भागों में संचलन के पश्चात सोना और चाँदी भारत में आकर कुछ हद तक खो जाता है।

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राजकीय कारखाने

संभवत: बर्नियर एकमात्र ऐसा इतिहासकार है जो राजकीय कारखानों की कार्यप्रणाली का विस्तृत विवरण प्रदान करता है:

कई स्थानों पर बड़े कक्ष दिखाई देते हैं जिन्हें कारखाना अथवा शिल्पकारों की कार्यशाला कहते हैं। एक कक्ष में कसीदाकार एक मास्टर के निरीक्षण में व्यस्तता से कार्यरत रहते हैं। एक अन्य में आप सुनारों को देखते हैं; तीसरे में, चित्रकार; चौथे में, प्रलाक्षा रस का रोगन लगाने वाले; पाँचवें में बढ़ई, खरादी, दर्जी तथा जूते बनाने वाले; छठे में रेशम, जरी तथा महीन मलमल का काम करने वाले...

शिल्पकार अपने कारखानों में हर रोज़ सुबह आते हैं जहाँ वे पूरे दिन कार्यरत रहते हैं; और शाम को अपने-अपने घर चले जाते हैं। इसी निश्चेष्ट नियमित ढंग से उनका समय बीतता जाता है; कोई भी जीवन की उन स्थितियों में सुधार करने का इच्छुक नहीं है जिनमें वह पैदा हुआ था।

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सती बालिका

यह संभवत: बर्नियर के वृत्तांत के सबसे मार्मिक विवरणों में से एक हैः

लाहौर में मैंने एक बहुत ही सुंदर अल्पवयस्क विधवा जिसकी आयु मेरे विचार में बारह वर्ष से अधिक नहीं थी, की बलि होते हुए देखी। उस भयानक नर्क की ओर जाते हुए वह असहाय छोटी बच्ची जीवित से अधिक मृत
प्रतीत हो रही थी; उसके मस्तिष्क की व्यथा का वर्णन नहीं किया जा सकता; वह काँपते हुए बुरी तरह से रो रही थी; लेकिन तीन या चार ब्राह्मण, एक बूढ़ी औरत, जिसने उसे अपनी आस्तीन के नीचे दबाया हुआ था, की सहायता से उस अनिच्छुक पीड़िता को जबरन घातक स्थल की ओर ले गए, उसे लकडियों पर बैठाया, उसके हाथ और पैर बाँध दिए ताकि वह भाग न जाए और इस स्थिति में उस मासूम प्राणी को जिन्दा जला दिया गया। मैं
अपनी भावनाओं को दबाने में और उनके कोलाहलपूर्ण तथा व्यर्थ के क्रोध को बाहर आने से रोकने में असमर्थ था...